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भीतर कहीं (कविता-संग्रह)

मुनि अजितसागर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 10522
आईएसबीएन :9788126320547

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कोई वीतरागी दिगम्बर मुद्राधारी महाव्रती साधू जब अपनी संयम साधना के साथ आत्मस्थ/ध्यानस्थ होने का नित-नव अभ्यास प्रारम्भ करता है,

कोई वीतरागी दिगम्बर मुद्राधारी महाव्रती साधू जब अपनी संयम साधना के साथ आत्मस्थ/ध्यानस्थ होने का नित-नव अभ्यास प्रारम्भ करता है, तत्त्वों का चिन्तन मनन करता है तब उसके भीतर जागृत हो रहीं अनुभूतियाँ उसे काव्यसृजन के लिए प्रेरित करती हैं. यही कारण है कि मुनिश्री के काव्य में श्रृद्धा, अनुभूति और लौकिक यथार्थ का स्फुरण सर्वत्र परिलक्षित होता है. किसी भी सन्मार्गी-सहृदय के जीवन में यह एक सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया हो सकती है.

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