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सहेला रे

मृणाल पाण्डे

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 11005
आईएसबीएन :9788183618557

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारतीय संगीत का एक दौर रहा है जब संगीत के प्रस्तोता नहीं, साधक हुआ करते थे। वे अपने लिए गाते थे और सुननेवाले उनके स्वरों को प्रसाद कि तरह ग्रहण करते थे। ऐसा नहीं कि आज के गायकों-कलाकारों की तरह वे सेलेब्रिटी नहीं थे, वे शायद उससे भी ज्यादा कुछ थे, लेकिन कुरुचि के आक्रमणों से वे इतनी दूर हुआ करते थे जैसे पापाचारी देहधारियों से दूर कहीं देवता रहें। बाजार के इशारों पर न उनके अपने पैमाने झुकते थे, न उनकी वह स्वर-शुचिता जिसे वे अपने लिए तय करते थे। उनका बाजार भी गलियों-कुचों में फैला आज-सा सीमाहीन बाजार नहीं था, वह सुरुचि का एक किला था जिसमे अच्छे कानवाले ही प्रवेश पा सकते थे। मृणाल पाण्डे का यह उपन्यास टुकड़ों-दुकड़ों में उसी दुनिया का एक पूरा चित्र खींचता है। केंद्र में है पहाड़ पर अंग्रेज बाप से जन्मी अंजलिबाई और उसकी माँ हीरा। दोनों अपने वक्तों की बड़ी और मशहूर गानेवालियाँ। न सिर्फ गानेवालियाँ बल्कि खूबसूरती और सभ्याचार में अपनी मिशाल आप। पहाड़ की बेटी हीरा एक अंग्रेज अफसर एडवर्ड के. हिवेट की नजर को भायी तो उसने उस समय के अंग्रेज अफसरों कि अपनी ताकत का इस्तेमाल करते हुए उसे अपने घर बिठा लिया और एक बेटी को जन्म दिया, नाम रखा विक्टोरिया मसीह। हिवेट की लाश एक दिन जंगलों में पाई गई और नाज-नखरों में पल रही विक्टोरिया अनाथ हो गई। शरण मिली बनारस में जो संगीत का और संगीत के पारखियों का गढ़ था। लेकिन यह कहानी उपन्यासकार को कहीं लिखी हुई नहीं मिली, बातें करके यहाँ-वहाँ बिखरी लिखित-मौखिक जानकारियों को इकटठा करके पूरा किया है। इस तरह पत्र-शैली में लिखा गया यह उपन्यास कुछ-कुछ जासूसी उपन्यास जैसा सुख भी देता है। मृणाल पाण्डे अंग्रेजी में भी लिखती हैं और हिंदी में भी। इस उपन्यास में उन्होंने जिस गद्य को संभव किया है वह अनूठा है। वह सिर्फ कहानी नहीं कहता, अपना पक्ष भी रखता चलता है और विपक्ष कि पहचान करके उसे धराशायी भी करता है। इस कथा को पढ़कर संगीत के एक स्वर्ण-काल कि स्मृति उदास करती है और जहाँ खड़े होकर कथाकार यह कहैं बताती है, वहां से उस वक्त से कोफ़्त भी होती है जिसके चलते यह सब हुआ, या होता है।

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