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ग्यारह लम्बी कहानियाँ

निर्मल वर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :334
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 119
आईएसबीएन :9788126330546

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हिन्दी के यशस्वी कथाकार निर्मल वर्मा की ग्यारह लम्बी कहानियों का संग्रह। निर्मल जी की कहानियाँ अक्सर सोचती हुई सी ( रिफ्लेक्टिव) कहानियाँ होती हैं।

Gyarah Lambi Kahaniyan - A Hindi Book by - Nirmal Verma ग्यारह लम्बी कहानियाँ - निर्मल वर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी के यशस्वी कथाकार निर्मल वर्मा की ग्यारह लम्बी कहानियों का संग्रह। निर्मल जी की कहानियाँ अक्सर सोचती हुई सी ( रिफ्लेक्टिव) कहानियाँ होती हैं। उनका चेहरा बाहरी दुनिया से उन्मुख होता हुआ भी, आँखे कहीं भीतर की ओर झिलकती-सी दिखाई देती हैं- चिन्तामग्न। पाठकों के लिए निर्मल जी की बेहतरीन कहानियाँ सब के जगह।

भूमिका

अपनी लम्बी कहानियों के लिए मेरे भीतर कुछ वैसा ही त्रास भरा स्नेह रहा है, जैसा शायद उन माँओं का अपने बच्चों के लिए, जो बिना उसके चाहे लम्बे होते जाते हैं-जबकि उम्र में छोटे ही रहते हैं। ऐसी कहानियों को क्या कहा जाए जो कहानी की लगी-बँधी सीमा का उल्लंघन तो कर लेती हैं, किन्तु उपन्यास के ‘बड़प्पन में जाने का साहस नहीं कर पातीं ? अँग्रेज़ी का शब्द ‘नावेला’ शायद मेरे आशय के सबसे निकट आता है, जिसे उन्नीसवीं शती के रूसी कथाकारों ने इतनी कुशलता से साधा था। टॉल्स्टॉय की कहानी ईवान इल्यिच की मृत्यु, तुर्गनेव की अनेक सुन्दर ‘उपन्यासिकाएँ’ और चेखव की वार्ड नम्बर छह ऐसी कहानियों के श्रेष्ठ उदाहरण हैं जो कहानी और उपन्यास के बीच की ज़मीन पर एक अनूठी कथ्यात्मक विधा रचती हैं।

जबसे मैंने कहानियाँ लिखना शुरू किया, लम्बी कहानियों की यह दुनिया मुझे बहुत आत्मीय लगती रही है-न तो छोटी कहानियों की तरह बहुत कसी हुई, न ही उपन्यासों की तरह बहुत फैली हुई... संयम और उन्मुक्तता के इस अद्भुत सम्मिश्रण से एक तरह का लिरिकल सौन्दर्य उत्पन्न होता है, जहाँ शब्द अपनी स्पेस निर्धारित करते हैं...जो बाहर की तरफ़ न जाती हुई अपने भीतर की तहों को खोलती है। अधिकांश लम्बी कहानियाँ अकसर सोचती हुई-सी (रिफ़्लेक्टिव) कहानियाँ होती हैं, उनका चेहरा दुनिया की ओर उन्मुख होता हुआ भी आँखें कहीं भीतर झाँकती-सी दिखाई देती हैं। उदास और चिन्तामग्न। मैंने जान-बूझकर लम्बी कहानियाँ नहीं लिखीं-वे मनमाने ढंग से अपने-आप लम्बी होती गईं...एक लम्बे समय से मेरी यह साध रही थी, कि मैं इन बेडौल-सी दिखनेवाली कहानियों को एक अलग जगह से समेट सकूँ। मैं भारतीय ज्ञानपीठ का आभारी हूँ कि उन्होंने इस साध को इतने चुपचाप ढ़ंग से पूरा किया।

परिन्दे


  Can we do nothing for dead ? and for a long
Time the answer had been-nothing
-katherine Mansfield
अँधेरे गलियारे में चलते हुए लतिका ठिठक गई। दीवार का सहारा लेकर उसने  लैम्प की बत्ती बढ़ा दी। सीढ़ियों पर उसकी छाया एक बेडौल कटी-फटी आकृति खींचने लगी। सात नम्बर कमरे से लड़कियों की बातचीत और हँसी-ठहाकों का स्वर अभी तक आ रहा था। लतिका ने दरवाज़ा खटखटाया। शोर अचानक बन्द हो गया।
‘‘कौन है ?’’
लतिका चुप खड़ी रही। कमरे मैं कुछ देर तक घुसर-पुसर होती रही, फिर दरवाजे़ की चिटखनी के खुलने का स्वर आया। लतिका कमरे की देहरी से कुछ आगे बढ़ी, लैम्प की झपकती लौ में लड़कियों के चेहरे सिनेमा के परदे पर ठहरे हुए क्लोज़अप की भाँति उभरने लगे।
‘‘कमरे में अँधेरा क्यों कर रखा है ?’’ लतिका के स्वर में हलकी-सी झिड़की का आभास था।
‘‘लैम्प में तेल ही ख़त्म हो गया, मैडम !’’

यह सुधा का कमरा था, इसलिए उसे ही उत्तर देना पड़ा। हॉस्टल में शायद वह सबसे अधिक लोकप्रिय थी, क्योंकि सदा छुट्टी के समय या रात को डिनर के बाद आस-पास के कमरों में रहनेवाली लड़कियों का जमघट उसी के कमरे में लग जाता था। देर तक गप-शप, हँसी-मजा़क़ चलता रहता।
‘‘तेल के लिए करीमुद्दीन से क्यों नहीं कहा ?’’
‘‘कितनी बार कहा मैडम, लेकिन उसे याद रहे तो। ’’
कमरे में हँसी की फुहार एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी। लतिका के कमरे में जाने से अनुशासन की जो घुटन घिर आई थी वह अचानक बह गयी। करीमुद्दीन हॉस्टल का नौकर था। उसके आलस और काम में टालमटोल करने के क़िस्से हॉस्टल की लड़कियों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी चले आते थे।
लतिका को हठात् कुछ स्मरण हो आया। अँधेरे में लैम्प घुमाते हुए चारों ओर निगाहें दौड़ायीं। कमरे में चारों ओर घेरा बनाकर वे बैठी थीं-आस-पास एक दूसरे से सटकर। सबके चेहरे अपरिचित थे, किन्तु लैम्प के पीले मद्धिम प्रकाश में मानों कुछ बदल गया था या जैसे वह उन्हें पहली बार देख रही थी ।

‘‘जूली अब तक तुम इस ब्लॉक में क्या कर रही हो ?
जूली खिड़की के पास पलँग के सिरहाने बैठी थी। उसने चुपचाप आँखें नीची कर लीं। लैम्प का प्रकाश चारों ओर से सिमटकर अब केवल उसके चेहरे पर गिर रहा था।
‘‘नाइट रजिस्टर पर दस्तख़त कर दिये ?’
‘‘हाँ, मैडम।’’
‘‘फिर... ?’’ लतिका का स्वर कड़ा हो गया। जूली सकुचाकर खिड़की के बाहर देखने लगी।
जब से लतिका इस स्कूल में आयी है, उसने अनुभव किया है कि हॉस्टल के इस नियम का पालन डाँट-फटकार के बावजूद नहीं होता।
‘‘मैडम, कल से छुट्टियाँ शुरू हो जाएँगी, इसलिए आज रात हम सबने मिलकर...’’ और सुधा पूरी बात न कहकर हेमन्ती की ओर देखते हुए मुस्कराने लगी।
‘‘हेमन्ती के गाने का प्रोग्राम है, आप भी कुछ देर बैठिए न।’’

लतिका को उलझन मालूम हुई। इस समय यहाँ आकर उसने इनके मज़े को किरकिरा कर दिया। इस छोटे से हिल-स्टेशन पर रहते उसे ख़ासा अर्सा हो गया, लेकिन कब समय पतझड़ और गर्मियों का घेरा पार कर सर्दी की छुट्टियों की गोद में सिमट जाता है, उसे कभी याद नहीं रहता। चोरों की तरह चुपचाप वह देहरी से बाहर हो गयी। उसके चेहरे का तनाव ढीला पड़ गया। वह मुस्कराने लगी।
‘‘मेरे संग स्नो-फॉल देखने कोई नहीं ठहरेगा ?’’
‘‘मैडम, छुट्टियों में क्या आप घर नहीं जा रही हैं ?’’ सब लड़कियों की आँखें उस पर जम गयीं।
‘‘अभी कुछ पक्का नहीं है-आई लव द स्नो-फॉल !’’
लतिका को लगा कि यही बात उसने पिछले साल भी कही थी और शायद पिछले से पिछले साल भी। उसे लगा मानो लड़कियाँ उसे सन्देह की दृष्टि से देख रही हैं, मानो उन्होंने उसकी बात पर विश्वास नहीं किया। उसका सिर चकराने लगा, मानो बादलों का स्याह झुरमुट किसी अनजाने कोने से उठकर उसे अपने में डुबो लेगा। वह थोड़ा-हँसी, फिर धीरे-से उसने सर को झटक दिया। ‘‘जूली, तुमसे कुछ काम है, अपने ब्लॉक में जाने से पहले मुझसे मिल लेना-वेल गुड नाइट !’’ लतिका ने अपने पीछे दरवाज़ा बन्द कर दिया।
‘‘गुड नाइट मैडम, गुड नाइट, गुड नाइट...’’

गलियारे की सीढ़ियाँ न उतरकर लतिका रेलिंग के सहारे खड़ी हो गयी। लैम्प की बत्ती को नीचे घुमाकर कोने में रख दिया। बाहर धुन्ध की नीली तहें बहुत घनी हो चली थीं। लॉन पर लगे हुए चीड़ के पत्तों की सरसराहट हवा के झोंकों के संग कभी तेज़, कभी धीमी होकर भीतर बह आती थी। हवा में सर्दी का हलका-सा आभास पाकर लतिका के दिमाग में कल से शुरू होनेवाली छुट्टियों का ध्यान भटक आया। उसने आँखें मूंद लीं। उसे लगा कि जैसे उसकी टाँगें बाँस की लकड़ियों की तरह उसके शरीर में बँधी हैं, जिसकी गाँठें धीरे-धीरे खुलती जा रही हैं। सिर की चकराहाट अभी मिटी नहीं थी, मगर अब जैसे वह भीतर न होकर बाहर फैली हुई धुन्ध का हिस्सा बन गई थी।

सीढ़ियों पर बातचीत का स्वर सुनकर लतिका जैसे सोते से जागी। शॉल को कन्धों पर समेटा और लैम्प उठा लिया। डॉ. मुकर्जी मि. ह्यूबर्ट के संग एक अँग्रेज़ी धुन गुनगुनाते हुए ऊपर आ रहे थे। सीढ़ियों पर अँधेरा था और ह्यूबर्ट को बार-बार अपनी छड़ी से रास्ता टटोलना पड़ता था। लतिका ने दो चार सीढ़ियाँ उतरकर लैम्प को नीचे झुका दिया। ‘‘गुड ईवनिंग, डॉक्टर, गुड ईवनिंग मि. ह्यूबर्ट !’’ ‘‘थैंक यू मिस लतिका’’-ह्यूबर्ट के स्वर में कृतज्ञता का भाव था। सीढ़ियाँ चढ़ने से उनकी साँस तेज़ हो रही थी और वह दीवार से लगे हुए हाँफ रहे थे। लैम्प की रोशनी में उनके चेहरे का पीलापन कुछ ताँबे के रंग जैसा हो गया था।
‘‘यहाँ अकेली क्या कर रही हो मिस लतिका ?’’-डॉक्टर ने होठों के भीतर से सीटी बजायी।
‘‘चेकिंग करके लौट रही थी। आज इस वक़्त ऊपर कैसे आना हुआ मिस्टर ह्यूबर्ट ?’’
ह्यूबर्ट ?’’

ह्यूबर्ट ने मुस्कराकर अपनी छड़ी डॉक्टर के कन्धों से छुला दी-‘‘इनसे पूछो, यही मुझे ज़बर्दस्ती घसीट लाये हैं।’’
‘‘मिस लतिका हम आपको निमन्त्रण देने आ रहे थे। आज रात मेरे कमरे में एक छोटा-सा कन्सर्ट होगा जिसमें मि. ह्यूबर्ट शोपाँ और चाइकोव्स्की के कम्पोज़ीशन बजाएँगे और फिर क्रीम कॉफ़ी पी जाएगी। और उसके बाद अगर समय रहा, तो पिछले साल हमने जो गुनाह किए हैं उन्हें हम सब मिलकर कन्फेस करेंगे।’’ डाक्टर मुखर्जी के चेहरे पर भरी मुस्कान खेल गयी।
‘‘डॉक्टर मुझे माफ करें, मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं है।’’
‘‘चलिए, यह तो ठीक रहा फिर तो आप वैसे भी मेरे पास आतीं।’’ डाक्टर ने धीरे से लतिका के कधों को पकड़कर अपने कमरे की तरफ़ मोड़ दिया।

डॉक्टर मुकर्जी का कमरा ब्लॉक के दूसरे सिरे पर छत से जुड़ा हुआ था। वह आधे बर्मी थे, जिसके चिन्ह उनकी थोड़ी दबी हुई नाक और छोटी-छोटी चंचल आँखों से स्पष्ट थे, बर्मा पर जापानियों का आक्रमण होने के बाद वह इस छोटे पहाड़ी शहर में आ बसे थे। प्राइवेट प्रैक्टिस के अलावा वह कॉन्वेण्ट में हाईजीन-फिज़ियालोजी भी पढ़ाया करते थे और इसलिए उनको स्कूल के हास्टल में ही एक कमरा रहने के लिए दे दिया गया था। कुछ लोगों का कहना था कि बर्मा से आते हुए रास्ते में उनकी पत्नी की मृत्यु हो गयी, लेकिन इस सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि डॉक्टर स्वयं कभी अपनी पत्नी की चर्चा नहीं करते।
बातों के दौरान डॉक्टर अकसर कहा करते हैं- ‘‘मरने से पहले मैं एक दफा बर्मा ज़रूर जाऊँगा’’-और तब एक क्षण के लिए उनकी आँखों में एक नमी सी छा जाती। लतिका चाहने पर भी उनसे कुछ पूछ नहीं पाती। उसे लगता कि डॉक्टर नहीं चाहते कि कोई अतीत के सम्बन्ध में उनसे कुछ भी पूछे या सहानुभूति दिखालाये। दूसरे ही क्षण अपनी गम्भीरता को दूर ठेलते हुए वह हँस पड़ते-एक सूखी, बुझी हुई हँसी।

होम-सिक्नेस ही एक ऐसी बीमारी है जिसका इलाज किसी डॉक्टर के पास नहीं है।
छत पर मेज कुर्सियाँ डाल दी गयीं और भीतर कमरे में परकोलेटर में कॉफी़ का  पानी चढ़ा दिया गया।
‘‘सुना है अगले दो-तीन वर्षों में यहाँ पर बिजली का इन्तज़ाम हो जाएगा’’- डॉक्टर ने स्प्रिट लैम्प जलाते हुए कहा।
‘‘यह बात तो पिछली दस सालों से सुनने में आ रही है। अँग्रेज़ों ने भी कोई लम्बी चौड़ी स्कीम बनाई थी, पता नहीं उसका क्या हुआ’’-ह्यूबर्ट ने कहा। वह आराम कुर्सी पर लेटा हुआ बाहर लौन की तरफ देख रहा था।
लतिका कमरे से दो मोमबत्तियाँ ले आयी। मेज़ के दोनों सिरों पर टिकाकर उन्हें जला दिया गया छत का अन्धेरा मोमबत्ती की फ़ीकी रोशनी के इर्द-गिर्द सिमटने लगा। एक घनी नीरवता चारों ओर घिरने लगी। हवा में चीड़ के वृक्षों की साँय-साँय दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों और घाटियों में सीटियों की गूँज सी छोड़ती जा रही थी।
‘‘इस बार शायद बर्फ़ जल्दी गिरेगी, अभी से हवा में एक सर्द खु़श्की-सी महसूस होने लगी है’’-डॉक्टर का सिगार अँधेरे में लाल बिन्दी-सा चमक रहा था।

‘‘पता नहीं मिस वुड को स्पेशल सर्विस का गोरखधन्धा क्यों पसन्द आता है। छुट्टियों में घर जाने से पहले क्या यह ज़रूरी है कि लड़कियाँ फादर एल्मण्ड का  सर्मन  सुनें ?’’-ह्यूबर्ट ने कहा।
‘‘पिछले पाँच साल से मैं सुनता आ रहा हूँ-फादर एल्मण्ड के सर्मन में कहीं हेर फेर नहीं होता।’’
डाक्टर को फादर एल्मण्ड एक आँख नहीं सुहाते थे। लतिका कुर्सी पर आगे झुककर प्यालों में कॉफ़ी ऊँड़ेलने लगी। हर साल स्कूल बन्द होने के दिन यही दो प्रोग्राम होते हैं-चैपल में स्पेशल सर्विस और उसके बाद दिन में पिकनिक। लतिका को पहला साल याद आया जब डॉक्टर के संग पिकनिक के बाद वह क्लब गयी थी। डॉक्टर बार में बैठे थे। बाल रूम कुमाऊँ रेज़ीमेण्ट के अफ़सरों से भरा हुआ था। कुछ देर तक बिलियर्ड का खेल देखने के बाद जब वह वापस बार की ओर आ रहे थे, तब उसने दायीं ओर क्लब की लाईब्रेरी में देखा-मगर उसी समय डॉक्टर मुखर्जी पीछे से आ गये थे।
‘‘मिस लतिका, यह मेजर गिरीश नेगी हैं।’’ बिलियर्ड रूम में आते हुए हँसी-ठहाकों के बीच वह नाम दब- सा गया था। वह किसी किताब के बीच में उँगली रखकर  लाइब्रेरी की खिड़की से बाहर देख रहा था।
‘‘हलो डॉक्टर’’-वह पीछे मुड़ा। तब उस क्षण...

उस क्षण न जाने क्यों लतिका का हाथ काँप गया और कॉफ़ी की कुछ गर्म बूँदे उसकी साड़ी पर छलक आयीं। अँधेरे में किसी ने नहीं देखा कि लतिका के चेहरे पर एक उन्नींदा रीतापन घिर आया है।
हवा के झोंके से मोमबत्तियों की लौ फड़कने लगी। छत से भी ऊँची काठगोदाम जानेवाली सड़क पर यू.पी रोडवेज़ की आख़िरी बस डाक लेकर जा रही थी। बस की हैड लाइट्स में आस-पास फैली हुई झाड़ियों की छायाएँ घर की दीवार पर सरकती हुई गायब होने लगीं
‘‘मिस लतिका आप इस साल भी छुट्टियों में यहीं   रहेंगी ?’’-डॉक्टर ने पूछा।
डॉक्टर का सवाल हवा में टँगा रहा। उसी क्षण पियानों पर शोपाँ का नौक्टर्न ह्यूबर्ट की उँगलियों के नीचे से फिसलता हुआ धीरे-धीरे छत के अँधेरे में घुलने लगा-मानो जल पर कोमल स्वप्निल उर्मियाँ भँवरों का झिलमिलाता जाल बुनती हुई दूर-दूर किनारों तक फैलती जा रही हों। लतिका को लगा कि जैसे कहीं बहुत दूर बर्फ़ की चोटियों से परिन्दों के झुण्ड नीचे अनजान देशों की ओर उड़े जा रहे हैं। इन दिनों अकसर उसने अपने कमरे की खिड़की से उन्हें देखा है-धागे में बँधे चमकीले लट्टुओं की तरह वे एक लम्बी, टेढ़ी-मेढ़ी क़तार में उड़े जाते हैं, पहाड़ों की सुनसान नीरवता से परे, उन विचित्र शहरों की ओर जहाँ शायद वह कभी नहीं जाएगी।

लतिका आर्म चेयर पर ऊँघने लगी। डॉक्टर मुखर्जी का सिगार अँधेरे में चुपचाप जल रहा था। डॉक्टर को आश्चर्य हुआ कि लतिका न जाने क्या सोच रही है और लतिका सोच रही थी-क्या वह बूढ़ी होती जा रही है ? उसके सामने स्कूल की प्रिंसिपल का चेहरा घूम गया-पोपला मुँह, आँखों के नीचे झूलती हुई मांस की थैलियाँ, ज़रा-ज़रा-सी बात पर चिढ़ जाना, कर्कश आवाज़ में चीख़ना-सब उसे ‘ओल्डमेड’ कहकर पुकारते हैं। कुछ वर्षों बाद वह भी हूबहू वैसी ही बन जाएगी...लतिका के समूचे शरीर में झुरझुरी-सी दौड़ गयी, मानो अनजाने में किसी गलीज वस्तु को छू लिया हो। उसे याद आया कुछ महीने पहले अचानक उसे ह्यूबर्ट का प्रेम पत्र  मिला था-भावक याचना से भरा हुआ पत्र, जिसमें उसने न जाने कुछ लिखा था, जो कभी उसकी समझ में नहीं आया। उसे ह्यूबर्ट की इस बचकाना हरकत पर हँसी आयी थी किन्तु भीतर ही भीतर प्रसन्नता भी हुई थी-उसकी उम्र अभी बीती नहीं है, अब भी वह दूसरों को अपनी ओर आकर्षित कर सकती है। ह्यूबर्ट का पत्र पढ़कर उसे क्रोध नहीं आया, आयी थी केवल ममता। वह चाहती तो उसकी ग़लतफ़हमी को दूर करने में देर न लगती, किन्तु कोई शक्ति उसे रोके रहती है, उसके कारण अपने पर विश्वास रहता है, अपने सुख का भ्रम मानो ह्यूबर्ट की ग़लतफ़हमी से जुड़ा है...।

ह्यूबर्ट ही क्यों, वह क्या किसी को भी चाह सकेगी, उस अनुभूति के संग, जो अब नहीं रही, जो छाया-सी उस पर मँडराती रहती है, न स्वयं मिटती है, न उसे मुक्ति दे पाती है। उसे लगा है, उसकी टाँगें फिर निर्जीव, शिथिल-सी हो गयी हैं।
वह झटके से उठ खड़ी हुई-‘‘डॉक्टर माफ़ करना मुझे बहुत थकान-सी लग रही है...’’ बिना वाक्य  पूरा किये वह चली गयी।
कुछ देर तक टैरेस पर निस्तब्धता छायी रही। मोमबत्तियाँ बुझने लगी थीं। डॉक्टर मुखर्जी ने सिगार का नया कश लिया- ‘‘सब लड़कियाँ एक जैसी होती हैं- बेवकूफ और सेन्टीमेण्टल।’’
ह्यूबर्ट की उँगलियों का दबाव पियानो पर ढीला पड़ता गया-अन्तिम सुरों की झिझकी-सी गूँज कुछ क्षणों तक हवा में तिरती रही।
‘‘डॉक्टर आपको मालूम है... मिस लतिका का व्यवहार पिछले कुछ अर्से से अजीब-सा लगता है।’’-ह्यूबर्ट के स्वर में लापरवाही का भाव था। वह नहीं चाहता था कि डॉक्टर को लतिका के प्रति उसकी भावनाओं का आभास-मात्र भी मिल सके। जिस कोमल अनुभूति को वह इतने समय से सँजोया आया है, डॉक्टर उसे हँसी के एक ही ठहाके में उपहासास्पद बना देगा।

‘‘क्या तुम नियति में विश्वास करते हो, ह्यूबर्ट ?’’ डॉक्टर ने कहा। ह्यूबर्ट दम रोके प्रतीक्षा करता रहा। वह जानता था कि कोई भी बात कहने से पहले डॉक्टर को फ़िलासोफ़ाइज़ करने की आदत थी। डॉक्टर टैरेस के जँगले से सटकर खड़ा हो गया। फी़की-सी चाँदनी में चीड़ के पेड़ों की छायाएँ लॉन पर गिर रही थीं। कभी-कभी कोई जुगनू अँधेरे में हरा प्रकाश छिड़- कता हवा में ग़ायब हो जाता था।
‘‘मैं कभी-कभी सोचता हूँ, इन्सान जिन्दा किसलिए रहता है-क्या उसे कोई और बेहतर काम करने को नहीं मिला ? हजा़रों मील अपने मुल्क से दूर मैं यहाँ पड़ा हूँ-यहाँ कौन मुझे जानता है... यहीं शायद मर भी जाऊँगा। ह्यूबर्ट, क्या तुमने कभी महसूस किया है कि एक अजनबी की हैसियत से परायी ज़मीन पर मर जाना काफ़ी खौफ़नाक बात है...!’’
ह्यूबर्ट विस्मित-सा डॉक्टर की ओर देखने लगा। उसने पहली बार डॉक्टर मुखर्जी के इस पहलू को देखा था। अपने सम्बन्ध में वह अकसर चुप रहते थे।

‘‘कोई पीछे नहीं है, यह बात मुझमें एक अजीब किस्म की बेफ़िक्री पैदा कर देती है। लेकिन कुछ लोगों की मौत अन्त तक पहेली बनी रहती है...शायद वे ज़िन्दगी से बहुत उम्मीद लगाते थे। उसे ट्रैजिक भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आखिरी दम तक उन्हें मरने का अहसास नहीं होता...।’’
‘‘डॉक्टर आप किसका जिक्र कर रहे हैं ?’’ ह्यूबर्ट ने परेशान होकर पूछा। डॉक्टर कुछ देर तक चुपचाप सिगार पीता रहा। फिर मुड़कर वह मोमबत्तियों की बुझती हुई लौ को देखने लगा।
‘‘तुम्हें मालूम है, किसी समय लतिका बिना नागा क्लब जाया करती थी। गिरीश नेगी से उसका परिचय वहीं हुआ था। कश्मीर जाने से एक रात पहले उसने मुझे सब कुछ बता दिया था। मैं अब तक लतिका से उस मुलाका़त के बारे में कुछ नहीं कह सका हूँ। किन्तु उस रात कौन जानता था कि वह वापस नहीं लौटेगा। और अब...अब क्या फ़र्क़ पड़ता है। लेट द डेड डाई...।’’

डॉक्टर की सूखी सर्द हँसी में खोखली-सी शून्यता भरी थी।
‘‘कौन गिरीश नेगी ?’’
‘‘कुमाऊँ रेज़ीमेण्ट में मेजर था।’’
‘‘डॉक्टर, क्या लतिका...’’ ह्यूबर्ट से आगे कुछ नहीं कहा गया। उसे याद आया वह पत्र, जो उसने लतिका को भेजा था...कितना अर्थहीन और उपहासास्पद, जैसे उसका एक-एक शब्द उसके दिल को कचोट रहा हो। उसने धीरे से पियानो पर सिर टिका लिया। लतिका ने उसे क्यों नहीं बताया, क्या वह इसके योग्य भी नहीं था ?
‘‘लतिका वह तो बच्ची है, पागल ! मरने वाले के संग खु़द थोड़े ही मरा जाता है।’’
कुछ देर चुप रहकर डॉक्टर ने अपने प्रश्न को फिर दुहराया।
‘‘लेकिन ह्यूबर्ट, क्या तुम नियति पर विश्वास करते हो ?’’
हवा के हलके झोंके से मोमबत्तियाँ एक बार प्रज्वलित होकर बुझ गयीं। टैरेस पर ह्यूबर्ट और डॉक्टर अँधेरे में एक दूसरे का चेहरा नहीं देख पा रहे थे, फिर भी वे एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। कॉन्वेण्ट स्कूल से कुछ दूर मैदानों में बहते पहाड़ी नाले का स्वर आ रहा था। जब बहुत देर बाद कुमाऊँ रेज़ीमेण्ट सेण्टर का बिगुल सुनाई दिया, तो ह्यूबर्ट हड़बड़ाकर खड़ा हो गया।
‘‘अच्छा चलता हूँ, डॉक्टर गुड नाइट।’’

‘‘गुड नाइट ह्यूबर्ट...मुझे माफ करना, मैं सिगार ख़त्म करके उठूँगा...’’
सुबह बदली छायी थी। लतिका के खिड़की खोलते ही धुन्ध का गुब्बारा-सा भीतर घुस आया, जैसे रात भर दीवार के सहारे सर्दी में ठिठुरता हुआ वह भीतर आने की प्रतीक्षा कर रहा हो। स्कूल के ऊपर चैपल जाने वाली सड़क बादलों में छिप गई थी, केवल चैपल का ‘क्रास’ धुन्ध के परदे पर एक दूसरे को काटती हुई पेंसिल की रेखाओं-सा दिखाई दे जाता था।
लतिका ने खिड़की से आँखें हटायीं, तो देखा कि करीमुद्दीन मिलिट्री में अर्दली रह चुका था, इसलिए ट्रे मेज पर रखकर ‘अटेन्शन की मुद्रा में खड़ा हो गया।
लतिका झटके से उठ बैठी। सुबह से आलस करके जागकर वह सो चुकी है। अपनी खिसियाहट मिटाने के लिए लतिका ने कहा-‘‘बड़ी सर्दी है आज, बिस्तर छोड़ने को जी नहीं चाहता।’’
‘‘अजी मेम साहब, अभी क्या सर्दी आयी है-बड़े दिनों में देखना कैसे दाँत कटकटाते हैं’’-और करीमुद्दीन अपने हाथों को बगलों में डाले हुए इस तरह सिकुड़ गया जैसे उन दिनों की कल्पना मात्र से इसे जाड़ा लगना शुरू हो गया हो। गंजे सिर पर दोनों तरफ के उसके बाल ख़िजाब लगाने से कत्थई रंग के भूरे हो गये थे। बात चाहे किसी विषय पर हो रही हो, वह हमेशा खींचतान कर उसे ऐसे क्षेत्र में घसीट लाता था, जहाँ वह बेझिझक अपने विचारों  को प्रकट कर सके।               


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