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शेरपुर 15 मील

विजयमोहन सिंह

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :145
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 10305
आईएसबीएन :8171192290

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‘शेरपुर 15 मील की कथायात्रा फत लम्बी है-वह महज 15 मील नहीं है। एक कहानीकार के रूप में विजयमोहन सिंह किसी मुख्य धारा में शामिल नहीं रहे-न नई कहानी की, न साठोतरी कहानी की। वे किसी विचारधारा विशेष के जयघोषों के अश्वारोही भी नहीं रहे और न आधुनिकता से आक्रांत, प्रायः उसकी प्रतिकृतियाँ रचनेवाले कथाकारों से प्रभावित। उन्होंने प्रारम्भ से ही अपना निजी शिल्प तथा कथा-भाषा निर्मित की।

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिंदी कहानी और मुख्यतः साठोत्तरी कहानी के प्रमुख प्रवक्ता तथा उसके प्रवर्तकों में से एक विजयमोहन सिंह पिछले पैंतीस वर्षों से निरंतर इस दिशा में सक्रिय हैं। किंतु उनके पहले कहानी संग्रह ‘टटटू सवार’ से ‘शेरपुर 15 मील की कथायात्रा फत लम्बी है-वह महज 15 मील नहीं है। एक कहानीकार के रूप में विजयमोहन सिंह किसी मुख्य धारा में शामिल नहीं रहे-न नई कहानी की, न साठोतरी कहानी की। वे किसी विचारधारा विशेष के जयघोषों के अश्वारोही भी नहीं रहे और न आधुनिकता से आक्रांत, प्रायः उसकी प्रतिकृतियाँ रचनेवाले कथाकारों से प्रभावित। उन्होंने प्रारम्भ से ही अपना निजी शिल्प तथा कथा-भाषा निर्मित की। लेकिन अपने विकासक्रम में वह कभी शिलीभूत या जड़ीभूत न होकर निरंतर अपनी ऊर्जा के स्रोतों तथा शिल्प की छवियों का विविध दिशाओं में अन्वेषण करते रहे। संग्रह की अधिकांश कहानियों स्वतंत्रता के बाद के पतनशील सामंत वर्ग की क्रमिक मृत्यु का प्रायः अनुक्षण साक्षी बनकर उसे अंकित करती गई है किंतु यह ‘सामंत वर्ग’ रूढ़ अर्थ में एक परिभाषित सामंतवर्ग ही नहीं है : वह नवढनाद्‌य सपनों का सामंत वर्ग भी है और अपनी विरूपता में भी अपने को सहेजने में सचेष्ट, कभी हास्यास्पद परिणतियों में बिखरता हुआ और कभी त्रासदीय विडम्बनाओं में विलीन होता हुआ वर्ग विशेष भी। इन कहानियों में सामान्यीकृत तथा सरलीकृत स्थितियों तथा निष्कर्षों से भरसक बचा गया है क्योंकि इधर की हिंदी की अधिसंख्य कहानियाँ उसी का शिकार होती गई हैं। इसलिए यह ? एक वर्ग ऐसा भी है जो उपनिवेशी अवशेषों को ढोता हुआ, अपनी सलवटों को सहेजता हुआ ‘डॉनस्कघेंटिक’ लीलाओं में लिप्त है। वह दूसरों की पू्रनिंग करता हुआ इस तथ्य से अनभिज्ञ रहता है कि वह इस क्रम में निरंतर अपनी ही पू्रनिंग करता हुआ अस्तित्वहीन हुआ जा रहा है। इन कहानियों में मृत्यु एक केन्द्रीय विषय है, लेकिन हमेशा वह अभिधा में ही नहीं है, कभी वह रूपक, कभी प्रतीक और कभी केवल एक बुनियादी तथा अंतिम सत्य का अहसास भर है। ये कहानियाँ आधुनिकता से ग्रस्त नहीं हैं, न शीत-युद्धकालीन ‘रेटारिक’ आक्रमण-प्रत्याक्रमण से। ये महज आज के मानवीय परिदृश्य की रचनात्मक अंकितियाँ है।

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