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गीता प्रेस, गोरखपुर >> बाल-अमृत-वचन

बाल-अमृत-वचन

गीताप्रेस

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :30
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1144
आईएसबीएन :81-293-0624-7

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प्रस्तुत है बाल-अमृत-वचन....

Baal Amrit Vachan a hindi book by Gitapress - बाल-अमृत-वचन - गीताप्रेस

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ॐ श्रीपरमात्मने नमः

बाल-अमृत-वचन
विद्या

विद्या धन उद्यम बिना कहौ जु पावै कौन।
बिना डुलाये ना मिलै, ज्यौं पंखा को पौन।।
करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।
रसरी आवत जात तें, सिलपर परत निसान।।
सरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरब बात।
ज्यों खरचैं त्यों-त्यों बढ़ै, बिन खरचे घटि जात।।
नहीं रूप कछु रूप है, विद्या रूप निधान।
अधिक पूजियत रूप तें, बिना रूप विद्वान।।
विद्या धन सब धनन तें, अति उत्तम ठहराइ।
उत्तम विद्या लीजिये, जदपि नीच पै होय।
पड़ो अपावन ठौर में, कंचन तजत न कोय।।
पढ़िबे में मन दीजिये, विद्या हो भरपूर।
गुरु की सेवा कीजिये, मन तें छल करि दूर।।
नहिं धन धन है बधु कहैं, विद्या वित्त अनूप।
चोरि सके नहिं चोर हू, छोरि सकै नहिं भूप।।
धन तें विद्या धन बड़ो, रहत पास सब काल।
देय जितो बाढ़ै तितो, छोर न सकत नृपाल।।
विद्यावंतहिं चाहिये, पहिले धर्मविचार।
तासों दोऊ लोक को, सधत सुद्ध ब्यवहार।।
विद्या पढ़ि करतो फिरै, औरन को अपमान।
नारायन विद्या नहीं, ताहिए अविद्या जान।।
विद्या तें बाढ़त विनय, नै तें बाढ़त प्रेम।
प्रेम तें हरि कौ मिलन, यह विद्या कौ नेम।।


दीन-दु:खियों के साथ व्यवहार



दुर्बल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की साँस से, लोह भसस होइ जाय।।
दुखिया जनि कोउ दूखवै, दुखवै अति दुख होय।
दुखिया रोइ पुकारि है, सब गुड़ माटी होय।।
हरी डाल न तोडिये, लागे छूरा बान।
दास मूलका यों कहै, अपना-सा जिव जान।।
जे दुखिया संसार में खोवो तिनका दु:ख।
दरिदर सौंप मलूक को, लोगन दीजे सुक्ख।।
जननी सदा सँभारती, लखि रोगी संतान।
तैसेहि दीनहि नित लखैं दीनबंधु भगवान।।
जैसे जननिहि अधिक प्रिय रोगी निर्बल पूत।
तैसे ही भगवान को दीन-प्यारे पूत*।।
दुखियन को नहिं कछु गनै, देहि उनहिं संताप।
ते प्रभु के अति कोप तें भोगैं नित्य त्रिताप।।
जे दुखियन कौं देहि सुख, सदा करैं सुचि प्रीत।
ते अति ही प्रिय राम के, ज्यों जननिहि सुत मीत।।


दया



जहाँ दया तहँ धर्म है, जहाँ लोभ तहँ पाप।
जहाँ क्रोध तहँ काल है, जहाँ क्षमा तहँ आप।।
दया हृदय में राखिये, तू क्यों निरदय होय।
साईं के सब जीव हैं, कीड़ी कुंजर सोय।।
बड़े दीन के दुख सुने, लेत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कब हुती, कहु रहीम पहिचानि।।
दया धरम हिरदै बसै, बोलै अमृत बैन।
तेई ऊँचे जानिये, जिनके नीचे नैन।।
रक्षा करी न जीव की, दियो न आदर दान।
नारायन ता पुरुष सों, रूख भलौ फलवान।।
निज-पर-अरि-हितु की न सुधि, द्रवै हृदय दुख देखि।
लहै न सुख दुख हरे बिनु, दयावंत सो लेखि।।
देखि दुखी जन मन बिकल, गने न निज-पर कोइ।
निज सर्वस दै दुख हरै, दया कहावत सोइ।।
दीनहि नहिं मानै कबहुँ, अपने तें कछु हीन।
निज दुख सम लखि, दुख हरै सोइ दया-रस लीन।।


परोपकार



बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागैं अति दूर।।
तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियत न पानि।
कह रहीम परकाज हित, संपति सुचहिं सुजान।।
वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारी के लगे ज्यों मेहँदी को रंग।।
रहिमन पर उपकार के, करत न पारै बीच।
माँस दियो सिबि भूपने दीनों हाड़ दधीच।।
जे गरीब पर हित करे ते रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।।
कियो न मानत और को, परिहत करत न आप।
नारायन ता पुरुष को, मुख देखेहू पाप।।
तन मन धन सों कीजिये, निसिदन पर-उपकार।
चहैं न कबहुँ कृतज्ञत, सत्य सो पर-उपकार।।
करै न कछु अभिमान मन, करै सहज उपचार।
‘पर’ को ‘निज’ मानै सदा करै अमित उपकार।।
याद करौ नित जो कबहुँ करयो जो पर-उपकार।
याद करौ जौ कबहुँ कोउ कीन्हों तव उपकार।।


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