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पौराणिक कथाएँ >> सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र

सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र

महेन्द्र मित्तल

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 3952
आईएसबीएन :81-310-0184-9

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वचन निभाने के लिए सर्वस्य समर्पित करने वाले की जीवनगाथा....

Satyavadi Raja Harishchandra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र

त्रेता युग में अयोध्या में राजा हरिश्चन्द्र राज्य करते थे। वे इक्ष्वाकु वंशी थे। बाद में श्रीरामचंद्र जी भी इसी वंश में हुए। धर्म में उनकी सच्ची निष्ठा थी। और वे परम सत्यवादी थे उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली हुई थी। उनके पुरोहित महर्षि वशिष्ठ थे, उनका इंद्र की सभा में आना-जाना था।

देव-दानव सभी उनकी सत्यनिष्ठा के प्रशंसक थे। प्रजा उनके शासनकाल में हर तरह से संतुष्ट रहती थी। उनके राज्य में न तो किसी की अकाल मृत्यु होती थी और न ही दुर्भिक्ष पड़ता था। जब भी कोई महराज की प्रशंसा करता तो वे उसे कहते, ‘यह मेरे गुरुदेव महर्षि वशिष्ठ की कृपा का फल हैं।’ ऐसा वे मात्र कहते नहीं थे, गुरु चरणों में उनकी अत्यधिक श्रद्धा थी।

विश्वामित्र का अंहकार


एक दिन इंद्र की सभा में विश्वामित्र और वशिष्ठ के अलावा देवगण, गंधर्व, और पितर और यक्ष आदि बैठे हुए चर्चा कर रहे थे कि इस धरती पर सबसे बड़ा दानी, धर्मात्मा और सत्यवादी कौन है ?
महर्षि वशिष्ठ ने कहा, ‘‘संसार में ऐसे पुरुष एक मात्र मेरे शिष्य हरिश्चन्द्र हैं। हरिश्चन्द्र जैसा सत्यवादी, दाता, प्रजावत्सल, प्रतापी, धर्मनिष्ठ राजा न तो पृथ्वी पर पहले कभी हुआ है और न ही कभी होगा।’’

जब किसी के प्रति वैमनस्य की भावना हो, तो दूसरे की छोटी-से-छोटी बात विक्षेप का कारण हो जाती है। इसलिए विश्वामित्र क्रोधित हो उठे, ‘‘एक पुरोहित की दृष्टि में उसके यजमान में ही समस्त गुणों का निवास होता है। मैं जानता हूँ राजा हरिश्चन्द्र को। मैं स्वयं उनकी परीक्षा लूँगा। इससे वशिष्ठ के यजमान की पोल अपने आप खुल जाएगी।’’
महर्षि वशिष्ठ के लिए विश्वामित्र के कहे गए वचन देवताओं को अच्छे लगे। इनमें उन्हें विश्वामित्र के अंहकार की स्पष्ट गंध आ रही थी। वे सोच रहे थे कि ऋषि भी अगर ऐसी भाषा का प्रयोग करेंगे तो सामान्य व्यक्ति का क्या होगा ?

देवताओं का विरोध


देवराज जानते थे कि दो ऋषियों के बीच हुए विवाद में फँसने से कोई लाभ होने वाला नहीं है। वे दोनों महर्षियों के स्वभाव से भली-भाँति परिचित थे। इंद्र भली-भाँति जानते थे कि विश्वामित्र के मन में क्यों वशिष्ठ के प्रति ईर्ष्या का भाव है। महर्षि वशिष्ठ ने अत्यंत शांत और गंभीर वाणी में विश्वामित्र से कहा, ‘‘आप ठीक कहते है ! परीक्षा ही व्यक्ति को दृढ़ बनाती है। परिक्षा से किसी को अपनी योग्यता का ज्ञान होता है। वैसे तो प्रत्येक स्वयं को लोगों के बीच यही सिद्ध करता है कि वही योग्य है बस !’’

महर्षि के इन वाक्यों का विश्वामित्र पर विपरीत प्रभाव पड़ा। उन्हें लगा, मानो सब कुछ उन्हीं को केन्द्र में रखकर कहा गया है। महर्षि वशिष्ठ ने आगे कहा, ‘‘आप स्वयं परीक्षा लीजिए ! सत्य सामने आ जाएगा।’’
अब विश्वामित्र की सहनशीलता समाप्त हो गई थी। वे वहाँ से उठकर चल दिए।

मायावी तपस्विनी


एक दिन राजा हरिश्चन्द्र वन में आखेट के लिए गए हुए थे। तभी उनके कानों में किसी की पुकार सुनाई दी, ‘‘मेरी रक्षा करो...मेरी रक्षा करो राजन !’’
राजा हरिश्चन्द्र ने आगे बढ़कर देखा कि एक युवा तपस्विनी अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाकर रोते हुए रक्षा करने की दुहाई दे रही है। राजा ने दाएं-बाएँ नजरें दौड़ाई, लेकिन उन्हें वहाँ कोई अन्य व्यक्ति दिखाई न दिया। तब राजा ने हैरान होकर तपस्वनी से पूछा, ‘‘कौन पापी आपको कष्ट पहुँचा रहा है ? मेरे राज्य में किसका इतना साहस जो अपने वस्त्रों में आग बाँधना चाहता है ? मेरे ये नुकीले बाण अभी उसे मौत की नींद सुला देंगे !’’

उस युवा तपश्वनी ने कहा, ‘‘राजन ! यहां से थोड़ी दूर पर एक तपश्वी घोर तपस्या करके मेरी सारी सिद्धियों को मुझसे छीन ले रहा है। मैं उसी से भयभीत होकर रक्षा की पुकार कर रही हूँ।’’
‘‘तुम डरो मत और निर्भय होकर तप करो।’’ राजा ने कहा, ‘‘मैं अभी उसे देखता हूँ।’’
यह करकर राजा वहां से चला गया। उसके जाते ही तपस्विनी अंतर्धान हो गई।

तपश्वी पर राजा का क्रोध


जंगल में ढूँढता-ढाढता उस तपश्वी के निकट पहुँचा जो घोर तपस्या कर रहा था। उसका मुख दूसरी ओर था। इसलिए राजा उसे पहचान नहीं पाया कि वह कौन है।

राजा ने उसे ललकारा, ‘‘अरे दुष्ट ! तू असहाय अबला स्त्री की सिद्धियों को हड़पने के लिए तपस्या कर रहा है। तुझे लज्जा नहीं आती ? ऐसी तपस्या करने से क्या लाभ, जो दूसरो को दुख पहुँचाये ? तू जरूर कोई पाखंडी तांत्रिक है, जो ऐसा कर रहा है। लेकिन जब तक राजा हरिश्चन्द्र जीवित है, तब तक वह अपने राज्य में ऐसा अधर्म और अन्याय नहीं होने देगा। मैं तेरी तपस्या को कभी पूरी नहीं होने दूँगा। तू कौन है ? उठकर मेरे सामने आ। अन्यथा मेरे अमोघ बाण तुझे बींध डालेंगे।’’
हरिश्चन्द्र की बाणी का उस पर कोई प्रभाव न होता देख हरिश्चन्द्र आगे बढ़ा, ‘‘ठहर जा देखता हूँ तुझे।’’

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