लोगों की राय

कहानी संग्रह >> बुतखाना

बुतखाना

नासिरा शर्मा

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2314
आईएसबीएन :9788180313462

Like this Hindi book 1 पाठकों को प्रिय

239 पाठक हैं

यह संग्रह सामाजिक चेतना,मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का दस्तावेज है.......

Butkhana a hindi book by Nasira Sharma - बुतखाना -नासिरा शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नासिरा शर्मा की कहानियों का यह नया संग्रह सामाजिक चेतना, मानवीय संवेदना और इंसानी जटिल प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति का दस्तावेज़ है। यह वर्तमान समय की विषमाताओं की कहानियों में इस सहजता से पिरोता है कि इंसानी रिश्तों की ललक पात्रों में बाकी ही नहीं रहती, बल्कि टूटते रिश्तों और बदलते मानवीय सरोकारों की कचोट पाठकों की तरह गहरी तपकन का एहसास देती है।

 

दो शब्द

 

मेरी यह कहानियाँ समाज की वह सच्चाईयाँ हैं जो मेरी अनुभूति से नहीं, बल्कि यथार्थ की जमीन से उपजी हैं, जिसमें जरूरत के अनुसार थोड़ा झूठ, कुछ कल्पना का और मेरे अपने अहसास का मिश्रण है, जिसमें जरूरत के अनुसार थोड़ा झूठ, स्थितियों ने मुझे बेचैन जरूर किया और एक सवाल भी सामने रखा कि इतना कुछ प्रयास करने के बाद परिवर्तन क्यों नहीं आता हैं ? यह सवाल अपनी जगह जितना अहम है उतना यह हक़ीक़त भी कि बढ़ती आबादी के साथ पैदा हुए नये इन्सान नई समस्याओं के साथ जीवन में प्रवेश करते हैं और समाज के स्तर पर नई कठिनाइयों को जन्म देते हैं। इसलिए बदलाव और बदहाली का साथ अभी रहेगा।
इन कहानियों में व्यक्त परिस्थितियों का कोई ऐतिहासिक सन्दर्भ तलाश करना जरूरी नहीं है, क्योंकि यह सारे विषय ऐसे हैं जिसमें आज की नस्ल अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही है उसमें सपनों की सरसराहट, भावुकता की गुदगुदाहट, प्रेम की चाहत नहीं है बल्कि ठोस स्थितियाँ सम्वेदना का निरन्तर शुष्क होते जाना, प्रेम भाव का स्थाई रूप से किसी भी रिश्ते में न ठहर पाने की खोज और घबराहट भरी जिजीविषा है कि कल क्या होगा ? इस बदहवास दुनिया में जहाँ जीने का रस सूख चुका हो और प्रतियोगिता की उत्तेजना का आरम्भ हो चुका हो उस स्थिति में अपने पैरों को कैसे जमाया जाये यह भय हमारे शरीर को ही नहीं हमारी आत्मा को भी दीमक की तरह चाट रहा है। यह भय ही हमको गलत समझौतों, गैरमुनासिब हरकतों और मानसिक हिंसा की तरफ प्रेरित करता हुआ हमारी रोज़ बोली जाने वाली भाषा को प्रभावित कर रहा है जिसमें रिश्तों की गन्ध दूर और व्यवहारिक तल्ख़ी बढ़ती जा रही है। इन सारी बदगुमानियों के बावजूद अच्छे और बुरे की जंग अभी जारी है चाहे वह अर्न्तात्मा में हो या फिर अपने प्रति हुई नाइन्साफी के आक्रोश में हो जो इस बात का सबूत है कि हम समय के बदलने की आशा रख सकते हैं।
मेरी यह कहानियाँ तीन भागों में विभाजित की जा सकती है। बुतख़ाना मेरी पहली कहानी है जो सारिका ने नवलेखन अंक में 1976 में छपी थी जहाँ से मेरे लेखन की शुरुआत होती है फिर मरयम (1984), खिड़की 1984, नमकदान 1987 में छपीं। अन्य कहानियाँ 2000 और 2001 में लिखी गई हैं। इस तरह मेरा संग्रह मेरे 25 वर्ष के लेखन का एक समावेश है जिसमें समय के अन्तराल में लिखी गई मेरी कहानियाँ पाठकों के सामने है। आशा है कहानियाँ आपको निराश नहीं करेंगी और मेरे पात्र दुख-सुख की उन अनुभूतियों से आपको परिचय करायेंगे जो वास्तव में आपकी अपनी है।

 

नासिरा शर्मा


नमकदान

 

‘‘अल्लाह अन्ना बुआ ! गुल सारे घर में नमक बिखेरती फिर रही है और आप उसे मना नहीं कर रहीं हैं ?’’ रेशमा ने गुसलखाने से निकलते हुए कहा ‘‘ए उई ! तुम तो बैठे बिठाए अच्छा खेल निकालेव हो बहिनी ?’’ कहती हुई अन्ना नाक पर उँगली रखकर पाँच साल की उछलती गुल को लम्हे भर घूरती रही फिर घुटनों पर हाथ जमाकर पटरे से उठीं।
‘‘पता नहीं इस गुल की बच्ची को इस तरह सारे घर में नमक छिड़कने में क्या मज़ा आता है ? दुनिया भर के खिलौने भरे पड़े हैं मगर बेग़म का दिल नमकदान में अटका रहता है।’’ रेशमा बड़बड़ाती हुई अपने भीगे बालों को गर्दन झुकाकर तौलिए से झटकने लगी।
‘‘हम नहीं देते अन्ना बुआ...हम तो ज़मीन के पाउडर लगा रहे हैं।’’ उछलती गुल अन्ना बुआ के हाथों से मछली की तरह फिसली और नमकदान को अपनी नन्हीं-सी मुट्ठी में जकड़कर भागी।
‘‘अच्छा ठहरो...आज हम तोका बताइब है।’’ हाँफती अन्ना बुआ खाने की मेज़ के दो चक्कर लगाकर ही थक गई।
‘‘अन्ना बुआ...पकड़ो तो जानें...’’ कहती हुई गुल कुर्सी पर चढ़कर मेज़ पर खड़ी होकर नमक छिड़कने लगी।
‘‘देत हो बहिन की गोहराएँ साधु बाबा को...?’’ अन्ना बुआ ने अपना आखिरी हथियार फेंका।
‘‘नन्हीं ...नहीं अन्ना हुआ नहीं।’’ हँसती हुई गुल ख़ौफ से बेदम-सी हो गई। हाथ ढ़ीला होकर नीचे गिर गया और चुपचाप नमकदान अन्ना बुआ की तरफ बढ़ा दिया।
‘‘आज से नमकदान आप बर्तन की अलमारी में रखिए, मैं ज़रूरत के वक़्त खुद उठाकर निकाल लिया करूंगी।’’ कहती हुई रेशमा बालों को तौलिए में लपेटती हुई आँगन से खाने के कमरे में आई।
‘‘अम्मी....अन्ना बुआ मुझे डराती है।’’ गुल माँ को देखकर रूँआसी हो उठी।
‘‘हम तुमसे नहीं बोलते।’’ रेशमा बिना बेटी की तरफ देखे बेडरूम की तरफ बढ़ी।
‘‘क्यों मम्मी क्यों ?’’ दौड़ती गुल माँ से जाकर लिपट गई।
‘‘तुम हमारा कहना नहीं मानती ...आज से हमारी तुम्हारी खुट्टी....’’ रेशमा ने कपड़े की अलमारी खोलते हुए कहा।
‘‘हम खुट्टी नहीं करते,’’ पीछे हटती हुई गुल बोली।
‘‘हमने कर दी और अब हम न बोलेंगे न तुम्हें प्यार करेंगे।’’ कहती हुई रेशमा ज़फर के कपड़े निकालने लगी।
‘‘मिल्ली कर लो मम्मी मिल्ली...’’ ठुनकती मुँह बिसोरती गुल मचलने लगी।
‘‘एक शर्त पर....अब नमक ज़मीन पर नहीं गिराओगी....कितनी बार समझाया नमक गिराना गुनाह है गुनाह।’’ रेशमा बिस्तर पर बिखरे अखबार उठाते हुए बोली।
‘‘गुनाह क्या होता है मम्मी ? पलंग के गद्दे पर उछलती हुई गुल पूछने लगी।
‘‘गन्दी बात ! क़यामत के दिन अल्लाह मियाँ पलकों से नमक उठवायेंगे तब उठाते बनेगा तुमसे ?’’ रेशमा ने गाऊन टाँगते हुए पूछा।
‘‘क़यामत का दिन कब आयेगा ?’’ कुछ सहमकर गुल ने पूछा। उसका उछलना बंद हो गया था और अब पलंग के सिरहाने पर बैठ गई थी।
‘‘जब सब मर जायेंगे और....’’ रेशमा ने बेटी को नीचे उतारते हुए कहा।
‘‘सब मर जायेंगे ? मरना क्या होता है ?’’ बीच में गुल बोल पड़ी।
‘‘तुम्हारा सर...यह बच्ची है कि पूरी बुक़रात !’’ झुँझलाई-सी रेशमा बालों को तौलिया खोलने लगी।
‘‘मान गया तुम्हें रेशमा....इस पाँच साल की बच्ची को तुम ज़िन्दगी और मौत का फलसफा समझा रही हो...बच्चे तो शरारत करते रहते हैं.....दरगुज़र करो....हम भी कभी बच्चे थे यह सोचकर चश्मपोशी की आदत डाल लो।’’ ज़फर दाढ़ी बनाते हुए बोले।

‘‘इसी से बिगड़ रही है गुल ! जब मैं उसे डांटती, समझाती हूँ तो आप बीच में टोक देते हैं....क्या खाक सुधरेगी शैतान की खाला।’’ रेशमा को सचमुच गुस्सा आ गया था। कपड़े समेटती हुई। वह कमरे से बाहर निकली।
‘‘करवा दी न लड़ाई।’’ ज़फर ने हँसते हुए बेटी को लिपटाया और उस पर बूसों की बौछार कर दी।
‘‘अब्बू....अम्मी गन्दी !’’ लाड़ में भरकर गुल मिनमिनाई और बाप के गाल पर प्यार किया।
‘‘नहीं बेटी ! ऐसे नहीं कहते, माँ के पैरों के नीचे तो जन्नत होती है।’’ ज़फर ने बेटी के गाल को हल्के से थपथपाया।
‘‘जन्नत किसे कहते हैं अब्बू ?’’ गुल बाप के कन्धे पर चढ़ते ही बोली।
‘‘अपने इस घर को।’’ कहकर ज़फर ने बेटी को कन्धे से नीचे उतारा और दाढ़ी बनाने का सामान समेटने लगे।
कई वर्ष बीत गए !
‘‘गुल ! इतना गर्म पानी आँगन में मत फेंको बेटी।’’ रेशमा परेशान होकर बोली।
‘‘पानी अन्दाज़े से ज्यादा हो गया था अम्मी।’’ कलफ पकाते हुए सोलह वर्ष की गुल बोली।
‘‘तो उसे किसी खाली बरतन में डाल देती...इतना जलता पानी..जमीन को कितनी तकलीफ पहुंची होगी बेटी ?’’ रेशमा के चेहरे पर दुख फैला।
‘‘आप भी कमाल करती हैं अम्मी ! सारे दिन सूरज जो उसे अपनी कड़ी धूप से झुलसाता रहता है उसे आप कुछ नहीं कहतीं मेरे इतना-सा पानी डालने में उसे तकलीफ पहुँच गई ?’’ गुल ज़रा नाराज़गी से बोली।
‘‘किसी बेगुनाह को सताना गुनाह है। यह न समझना कि जमीन के जान नहीं होती है।’’ रेशमा ने बेटी की नाराजगी को नज़र-अन्दाज करते हुए कहा।
‘‘आप भी खूब हैं अम्मी ! सूरज ग्रहण लगता है तो न खुद कुछ खाती हैं न किसी और को खाने देती हैं यह कहकर कि सूरज मुसीबत में है। उसके लिए दुआ करो ताकि वह बेचारा इस मुसीबत से मजाद पा जाए...उधर हमारी साईंस कुछ और बताती है। अब आप ही बताइये अम्मी कि किसकी बात मानूँ ?’’ गुल ने धुले हुए कपड़ों के नमूनों के छोटे-छोटे टुकड़ों को कलफ के घोल में डाला।
‘‘जो इल्म अहसास, के सोते सुखा दे वह इल्म क्या बेटी ? साईंस नई है मगर हमारे यह रिश्ते बहुत पुराने हैं। हम नए और पुराने दोनों के साथ भी जी सकते हैं। सूरज, मान लो हमेशा के लिए ठंडा पड़ जाए तो क्या हमें साईंस नया सूरज दे सकती है ? मंतिक जिसे तुम लॉजिक कहोगी बहुत ज़रूरी है आज की ज़िन्दगी में, मगर अहसास की क़ीमत पर नहीं...अहसास इन्सान की पहचान है वरना काम तो अब तुम्हारा रॉबट भी करने लगा है।’’ रेशमा ने बेटी की बेचैनी को समझते हुए नर्म लहज़े में कहा
‘‘यानी कि गुल पुरानी घिसी-पिटी बातें आँख बन्द कबूल करते जायें ?’’ गुल के चेहरे पर बगावत की हँसी की छाया फैल गई।
‘‘जो पुरानी बातें होती हैं वह वक्त के साथ पुरानी पड़कर खुद खत्म हो जाती हैं। अहसास और कानून में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है एक इन्सान के अन्दर से फूटता है और दूसरा उस पर लद जाता है। इन्सान का सूरज ज़मीन, पानी, आग से रिश्ता बहुत गहरा है और वह कभी पुराना नहीं पड़ सकता है बेटी !’’ रेशमा ने इस यकीन से कहा कि गुल कुछ जवाब न दे सकी।
‘‘कपड़ा फैलाए देव बहिनी नाही तो धूप चली जाई।’’ अन्ना बुआ बरामदे के दर पर बैठी नए चांदी के खिलाल में काला डोरा बटकर डालती हुई बोली।
‘‘मेरी सिलाई की कापी पूरे क्लास में सबसे बढ़िया है।’’ कहती हुई गुल कढ़ाई के नमूनों को चबूतरे पर बिछे अखबार पर फैलाने लगी।
‘‘कापी क्या मेरी बेटी इस साल नम्बर भी सबसे अच्छे लायेगी।’’ हँसकर रेशमा ने बेटी का सिर छुआ।
‘‘कौउन से दर्ज़े में पहुँची बहिनी ?’’ अन्ना बुआ ने खिलाल को गले में डालते हुए पूछा।
‘‘अन्ना बुआ कितनी बार बताऊँ, दसवें में ?’’ चिढ़ी-सी गुल बोली।
‘‘अब हमें यह सब याद रहता है क्या ?’’ अन्ना बुआ ने टाँग आगे करके चूड़ीदार पायजामे की चूड़ी ठीक की।
‘‘अभी बारहवाँ फिर पन्द्रहवाँ और...गुल बोलती गई।
‘‘अब बहुत होय गवा...आगे पढ़े की ज़रूर नहीं है। घोड़ा जैसी लड़की सब जगह दौड़ती अच्छी नहीं लगती है। अब शादी ब्याह की सोचो बहू बेगम !’’ अन्ना बुआ कहती हुई उठीं।
‘‘अम्मी आप इन्हें मना कर दीजिए...या तो यह मेरे पोनीटेल की बात करती हैं या फिर शादी की...इन्हें और कोई काम नहीं रह गया है क्या ?’’ पैर पटखती गुल चीखी।
‘‘मना कर दूँगी।’’ हँसती हुई रेशमा बोली।
‘‘अन्ना बुआ आकर अपनी हंडिया भून लो वरना खाने में देर हो जायेगी।’’ बावर्ची खाने से खानसामा की आवाज़ आई।
‘‘मसाला महीन पीसा है कि नहीं ?’’ अन्ना बुआ सर पर दुपट्टा जमाती हुई बोलीं।
‘हाँ..हाँ...यहाँ सब तैयार है। हंडिया चूल्हे पर चढ़ा दी है...मैं चला..’’ खानसामा कहता हुआ पिछवाड़े के दरवाजे की ओर बढ़ा।
‘‘चला बीड़ी पीने...यह नशा मुए को ले डूबेगा।’’ बड़बड़ाती अन्ना बुआ बावर्चीखाने में घुसीं।
अन्ना बुआ आज आम का पना बना लीजिएगा लू चलने लगी है।’’ रेशमा कहती हुई कमरे की तरफ बढ़ी।
गुल ने कपड़े फैलाकर हाथ धोए फिर इस्त्री करने के इन्तज़ाम में लग गई। सुबह की नर्म धूप कुछ गर्म होकर आँगन में फैल गई थी।

कई वर्ष की बात है !
‘‘अब जो गुज़र गया उसे भूल जाओ रेशम, गुज़रा कल तुम्हें आज इतना क्यों परेशान कर रहा है ? इससे आने वाला कल भी खराब करोगी...भूलने की आदत डालो माफ करना सीखो।’’ ज़फर ने गहरी साँस भरते हुए कहा।
‘‘मेरे हल्क से यह बातें किसी हाल में नीचे नहीं उतरती हैं, अब मैं क्या करूँ ?’’ रेशमा ने सामने पड़े खत को उठाते हुए कहा।
‘‘रेशमा ! जिन्दगी उसूल की किताब नहीं है।’’ ज़फर ने कहा।
‘‘मान लेती हूँ मगर उसूल के बिना ज़िन्दगी, ज़िन्दगी नहीं होती।’’ रेशमा में ख़त को तह करके लिफाफे में रखते हुए कहा।
‘‘तुम्हारी बात सोलह आने सही है मगर सिर्फ उसूल ही तो ज़िन्दगी की हक़ीक़त नहीं है। आज जो कुछ सलमान के साथ हुआ उसे तुम जो भी कहो मगर जानबूझकर सलमान ने कुएँ में छलाँग लगाई नहीं, आज हालात ने उसे अन्धे कुएँ में ला पटखा है तो अब बेचारा क्या करे ?’’ ज़फर गहरी सोच में डूबी आवाज में बोले।
‘‘बेचारा मत कहिए, अगर यह ग़लत कदम वह उस वक़्त न उठाता तो आज उसकी यह हालत नहीं होती, सबने मना किया था मगर उस वक़्त तो वह सारी दुनिया फतह करने के नशे में थे।’’ चिढ़कर रेशमा बोली और खत को तकिया के नीचे रखा।
‘‘अब जब साँप निकल गया तो लकीर पीटने से क्या फायदा ? रिस्तेदारी के नाते हमारा फर्ज बनता है कि हम उसकी मदद करें वरना तुम्हारी उसूली किताब हमें एक दिन मुजरिम करार दे देगी।’’ ज़फर ने हँसते हुए बिखरी फाइलें बन्द कीं। लैम्प बुझाया और बिस्तर पर दराज़ हो गए।
श्रीवास्तव साहब के यहाँ ज़फर को सारी व्यस्तता के बावजूद जाना पड़ा। बहुत कहने पर भी उन्होंने चाय और नाश्ते का इन्तज़ाम कर दिया।
‘‘अरे नहीं जनाब, मैं छुआछूत पर यकीन नहीं रखता हूँ; क्या कहूँ आपसे बचपन से कुछ आदत ऐसी पड़ गई है कि जब तक कोई जिगरी दोस्त न बन जाए तब तक किसी के घर का नमक नहीं चख सकता हूँ।’’ ज़फर ने शर्मिन्दा-सी आवाज़ में कहा।
‘‘तो हमें अपना दोस्त समझें !’’ मेज़बान हँसे।
‘‘दोस्त तो आप हैं तभी तो आपके साथ चाय पी रहा हूँ मगर बहरहाल नमक चखने की अपनी एक जिम्मेदारी होती है। नमक हरामी, नमक हलाली की बात घर में इस पुख्तगी से ज़हन में बैठा दी गई है कि उसका निकलना मुश्किल है।’’ ज़फर ने चाय का घूँट भरा।
‘‘संस्कार हैं अपने-अपने’’ मेज़बान ने कहा।
‘‘ऐसी बातें कभी गाँव वगैरह में सुनने में आती थीं अब शहर में रहकर इनका कौन पालन करता है।’’ धीमा-सा स्त्री स्वर उभरा।
‘‘बात ठीक कह रही हैं आप मगर हमारे दादा गाँव के थे और शहर भी तो उसी का हिस्सा है इसी मुल्क़ की ज़मीन...’’ ज़फर ने खाली प्याली रखी और पाइप मुँह में लगाया।
‘‘आज आपकी भाषा सुनने में बड़ी विचित्र लग रही है कभी-कभी हम भी इस निराली भाषा को जीवन के दूसरे सन्दर्भ में बोलते हैं मगर सच पूछिए अब इसके समझने वाले खत्म हो रहे हैं।’’ मेजबान ने कहा।
‘‘काम हो गया बेटे चलें ?’’ ज़फर ने पूछा।
‘‘बस अब्बू दो मिन्ट !’’ कहती हुई गुल कलम चलाने लगी। टायफायड की वजह से दो महीने कालेज नहीं गई और अब सहेली के घर आकर नोट्स उतार रही है।
‘‘ज़मीन पर क्या ठोका-पीटी लगाए हो अज़ीज ?’’ अन्ना बुआ की झुँझलाई आवाज उभरी।
‘‘कितनी बार तुम्हें मना किया है कि ज़मीन पर सामान आहिस्ता से रखो मगर हर बार तुम भूल जाते हो ?’’ रेशमा ने सख्ती से कहा।
‘‘आखिर उसके भी जान होती है।’’ उसी लहजे में धीरे से गुल ने कहा और होंठों की हँसी दुपट्टे से छुपाया।
‘‘अरे आज हम एका मारेंगे तो मत भूलो ई कल हमका दबाई...जवानी के जोश में आक़बात तक भूल जात हो।’’ अन्ना बुआ बड़बड़ाने लगीं उन्हें बुखार है...हफ्ते भर से पलंग से लगी हैं पहले का खाया- पिया बदन है इसलिए काठी मजबूत है।
‘‘ज़मीन बददुआ भी दे सकती है इसका भी खौफ नहीं दिल में !’’ रेशमा बाजार से लाया सामान उठवाकर जिन्स की कोठरी में रखवाने लगी।
‘‘उफ् ! यह अम्मी-अब्बू और इनकी अन्ना बुआ जाने किस सदी में जीते हैं, कोई नमक नहीं खा रहा है कोई ज़मीन से डर रहा है, कोई नेकी और बदी की बात कर रहा है..इतनी पाबन्दी में आदमी जी कर बढ़ेगा क्या खाक ?’’ उलझी-सी गुल ज़ोर से किताब मेज़ पर पटख कर खड़ी हो गई।
‘‘खूब बहाओ नमक नापदान में...।’’ अन्ना गरजी।
‘‘कुरान पाक की कसम अन्ना बुआ हमने समझा आटा है।’’ बर्तन-धोते-धोते करीमुन सहम कर बोली।
‘‘ई कहो बहिनी आँखों पर चर्बी चढ़ गई है तोहार। वरना प्रिच में रखा नमक आटा दिखने लग गवा ?’’ अन्ना बुआ की आवाज़ आँगन में लहराई।
‘‘अब से ध्यान रखबे अन्ना बुआ’’ करीमुन खुशामदी लहजे में बोली।
‘‘नाली देखो...ऐही दाने के मारे तुम काम करते हो..निगोड़े कुत्ता-बिल्ली मर गये हैं जो जूठा नाली में बह रहा है ? खबरदार जो ई बेअदबी दाना की दोबारा देखबे तो चुटिया पकड़कर निकाल दे बय।’’ अन्ना बुआ का चीखना-चिल्लाना जारी था। करीमुन झपटकर चावल के दाने और रोटी के टुकड़ों को नाली से समेटने लगी।
‘‘यह अन्ना बुआ बहुत चिल्लाती है अम्मी ! कल मेरा पेपर है और यह...।
‘‘गुल गुस्से से तनतनाती हुई माँ के पास पहुँचकर बोली।
‘‘बुढ़ापा है, गुस्सा जल्दी आ जाता है।’’ रेशमा ने धीरे से कहा।
‘‘आखिर आप लोग उनसे इतना डरते क्यों हैं ? खानसामा की तरह वह भी तो नौकर है, उन्हें आप डाँटती क्यों नहीं हैं ?’’ गुल गुस्से से बोली।
‘‘गुल !’’ ज़फर की तेज़ पाटदार आवाज गूँजी।
‘‘जी अब्बू !’’ गुल उनकी तेजी की आवाज से सहम कर दो कदम पीछे हट गई। रेशमा हड़बड़ाकर खड़ी हो गई।
बिना कुछ कहे ज़फर सिर झुकाए कमरे से बाहर लान में निकल आए। गुल ने परेशान सी नजरों से माँ को देखा। रेशमा ने उसे जाने का इशारा किया और खुद ज़फर के पीछे गई।
सारे घर में एक ऐसा सन्नाटा फैला पड़ा है जैसे एक बड़ा तूफान आकर गुज़र गया हो। हमदर्दी और अफसोस करने वालों का तांता बँधा हुआ था। जो घर के हर फर्द के चेहरे पर मिले-जुले तास्सुर जगा रहा था। इस सबसे बेन्याज अन्ना बुआ का कोसना जारी था।
‘‘अरे देखना इस पर कड़कती बिजली गिरेगी। जब दो दिन का था तब से इस घर के नमक पर पल कर बड़ा हुआ है। क्या पता था हमें कि जो पेड़ हम आम समझकर लगा रहे हैं वह बबूल का निकलेगा।’’
‘‘इस सबके कहने से अब क्या फायदा ?’’ रेशमा ऊबकर कहती।
‘‘मेरे सीने पर साँप लोटता है बहू बेगम....पुलिस दरोगा से पहले उस आस्तीन के साँप की खबर लूँगी। दे खटपटी, की मार से ओकी चँदिया साफ कर दूँगी...मैं भी अपन बाप के नुत्फे की नहीं जो...।’’ गुस्से में अन्ना बुआ हमेशा साफ जुबान बोलने लगती थीं।
‘‘पहले मिले तो !’’ झुँझलाकर गुल कहती।
‘‘अरे हम इस घर का नमक खाइ है गू नाही।’’ तनतनाती हुई बोल उठीं अन्ना बुआ।’’
‘‘तौबा अन्ना बुआ आप तो जैसे अपने होश हवाश खो बैठी हैं.....बाहर लोग बैठे हैं।’’ रेशमा आखिर में गुस्सा हो जाती।
‘‘मैं इस घर की नौकर नहीं हूँ जो डेढ़ सेर का ताला मुँह पर डाल लूँ...मैं ज़फर मिया की खिलाई उनकी अन्ना हूँ बड़ी दुल्हन बेगम के सीने में फोड़ा निकल आया था। मैंने पूरे डेढ़ साल अपना ख़ूने ज़िगर ज़फर मियाँ को फिलाया है। मैंने उन्हें पैदा नहीं किया तो क्या पाला भी नहीं ? अरे पालने की मुहब्बत पैदा करने से ज्यादा होती है। कोई मेरे बेटे के घर में सेंध लगा जाए तो मैं ठट्ठा मार कर हँसूं ? पचास साल हो गए हैं मुझे इस ड्योढ़ी में बैठे हुए मेरे अज़ीज तुझे मरते हुए पानी भी नसीब न हो।’’
‘‘तुम ज़रा चाय देख लो, नाश्ता ठीक से भेजना.....मैं मेहमानों के पास जाकर बैठती हूँ।’’ तंग आकर रेशमा ने गुल से कहा और उठकर ड्राइंगरूम की तरफ बढ़ गई।


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book