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गजल का व्याकरण

कुँअर बेचैन

प्रकाशक : अयन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 10073
आईएसबीएन :9788174085849

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ग़ज़ल !

हुम ग़ज़ल भी हो, प्रेम भी हो और प्रेमिका भी। प्रेमिका हो, इसलिए तुम परमसत्ता भी हो, जिसने संसार को प्रेम करना सिखाया। इसलिए यदि कहा जाय कि तुम प्रेम, प्रेमिका और परमसत्ता तीनों ही हो तो अनुचित नहीं। सचमुच ही तुम प्रस्थान-बिन्दु भी हो, पथ भी हो और पथ-लक्ष्य भी...

ग़ज़ल एक और सौन्दर्य-गाथा है तो दूसरी ओर प्रीति का आत्म-निवेदन; ग़ज़ल रेगिस्तान के प्यासे होठों पर उतरती हुई हिमस्पर्शी तरंग, अंधकार में टहलती हुई चिंगारी, नींद के पहले का अपना और जागरण के बाद का उल्लास है; ग़ज़ल जीवन के मार्मिक रहस्यों का तरल रेखांकन है; ग़ज़ल जीवनानुभवों की ऐसी शीतल छाँव है जिसके साये में बैठकर ज़िंदगी की थकान को भूला जा सकता है; ग़ज़ल गुलाबी पाँखुरी के मंच पर बैठी हुई खुशबू का वह मौन स्पर्श है जिस तक पहुँचना, जिसे छूना, जिसे जानना या समझना सरल काम नहीं है और जिसकी तलाश किसी अनन्त की तलाश-जैसी है, ग़ज़ल शब्दों के वाद्य-वृन्द पर ऐसे ‘वाल्यूम’ पर निकली हुईं आवाज़ है जिसे निकलते समय यह ध्यान रखना पड़ता है कि कहीं उसके स्वर से थककर सोये हुए लोग जाग न जायें और इन्हीं पलों में यह भी ध्यान रखना पड़ता है कि जो जागे हुए हैं वे इसके स्वर को सुनने से वंचित न रह जाएँ। ग़ज़ल लोरी भी है, जागरण-गीत भी। एक ही समय में दोनों। लोरी उन्हें जो थके-माँदे हैं; जागरण उन्हें, जिन्हें काम पर निकलना है।

जिसे लोग ग़ज़ल का शेर कहते हैं, हाँ, मैं उसी को दोनों पंक्तियों को तुम्हारे महावर रचे, पायल से सुशोभित, किंकणियों के क्वणन से ध्वनित पाँवों की उपमा देता हूँ। प्रत्येक पंक्ति में आने वाले शब्द घुंघरू की तरह बजते हैं और तब मुझे लगता है कि काग़ज़ पर ये ग़ज़ल के शेर नहीं वरन् तुम्हारी ही अनगिन नृत्य-मुद्राएँ हैं, साफ़-सुथरी... मोहक नृत्य-मुद्राएँ...

ग़ज़ल फूल की खुशबू की तरह अपनी पाँखुरी में रहकर भी अपनी पाँखुरियों की सरहद को पार कर जाने का नाम है; ग़ज़ल भाषा के द्वारा की गयी मानवता की पहरेदारी है; ग़ज़ल किसी तथ्य को भाव द्वारा समझने का प्रयास है, मनुष्य के अपराजित माहात्म्य का अभिषेक है, अनुभव की पगडंडी और विचारों के चौरास्तों पर की गयी शब्द की पदयात्रा है; ग़ज़ल उत्तेजना नहीं वरन् एक सार्थक विचार है; ग़ज़ल हृदय की भूमि पर लगी वह खरोंच है जिसमें प्रेम का बीज पनपता है। ग़ज़ल हारिल पक्षी की तरह अपने इष्ट को टहनी मानकर उसे कसकर पकड़े रहने का प्रयास ही नहीं, वरन् उससे भी आगे पंखों को बाँधे हुए, एक ही जगह बैठे हुए अनन्त आकाश में उड़ते रहने की कला है।

- कुँअर बेचैन

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