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गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्यप्रेमी हरिशचन्द्र

सत्यप्रेमी हरिशचन्द्र

शान्तनु बिहारी

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :44
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1022
आईएसबीएन :81-293-0524-4

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प्रस्तुत है सत्य हरिशचन्द्र का चरित्र चित्रण....

Satyapremi Harishchandra a hindi book by Shantanu Bihari - सत्यप्रेमी हरिशचन्द्र - शान्तनु बिहारी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

सत्यप्रेमी हरिश्चन्द्र’ आदर्श चरितमालाका दूसरा पुष्प है। श्री हरिश्चन्द्र का चरित्र अनेकों ग्रन्थों में बिखरा हुआ है और वह बहुत ही आश्चर्यजनक है। पण्डित जी ने प्रायः सभी ग्रन्थों में बहुत खोजकर संक्षेप में यह चरित्र लिखा है। हरिश्चन्द्र की सत्यवादिता और धर्मपर दृढ़ता आश्चर्य है। यह सत्य है कि जो अपने धर्म और सत्यपर दृढ़ रहता है, किसी भी परीक्षा में पीछे नहीं हटता, वह अन्तमें भगवानकी अपार कृपा को प्राप्त करके धन्यजीवन हो जाता है। हरिश्चचन्द्र का जीवन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। सत्यसे बहुत नीचे हुए हम भारतवासियों को अपने पूर्वपुरुष के गौरवपूर्ण चरित्र से लाभ उठाना चाहिये।
हनुमानप्रसाद पोद्दार
सम्पादक

श्रीहरिः शरणम्

सत्यप्रेमी हरिश्चन्द्र
1

परमात्मा ही सत्य है। वह नित्य एकरस और अविनाशी है। सत्य कभी परिवर्तन नहीं होता। झूठा अपनी बातें बदलता रहता है, परन्तु सच्चा क्या बदल सकता है ? उसके पास बदलने के लिये है ही क्या ? सत्य को समझें, सत्य को ढूँढें और जो सत्य जान पड़े, उसपर दृढ़ हो जायँ। वह ज्ञान शास्त्रों के आधारपर हों, संतोकी वाणीके आधारपर हो, बस, उसपर दृढ़ हो जाने मात्र से ही परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी। दृढ़ता सत्य में ही हो सकती है, असत्यमें नहीं। निष्ठा सत्यकी ही हो सकती है, असत्यकी नहीं। संसार का कोई भी पुरुष यह नियम नहीं ले सकता ति ‘मैं झूठ ही बोलूँगा; झूठ ही करूँगा,’ क्योंकि इस नियमका पालन त्रिकाल में नहीं हो सकता। यह अव्यवहार्य है। इसके विपरीत सत्य ही बोलने का, सत्य ही करने का नियम लिया जा सकता है और उसका पालन भी हो सकता है।

इसीसे सत्य व्यवहार्य है और वह परमात्मा का स्वरूप है। संसार के व्यवहार में सत्यकी ओट में ही असत्य को आश्रय मिलता है। अतः सत्य ही एक नित्य तत्त्व है और असत्य सर्वथा असत्य है। इस सत्य और असत्य के मिश्रण से जगत् में दुःखों की सृष्टि हुई है। असत्य को छोड़कर सत्य के आश्रयसे ही परम सुख प्राप्त किया जा सकता है। उसमें पहले कुछ दुःख भी पड़ सकते हैं; परंतु वे क्षणिक होंगे, अन्त में सत्य की स्थायी विजय होगी। संसार के इतिहासमें इसके अनेकों दृष्टान्त हैं और ऐसे दृष्टान्तों में सत्यनिष्ठ हरिश्चन्द्र का नाम प्रधानता से लिया जा सकता है।

त्रेतायुग की बात है। उन दिनों अयोध्या के राजा इक्ष्वाकुवंशी हरिश्चन्द्र थे। वे सम्पूर्ण पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट थे,। धर्म में उनकी सच्ची निष्ठा थी और उनकी कीर्ति त्रिभुवन में फैली हुई थी। सभी के मुँहपर हरिश्चन्द्रका नाम था, सभी उनके सद्व्यवहार, दानशीलता और सत्यनिष्ठाके कायल थे। देवता उनपर प्रसन्न थे, उनके शासनकाल में प्रजा संतुष्ट रहती थी, कभी दुर्भिक्ष नहीं पड़ता था। न कोई बीमार होता और न तो किसी की अकालमृत्यु होती। सभी प्रजा भगवान् की उपासना करती थी और अपने-अपने धर्म में तत्पर थी। सब धनी थे, शक्तिशाली थे, तपश्वी थे, परंतु अभिमान किसी में नहीं था। राजा हरिश्चन्द्र सबको समान दृष्टि से देखते, सबसे समान प्रेम करते। अनेकों यज्ञ-याग करते रहते। सबसे बड़ी बात उनमें यह थी कि वे सत्यसे कभी विचलित नहीं होते।

उनके पुरोहित थे महर्षि वसिष्ठ। वसिष्ट की आज्ञा से ही उनका राज-काज चलता था और वे वसिष्ठका बड़ा सम्मान करते थे। एक बार राजसूय यज्ञ में उन्होंने वसिष्ठकों को बड़ी दक्षिणा दी, इससे वसिष्ठ की ख्याति और भी बढ़ गयी। सब लोग उनका विशेष सम्मान करने लगे। यहाँ तक कि इन्द्र की सभामें भी उन्हें विशिष्ट आसन मिलता। वसिष्ठ सब प्रकार से योग्य थे, परंतु इन्द्रकी सभामें हरिश्चन्द्रका पुरोहित होने के कारण उनको और भी अधिक सम्मान मिलता। इन्द्रकी सभामें वसिष्ठ के अतिरिक्त विश्नामित्र, नारद आदि ऋषि-महर्षि भी उपस्थित होते तथा देवताओं के साथ ब्रह्मलोक से लेकर पाताल तक के सम्बन्ध में वर्तालाप करते।

एक दिन इन्द्रकी सभा लगी हुई थी। वसिष्ठ विश्वामित्र आदि ऋषि एक ओर बैठे हुए थे। देवता, गन्धर्व, पितर, यक्ष आदि भी यथास्थान विराजमान थे। इन्द्रके सामने ही यह चर्चा चल रही थी कि मर्त्यलोकमें आजकल सबसे बड़ा दानी, सबसे बड़ा, सबसे बड़ा धर्मात्मा और सबसे बड़ा सत्यवादी कौन है ? सब लोग इस विषय पर विचार कर रहे थे। वसिष्ठने कहा-‘संसार में ऐसे पुरुष एकमात्र मेरे यजमान हरिश्चन्द्र ही हैं। उन्होंने राजसूय यज्ञ किया है और उसमें इतनी दक्षिणा दी है कि उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ऐसा सत्यवादी, दाता, धार्मिक और प्रजाको प्रसन्न करनेवाला और कोई नहीं है। और तो क्या कहूँ मैं हृदय से कहता हूँ, सत्य कहता हूँ कि हरिश्चन्द्र- जैसा परम धार्मिक, प्रतापी, दाता तथा सत्यवादी राजा पृथ्वी में न कोई हुआ है और न होगा।’ *वसिष्ठ की बातों का समर्थन यज्ञ में भाग पानेवाले देवताओं  ने किया।

भगवान् की लीला अद्भुत है। वे किसके द्वारा कब क्या करवाना चाहते हैं और कैसे करवाते हैं, इस बातको सिवा उनके और कोई नहीं जानता। उस समय भगवान् ने हरिश्चन्द्रकी महिमा, उनकी कीर्ति और उनकी सत्यनिष्ठा आदर्श जगत् के सामने प्रकट कर देने का विचार किया। बस, विचारमात्र का ही तो विलम्ब था। उन्होंने एक लीला रच ही दी। विश्वामित्र के हृदय में ऐसे भाव उठने लगे कि हरिश्चन्द्र की महिमा गाकर वसिष्ठ से अपनी ही बड़ाई की है; क्योंकि जिसका यजमान इतना धार्मिक है, वह अवश्य ही बहुत बड़ा धार्मिक होगा। वसिष्ठ ने अपने महत्त्वका वर्णन करके हमलोगों का तिरस्कार किया है और खास करके मेरा; क्योंकि मैं ही उनका पुराना प्रतिद्वन्द्वी हूँ। प्रतियोगिताके कारण विश्नामित्र के मनमें ऐसे कारण सूझने लगे जो वसिष्ठ के मनमें तनिक भी नहीं थे। हरिश्चन्द्र के सम्बन्ध में उन्होंने यही सोचा कि वह कबका धर्मात्मा है, तनिक-सी कठिनाई पड़नेपर ही वह धर्म से सत्यसे विचलित हो जायगा।

विश्वामित्र ने भरी सभा में वसिष्ठका विरोध किया। उन्होंने कहा- ‘वसिष्ठने हरिश्चन्द्र की झूठी महिमा गायी है। ये उसके यहाँ रहते हैं, उसका खाते हैं और  उसी की गाते हैं। मैं हरिश्चन्द्र को खूब जानता हूँ वह कबसे धर्मात्मा हो गया ? यदि धर्मात्मा का स्वाँग भरता हो तो मैं उसे क्षणभर में ही विचलित कर सकता हूँ।    

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