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गीता प्रेस, गोरखपुर >> उपकार का बदला

उपकार का बदला

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :127
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1049
आईएसबीएन :81-293-0511-9

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इसमें मानव जीवन को सात्त्विकता से सजानेवाले,बहुमूल्य स्वर्णसूत्रों का संग्रह किया गया है।

Upkar Ka badala-A Hindi Book by Gitapress Gorakhpur- उपकार का बदला - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उपकार का बदला

घटना 1957 की है मैं, मेरे पिता जी, मेरी माता जी और मेरा छोटा भाई–हम सब जीप में बोरदी गांव गये थे। दोपहर को वहीं रसोई बनाकर वहीं भोजन किया और वहाँ के दृश्य देखे। स्थान बहुत ही पसन्द आया । शाम को लगभग सात बजे वहां से वापस चले। लगभग आधा रास्ता कट चुका था। रास्ते में एक नाला पड़ता था, उस नाले को पार करती हुई जीप बीच में अटक गई। मेरे पिताजी स्वयं ही जीप चला रहे थे। उन्होंने इंजन खोलकर खाई देखने का प्रयत्न किया, पर सब व्यर्थ। अब क्या किया जाए। पिताजी एक टार्च लेकर सहायता प्राप्त करने के लिये चले। होते-होते पौन घंटा बीत गया। पर पिता जी के लौटने के चिन्ह नहीं दिखाई दिये। हम सब बहुत घबराए। इतने में दूर कुछ प्रकाश दिखाई दिया। दो-तीन लालटेनें थीं। फिर कुछ आदमी लाठी और लालटेनें हाथों में लिये आते दिखाई दिये। वे बिलकुल पास आ गये; तब पता चला कि पिताजी इनमें नहीं है इन आदमियों में से एक ने कहा, ‘‘सरदार ! भाग खुल गये; जान पड़ता है। अपने आप ही सामने से शिकार  मुँह में आ रहा है लगता है शगुन अच्छे हुए।’
‘हां रे ऐसा ही तो लगता है......’’

बातचीत को सुनकर हम लोग दंग रह गये। यह तो लुटेरों की टोली थी। इतने में उस सरदार ने मुझसे पूछा-‘क्यों रे छोकरे तू जानता है कि हम कौन हैं ? मैं कालिया हूँ।’
मैंने कहा देखो भाइयो हमारी जीप खराब हो गई है, मेरे पिता जी मदद के लिये गये हैं।’
‘अब तो तेरा डोकरा मदद के लिए आ गया है, क्यों ? तो मुझे अब उतावली करनी पड़ेगी, यों कहकर उसने मेरी बहन की ओर देखकर कहा-‘ये छोरी तेरे ये गहने उतार दे, जल्दी कर। अभी तो हमें लम्बी राह काटनी है।’ इतने में पिता जी हाथों में टार्च लिये अकेले ही आते दिखायी दिये।

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