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नारी विमर्श >> प्रारब्ध

प्रारब्ध

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :353
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1327
आईएसबीएन :81-263-0949-0

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प्रस्तुत है बांग्ला उपन्यास का हिन्दी रूपान्तर...

Prarabdh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नारी-केन्द्रित उपन्यासों में उठायी गयी समस्या का प्रश्न-बिन्दु अक्सर यही है कि हमारा समाज पुरुष-द्वारा निर्मित और पुरुष-शासित है। सृजन में अपनी श्रेष्ठ सहभागिता के बावजूद समाज में नारी-पुरुष का समान मूल्यांकन नहीं होता।

एक

जैसा होता है, जैसा होता आया है, जैसा नियम है और कानून के मुताबिक जैसी व्यवस्था होनी चाहिए, माननीय अदालत बहादुर ने वैसा ही किया। सम्पत्ति का बँटवारा करने की तरह, छह साल का लड़का बाप के हिस्से में और तीन-चार साल की लड़की माँ के हिस्से में आई।
इस सम्पत्ति के दो मालिक। काफी दिनों से एक साथ रहने और सम्मिलित रूप से उनकी देख-भाल करते सहसा एक दिन अविष्कार कर बैठे कि ‘‘न, अब इस तरह रहना सम्भव नहीं। जिन्दगी हर क्षण, हर पल उन्हें काट रही है, टुकड़े-टुकड़े कर रही है। चाकू से, आरी से।’’
तब ? जब अन्दर ही से द्विखण्डित है तब फिर बाहरी शर्म का प्लास्तर चढ़ाकर ‘मिल कर जीने’ का दिखावा क्यों ? अलग ही हो जाएँ। अतएव अलग हो गए।
हालाँकि इतनी आसानी से यह सब नहीं हुआ। बहुतेरे पापड़ बेलने पड़े। हाँ, अब कानून पहले से कहीं ज्यादा सरल हो गया है। ‘समाज’ ने भी ‘सहनीय’ समझ कर जब स्वीकार लिया तब फिर इतनी चक्षुलज्जा कैसी ?
परन्तु समाज में क्या नवीनपन्थी और पुरातनपन्थी नहीं हैं ? दो तरह की विचारधाराएँ। अतएव दो तरह की बातें भी हैं। इससे भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला।
अरे जब भाई-भाई एक ही घर में पैदा होकर वर्षों एक ही हाँड़ी का खाना खाकर बड़े होने के बाद, सहसा आविष्कार करते हैं। ‘‘ना, ऐसे रहना असम्भव है।’’ तब क्या होता है ?
हाँड़ी अलग, घर का बँटवारा।

परन्तु मकान के बँटवारे के वक्त, दीवार खड़ी करते समय दोनों को तो मकान का पूर्वी हिस्सा नहीं दिया जा सकता है ? किसी को ‘पूरब’ और किसी को ‘दक्षिण’ ही मिलेगा। यहाँ भी कानून का ही फैसला सर्वोपरि होता है।
यही इस मामले में हुआ है।
बाप के हिस्से में लड़का, माँ के हिस्से में लड़की। लड़का अगर बिल्कुल ही शिशु होता है। थोडे दिनों तक माँ की गोदी का सुख उठा सकता है लेकिन हमेशा तो नहीं न ? बड़ा होते ही वह बाप की सम्पत्ति बन जाता है।
लेकिन इनका यह लड़का तो शिशु नहीं। छह साल का है, स्कूल जाता है। इसी उम्र में वह स्कूल का ‘ब्रिलिएण्ट बॉय’ के नाम से विख्यात है। माँ उस पर कैसे दावा कर सकती है ?
इसी बीच लड़के को ‘माँ से अलग’ रहना पड़ा था। माँ लड़की को लेकर मायके चली गई थी और उसे बुआ के पास भेज दिया गया था।
इस समय घर में नाना प्रकार की झंझटें थीं और उसकी परीक्षा सिर पर। इसीलिए उसे झंझटों से दूर एक निश्चिन्त आश्रय में रखना आवश्यक था। वही आवश्यक कार्य किया गय़ा था। लेकिन क्या ‘अशान्ति’ केवल बाहर ही थी ? शिशु के मन में क्या अशान्ति का तूफान नहीं उठ रहा था। हजारों प्रश्न क्या उसके छोटे से मस्तिष्क में नहीं उछल रहे थे ? प्रतिवाद करने की इच्छा नहीं हो रही थी ?
क्यों नहीं। लेकिन यह सब सोचने से तो काम नहीं चलता है। पहले अपने मन में उठ रहे प्रतिवाद को रोकना जरूरी था।
जो असहाय निरुपाय हैं उनकी बात कौन सोचता है ?
* * *

सौगत ने सोचा था इस घिनौनी लड़ाई का अध्याय समाप्त कर मुक्त जीवन की मुक्ति को मुट्ठी में पाते ही बापी को दीदी के घर से लेता आएगा। पर ऐसा न कर सका।
दीदी बोलीं—‘‘अरे सौ, कल पल्टू का जन्म दिन है, आज मैं उसे नहीं जाने दूँगी। कल तू भी यहीं खाना खाना, फिर साथ ही चले जाना।’
उसके बाद ही कुछ खेद, कुछ व्यंग मिले तीखे स्वरों में बोली थी-‘‘अब तो ऑल क्वाएट ऑन फ्रन्ट ?’’
हालाँकि दीदी भाई की पत्नी को अकेली ही जिम्मेवार नहीं मानती हैं। वह भाई को भी दोषी ठहराती हैं। कहा था—‘‘वह तो तुझसे सात साल छोटी है, उसे मैनेज करने की क्षमता है तुझमें ? बेवकूफ, बुद्धू ! तेरी यह शादी ‘प्रेम विवाह’ थी न ? हमारी तरह सीधे मण्डप के नीचे चार आँखें एक नहीं हुई थीं—पूरे दो साल एक साथ घूमे थे न ?’’
सौगत ने दार्शनिकों-सी हँसी हँसकर कहा था—‘‘उसके बाद सात-आठ साल प्रेमपूर्वक घर-गृहस्थी भी चली। परन्तु कोई व्यवस्था चिरस्थायी तो होती नहीं है।’’
‘‘वाह ! खूब ! तुम लोगों की दुर्बुद्धि के फलस्वरूप मेरा ससुराल में मुँह दिखाना दूभर हो गया है। अभी उस दिन भांजी की शादी थी, बीमारी का बहाना बनाकर गई नहीं।’’
‘‘क्या मुसीबत है। यह तो वह हुआ कि पाप कोई करे, दण्ड कोई भोगे। लेकिन दीदी, क्या आज के समाज में यह सब चालू नहीं हो गया है ?’’
‘‘हो गया होगा लेकिन क्या मन मानता है ?’’ खैर, वह तो शुरू-शुरू में होता था। आज तीखा व्यंग करते हुए दीदी ने भाई को खाने पर निमन्त्रित किया। सौगत ने देख़ा की बापी घर के और बच्चों के साथ मिलकर कागज की चेन बना रहा है। इस घर में काफी छोटे बच्चे हैं। चचेरे-फुफेरे जैसे।

सौगत ने पूछा, ‘‘क्यों ? आज मेरे साथ चलकर कल सुबह चले आना ? छुट्टियाँ तो चल ही रही हैं।’’
बापी ने गम्भीरता से उत्तर दिया, ‘‘नहीं। इन्हें आज ही बना कर पूरा करना है। कल घर सजाया जाएगा।’’
‘‘अरे इतने लोग तो हैं। यही लोग कर लेंगे।’’
बापी बोला-‘‘नहीं। मैं भी करूँगा।
एकाएक सौगत को लगा, बापी बड़ी दूर से बोल रहा है। सौगत की पहुँच से दूर, बड़ी दूर।
उसके हृदय में धुकपुकी-सी मच गई।
धीरे-धीरे चला आया।
सौगत लौट आया अपने चमचमाते सजे-सजाये फ्लैट में। चाभी जेब में ही रहती है। आने की सूचना शोर मचा कर देनी नहीं पड़ती है। फिर दे भी तो किसे दे ? उस खाना पकाने वाले नौकर को ? जल्दी क्या है ? जान ही जाएगा। खुद ही आकर पूछेगा कि बाबू जी को क्या चाहिए।
कुछ दिनों से यही तो हो रहा है।
शुरू में यही लड़का ज्यादा बकबक करने के लिए डाँट खाता था। आजकल लगभग वह भी गूँगा हो रहा है।
आज सौगत को कुछ नहीं चाहिए। न चाय न नाश्ता। दीदी ने जबरदस्ती खिला दिया था।
इस समय सौगत अपने विशाल कक्ष के बीचोंबीच बिछे डबल बेड की ओर वितृष्णा-भरी नजरों से देख कर अथवा न देख कर लेटा हुआ है खाट के सामने रखे लम्बे सोफे पर।
अब अगर सौगत अपने हिस्से में आये ‘बड़े तालुक्के’ को पाकर भी उस छोटे से फूल के बगीचे के लिए हाहाकार करे तो क्या यह अन्याय नहीं ?
गोल-मटोल और उम्र के लिहाज से कहीं बड़ा दीखने वाला बापी ही तो उसका ‘बड़ा तालुक्का’ है। तुलतुल तो एक मुट्ठी फूल की तरह है। हल्के, रेशम जैसे फूले-फूले बालों के बीच से झाँकता उसका चेहरा एक खिलते हुए फूल-सा लगता है।
वही चेहरे के लाल-लाल होंठों को फुलाए जब-तब दौड़ती हुई आती थी, ‘‘बाबूजी। देखो-देखो, माँ मेरी तरफ गोल-गोल आँखों से देख रही है।’’ ‘‘बाबूजी, माँ ने मेरी चॉकलेट छीन कर फेंक दी।’’ बाबूजी, तुम माँ को खूब अच्छी तरह डाँट क्यों नहीं लगाते।’’
हर वक्त माँ के विरुद्ध ही शिकायत करती रहती थी बाबूजी से।
हाँ, बाबूजी !

लड़के का नाम ‘बापी’ रख डालने के कारण पिता के लिए प्रयोग किया जाने वाला प्यारभरा सम्बोधन हाथ से निकल गया था-तभी ‘बाबूजी’ बन गया था। यह कंका की ईजाद थी।
कंका की ममेरी बहन की बेटी अपने बाप को ‘साहब’ और माँ को ‘मेमसाहब’ पुकारती है। बंगाल के बाहर रहने और बड़ी नौकरी करने पर ‘माँ’ और ‘पिताजी’ शब्द अव्यावहारिक हो जाते हैं। माँ-मौसी कह कर भी सम्बोधित नहीं कर सकते। चालीस साल बाद भी ‘साहब’, ‘मेमसाहब’ जीवित हैं। फिर एक फूहड़-सी दलील—‘‘अरे लोगबाग भी तो इसी नाम से बुलाते हैं।’’
जैसे कोई जबरदस्ती है कि बच्चे भी उसी तरह बुलाएँ।
खैर, कंका के पति को ‘साहब’ शब्द पसन्द नहीं, अतएव कंका ने दूसरा सम्बोधन ढूँढ़ निकाला।
लड़की का हरदम बाँप से जा-जा कर माँ के नाम से शिकायत करना देख अक्सर कंका क्रोध से उबल पड़ती। ऐसी फूल-सी लड़की पर और कड़ाई करती ! कहती, ‘‘जा-जा, कह दे जाकर। क्या कर लेंगे तेरे बाबू जी मेरा ? पुलिस से पकड़वा देंगे ?’’
बापी चालाक है। या फिर वह है शहनशील। अभियोगरहित। इसीलिए बापी ने अपने बाबूजी पर अभियोगपूर्ण दृष्टि नहीं डाली। उसकी आँखों में उदासीनता थी।
यह एक नयी बात थी।
अभियोग-शून्य वह हो सकता है किन्तु आग्रह-शून्य तो नहीं। न ही उसमें आन्तरिकता की कमी है। सौगत की कार की आवाज सुनते ही बापी दौड़ कर बाहर चला जाता है।
कंका बिगड़ती, ‘‘ पढ़ते-पढ़ते उठकर भागना ? मानो कोई नया अजूबा घर आ गया ! सबसे पहले जैसे तुम्हें ही देखना है। मैं सब समझती हूँ पढ़ने से बचने का बहाना है।’’

सौगत सुनकर हँसता, ‘‘बहानेबाजी करने के बाद भी तो क्लास का ‘फर्स्ट बॉय कहलाने का दावा करता है।’’
कंका मुँह बिगाड़ कर कहती—‘‘इसी में भूले रहो। ऐसे ही बच्चे जरा-सा बड़े हुए नहीं कि डॅल हो जाते हैं।’’
कंका क्या मन-ही-मन सौगत से ईर्ष्या करती थी ? शक करती थी ? दोनों बच्चे बाप ही के अनन्य भक्त थे। कंका का सारा प्रयास विफल हो रहा था।
कंका की इच्छा थी कि दोनों बच्चे उसकी आँखों के इशारे से उठेंगे-बैठेंगे। माँ को ही अपना मालिक समझेंगे। कंका केवल अपनी परिकल्पना के ढाँचे में ढाल कर इन्हें ‘इन्सान’ बनाएगी।
लेकिन आश्चर्य ! सौगत ने किसी तरह की इच्छा मन में न रखने के बावजूद, बिना किसी प्रयास के दोनों बच्चों पर अपना प्रभाव डाल रखा है।
क्या यह कंका की पराजय नहीं ?
जो कंका को इस पराजय की ओर धकेल रहे थे उन पर कंका कड़ाई न करे तो क्या करे ?
परन्तु संघर्ष का यही एक कारण नहीं था। भीतर-ही-भीतर इकट्ठा हो रहा था असहिष्णुता का बारूद। इन्तजारी थी तो एक जलती हुई माचिस की तीली की।
और असहिष्णुता चीज ही ऐसी है। अगर एक बार लगे कि न ! अब इस तरह रहना मुश्किल है।’ लगे कि ‘जब प्रतिकार का रास्ता है तब पड़े-पड़े मार क्यों खाऊँ ?, तब फिर हो गया। तब रोकना कठिन है। बाँध टूटता ही जाएगा।
* * *

पिता के जाते ही बापी बोल उठा, ‘‘अब और अच्छा नहीं लग रहा है। गर्दन दुखने लगी है।’’
सुनकर कोई बोल उठा, ‘‘आहा रे, गर्दन तो दुखेगी ही, कब से लिये बैठा है। बच्चा ही तो है।’’
सुनते ही बापी ने सारे पतंगी कागज अपनी ओर खींच लिये और लेई की कटोरी पकड़कर बैठ गया।
‘‘अरे ? तू फिर करने लगा ?’’
‘‘हाँ, करूँगा।’’
बुआ के देवर का लड़का, जो कि उम्र में बापी से कुछ बड़ा था, वह भी कागज की जंजीर बना रहा था, बोला, ‘‘वाह, लेई की कटोरी उतनी दूर रखोगे तो मेरा हाथ कैसे पहुँचेगा ?’’
‘‘तुम्हारे हाथ को पहुँचने की जरूरत नहीं—मैं अकेले ही बनाऊँगा।’’
‘‘तो अभी जो तूने कहा था गर्दन दुख रही है ?’’
‘‘कहा था तो क्या हुआ ?’’ कहकर लेई की कटोरी उसने अपनी स्वस्थ जंघा पर रख ली !
‘‘मैं समझ गया। बाबूजी के चले जाने से तुम्हारा मन उदास हो गया है।’’
‘‘ओफ्फो ! जब देखो तब बेकार की बातें।’’ बापी ने एक झटके में रंगीन कागज की एक पट्टी उठाई, ढेर सारी लेई लगाई, उसे जोड़ा और फिर तोड़-मोड़कर फेंकते हुआ बोला, धत् ! सब बिगाड़ दिया।’’
उठकर पाँव पटकता हुआ वहाँ से चला गया। उसके खड़े होते ही लेई की कटोरी गिरकर जमीन पर लुढ़क गई।
* * *

और तुलतुल ?
वह भी तो ननिहाल में रह रही है।
परन्तु चार साल की इस लड़की ने समझ भी लिया था इस बार का आना हर बार के आने जैसा नहीं। पहली बात तो यह कि दादा क्यों नहीं आया ?
कंकावती नामक महिला ने गम्भीरतापूर्वक कहा था, ‘‘बताया था न उस दिन ? दादा के इम्तहान हैं।’’
‘‘तब फिर तुम इस वक्त क्यों चली आईं ? दादा को पढ़ने के लिए डाँटेगा कौन ?’’
‘‘डाँटने की जरूरत नहीं है। वह खुद ही मन लगाकर पढ़ेगा। तुम्हारी तरह थोड़े ही है।’’
परन्तु शिशु को समझाना आसान नहीं।
यद्यपि बड़े हमेशा यही काम करते हैं। वास्तविक अवस्था को छिपाते हुए इधर-उधर की दलील देते हुए समझाने की चेष्टा।
परन्तु बच्चे क्या इस चेष्टा को स्वीकार कर लेते हैं ? इसीलिए शायद घर छोड़कर आते वक्त तुलतुल समझ गई थी कि यह आना पहले जैसा नहीं।
इससे पहले-
तुलतुल लोगों के आते ही सारे घर में खुशी का दौर पड़ जाता था, वह बात कहाँ ? कोई कुछ कह ही नहीं रहा था।
इस दफा माँ दो-तीन सूटकेस क्यों साथ लाई ? क्या ज्यादा दिन रहेगी ? क्यों ? वह तो यहाँ दो दिन नहीं रहना चाहती है। नानी कितना कहतीं, ‘‘और एक दिन रह जा’’ पर माँ हँस देती। कहती, ‘‘रहने से काम नहीं चलता है, माँ।’’
उस वक्त तुलतुल को बड़ा गुस्सा आता था। काम क्यों नहीं चलेगा ? खाना तो सुशीलदा बनाते ही हैं ?

लेकिन आज तुलतुल माँ पर नाराज है, यहाँ ‘रह जाने’ के लिए। माँ घर लौटने का नाम ही नहीं ले रही हैं। बस जब देखो तब कहीं चली जाती है। उसे नानी सँभाल रही है, नहला रही है, खिला-पिला रही है। अगर तुलतुल कहती, ‘‘नहीं, तुमसे नहीं, माँ से नहाऊँगी’’ तब मामी गम्भीर भाव से कहती, ‘‘बुद्धुओं जैसी बातें मत करो तुलतुल, तुम्हारी माँ को लौटने में बहुत देर होगी।’’
‘क्यों ? माँ कहाँ गयी है ?’’
‘‘जरूरी काम से गई है।’’
‘‘कैसा जरूरी काम ?’’
‘‘वह तुम्हारी समझ में नहीं आएगा। तुम अच्छी लड़की की तरह खाना खो लो।’’
मामी से तुलतुल को डर-सा लगता है। हालाँकि उन्होंने तुलतुल को कभी नहीं डाँटा। बल्कि आजकल नानी डाँट देती हैं।
अपने आप में क्या-क्या बड़बड़ाया करती हैं। तुलतुल मतलब तो नहीं समझती है परन्तु इतना जरूर समझ लेती है कि नानी के डाँटने में गुस्सा और दुःख दोनों मिला है। जैसे तुलतुल को नहीं किसी और को डाँट रही हैं।
इन्हीं नानी को तुलतुल कितना हँसमुख और खुशमिजाज देख चुकी है। कभी रसोई में, कभी खाने के कमरे में तो कभी सोने के कमरे में चरखी-सी चक्कर काटती रहती थीं। और जब देखो तब कोई एक नया पकवान तैयार करके खुशामद करतीं, ‘‘जरा-सा खाकर देख न रे ! गरम-गरम खा जरा-सा।’’ खुशामद करतीं माँ की, दादा की।
और अब ?
नानी पहले जैसी नहीं रहीं।
दादा नहीं आया है इसलिए क्या ? लेकिन दादा के इम्तहान होने वाले हैं, यह तो नानी जानती हैं न ! कोई और वजह है।
सोचते-सोचते तुलतुल ने एक कारण ढूँढ़ निकाला है। इस दफा माँ बाबूजी के साथ लड़कर चली आई है इसलिए। बाबूजी इसीलिए आते नहीं हैं। इसलिए भी नानी गुस्सा हैं।
न जाने क्यों माँमोनी और बाबूजी लड़ते हैं। बेचारी तुलतुल और उसका दादा फुसफुसा कर यही कहते, ‘‘अच्छा, ये लोग इतना लड़ते क्यों हैं रे ? ये लोग क्या बच्चे हैं ?’’

पहले भी तो झगड़ते थे और सुलह भी कर लेते थे। सजधज कर हँसते-बोलते थे। घूमने जाते थे, एक साथ।
देखकर तुलतुल और बापी के जान में जान आती।
लेकिन फिर झगड़ा, फिर झगड़ा। दिनों-दिन झगड़ा बढ़ता ही जा रहा था। उसके बाद एक दिन जाने क्या हुआ। तुलतुल को मालूम नहीं कि उस दिन क्या हुआ था जिस दिन माँ दादा को वहीं छोड़कर तुलतुल को साथ लेकर ननिहाल चली आई थीं। जिस समय तुलतुल ‘‘दादा कहाँ है, दादा कहाँ है, कहकर चिल्लाने लगी, माँ बोली थीं, ‘‘दादा के इम्तहान हैं, वह कैसे जा सकता है ? उसके मास्टर साहब आएँगे न ? ज्यादा चिल्लाओगी नहीं—बिलकुल चुप रहोगी।’’
हाँ, आजकल माँमोनी के मुँह से एक ही बात निकलती है, ‘‘एकदम चुप रहो।’’
क्यों ? क्यों ? क्यों तुलतुल हर समय चुप रहे।
तुलतुल की स्कूल बस भी इतनी बुरी है कि इधर आना ही नहीं चाहती है। माँमोनी को ही उसे स्कूल छोड़ने और लाने जाना पड़ता है।
उसके बाद फिर न जाने क्या हुआ।
मामोनी हर वक्त घर से निकल जाती और बड़ी देर से लौटती। लौटने पर किसी से बात नहीं करती। माँमोनी के न जाने कैसे एक चाचा थे, वही हर वक्त आते और उन्हीं के साथ माँमोनी बातें करती।
उस आदमी को तुलतुल जरा भी पसन्द नहीं करती। कैसी लटकी-लटकी बड़ी-बड़ी मूँछें, नाक बुलडॉग की तरह। जब भी आते हैं उन्हें प्यार से चाय नाश्ता दिया जाता है। और नानी उनसे कहतीं, ‘‘उसे तुम सही अक्ल न देकर बिगाड़ रहे हो।’’
तुलतुल बिगाड़ने का अर्थ नहीं समझती। पर इतना अन्दाज था उसे कि बुद्धि का उल्टा दुर्बुद्धि है, इसीलिए बुरी बात ही सिखाता होगा माँमोनी को।
उस आदमी को देखते ही गुस्सा आता। वह उसे प्यार करने की कोशिश करते हैं, गोदी में उठा लेना चाहते हैं, और हहा हहा कर हँसते हैं।
तुलतुल का क्या दिमाग खराब हुआ है जो उसकी गोद चढ़ेगी ? वह भाग जाती है। एक दिन तो ऐसे दौड़ी कि धम् से गिर ही गई।
माँ कहती, ‘‘इस तरह असभ्यों जैसा व्यवहार क्यों करती है ? वह तेरे छोटे नाना लगते हैं।’’
तुलतुल हरगिज उन्हें ‘छोटे नाना’ नहीं कहेगी। इस पर माँ का गुस्सा देखने लायक था। हाँ, तुलतुल जान गयी थी कि नानी भी उस आदमी को न पसन्द करती हैं। हालाँकि आने पर उसे चाय-नाश्ता देती हैं, बात करती हैं, फिर भी उनके हाव-भाव से लगता कि उन्हें यह सब अच्छा नहीं लग रहा है। तुलतुल सब समझती है। चेहरा देखकर वह सब समझ लेती है।
* * *

ओफ, दादा का ऐसा कौन-सा इम्तहान है कि एक बार भी बाबूजी के साथ नहीं आ सकता है ? कुछ नहीं तो बुआ के यहाँ के पुराने महाराज शशधर के साथ चला आए। उसे क्या हमारी जरा भी याद नहीं आती है ?
इधर तुलतुल का हृदय दिन-रात रोता। जी करता गला फाड़कर ‘दादा-दादा’ चिल्लाये। मन में आता भागकर अपने घर चली जाये। वहाँ तुलतुल का कितना सामान है। माँ तो सिर्फ थोड़े से कपड़े-जूते लेकर आयी है। और लाई है किताबें।
लेकिन यही तो सब कुछ नहीं है ? और चीजें भी तो हैं। कितनी सारी चीजें। उसे कभी-कभी डर सा लगता-लगता शायद फिर कभी वह उस घर में लौटकर न जा सकेगी।
खिलौनों की अलमारी में रखे सारे खिलौने पड़े-पड़े सड़ते रहेंगे। छत पर, सीढ़ी वाली खिड़की पर कितना कुछ पड़ा है। छत पर तुलतुल की साइकिल, मोटर और झूला टँगा है। सीढ़ी पर वह बड़ा वाला भालू और कुत्ता। खिड़की के किनारे रेलगाड़ी पड़ी रहेगी तुलतुल की। और तुलतुल पड़ी रह जाएगी इस सड़े से गन्दे मकान में। क्यों ? क्यों ? क्यों तुलतुल को यह सजा मिले ? तुलतुल ने क्या अपराध किया है ?
गुस्सा आता है माँमोनी पर। बाबूजी पर उसे दया आती है। उनके लिए दुःख होता है क्यों बाबूजी उसे आकर ले नहीं जाते ? न जाना चाहें तो न जाएँ माँमोनी। तुलतुल अपने घर में उनके बिना अकेली ही मजे से रह लेगी।
फिर अकेली कैसे ? बाबूजी होंगे। दादा है। वहाँ सुशीलदा है। चारू की माँ भी तो आती है। कमरों में झाडू-पोंछा करती है, और भी न जाने क्या-क्या काम करती है। कमरा पोंछते हुए कितनी बातें करती थी तुलतुल के साथ।
अगर माँमोनी इस सड़े मकान में पड़ी रहना चाहती हैं तो रहें, तुलतुल चली जाएगी।
लेकिन जाएगी कैसे ? वह क्या बड़ों की तरह इच्छा होते ही जा सकती है ? मन में प्रश्नों की झड़ी लगी थी। हर प्रकार की जिज्ञासा ने छोटे से हृदय को मानो दबोच लिया था।
रह-रह कर तुलतुल को रोना आ जाता। जबरदस्ती रोकने पर भी न रुकते आँसू। गले से आवाज निकल ही जाती । और उस वक्त अगर कोई दौड़ कर आता, पूछता, ‘‘क्या हुआ ? क्या बात है ?’’ तो मन करता उसे मार बैठे।
हालाँकि मारती नहीं। झूठमूठ ही कह देती, ‘‘एक कीड़े ने काट लिया था’’ या फिर ‘‘गिर गयी थी’’ अथवा ‘‘ठोकर लग गयी थी’’।

इससे पहले भी क्या तुलतुल झूठ बोलती थी ?
‘‘तेरी लड़की इन्हीं कुछ दिनों में सूख कर आधी हो गयी है।’’ हँसुए से सब्जी काटती हुई धरित्री बोल उठी, ‘‘अब वह पहली-सी नहीं रही।’’
तुलतुल वहाँ नहीं थी लेकिन कमरे से उसने सुना तो उसके कान खड़े हो गए।
शिशु के भीतर वयस्कों जैसी चतुरता और सतर्कता के भाव प्रकट हो रहे थे।
तुलतुल ने सुना, माँमोनी खीज भरी आवाज में बोलीं, ‘‘यूँ ही आधी हो गई ? तुम लोग भी ऐसी अजीब बातें करती हो जिनका कोई मतलब नहीं होता।
असल में क्या कंका स्वयं नहीं देख रही थी कि लड़की में फूलों-सी ताजगी अब नहीं रही। लेकिन कंका इसके लिए अपने-आपको जिम्मेवार मानने को तैयार नहीं। अपनी माँ की तरह बेसिर-पैर वाले, सेंटीमेंट्स वह नापसन्द करती है। इसीलिए अपनी चार साल की बच्ची पर उसे गुस्सा आ जाता—क्यों बाबा तुझे क्या हो रहा है ? तू छोटी-सी लड़की है, तुझे इन बातों में सिर खपाने की जरूरत क्या है ? पहले तो मामा के यहाँ आने के नाम पर उछला करती थी अब कुछ ही महीनों में मामा का घर सड़ा हो गया ? नखरेबाज लड़की ! ठीक से खाएगी नहीं, हँसेगी नहीं, खेलेगी नहीं। कोई प्यार करने बढ़ेगा तो छिटक कर दूर हट जाएगी। ऐसी भी क्या जिद्द ? असभ्यता.....

यद्यपि कंका स्वयं भी नहीं सोचती है कि हमेशा यहीं रहेगी। मन-ही-मन सोच रखा है कि खुद उपार्जन करने लगेगी तो लड़की के साथ किसी भी तरह अलग रह कर गुजर-बसर कर लेगी। पर अभी तुरन्त तो कुछ होने वाला नहीं। यहाँ रहना पड़ रहा है इसमें अपमानित होने जैसी भी तो कोई बात नहीं। मकान कंका के पिता का बनवाया है, भाई का नहीं—कितना भी छोटा मकान क्यों न हो कंका का आधे पर हक बनता है।
कंका के दिवंगत पिता सीधे-साधे इन्सान होते हुए भी तथा बेटी के भविष्य के बारे में किसी तरह की आशंका घोषित न करने पर भी, सुदूर भविष्य की बात सोच कर, अपने इसी छोटे से घर के लिए चुपचाप एक वसीयत बना गए हैं, यह बात कंका जानती नहीं थी। जानने की बात भी नहीं। उन्होंने वसीयत लिखते समय अपने इस चचेरे भाई की मदद नहीं ली थी। सहायता ली थी अपने एक बाल्य बन्धु की।

कहना न होगा की अपने इस मकान में बेटी के लिए कोई हिस्सा नहीं रखा गया था। जैसा की साधारणतया मध्यवर्गीय घरों में होता है, आज भी वे लोग बेटे को ही वास्तविक उत्तराधिकारी मानते हैं।
बेटी माने तो दामाद। भिन्न गोत्र, भिन्न वंश। वह कैसे मकान का भागीदार हो सकता है ?
वसीयत के बारे में केवल धरित्री ही जानती हैं। इसमें उनका समर्थन ही था। माँ के लिए भी बेटा ही असली संतान है।
फिर भी धरित्री ने हँसकर कहा था, इतनी व्यवस्था करने की जरूरत नहीं थी। कंका तुम्हारी तुच्छ इन दो ईंटों में हिस्सा माँगने नहीं आएगी। उसे कौन-सी कमी है ?’’
विनोद बिहारी हँसे थे—‘‘दावा करने वाली चीज पर क्या लोग अभाववश दावा करते हैं ? फिर भविष्य के बारे में कौन कुछ कह सकता है ?’’
‘‘राम-राम!’’ धरित्री ने कहा था, ‘‘भगवान् भला करे। भविष्य में कभी भी उसे बाप के घर में रहने की जरूरत तक न पड़े।’’
आज धरित्री उन्हीं बातों को मन ही मन सोच-सोच कर सिहर उठती है।

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