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भगवत्प्राप्ति में भाव की प्रधानता

जयदयाल गोयन्दका

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :156
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1178
आईएसबीएन :00000

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इसमें भगवत्प्राप्ति के लिए भाव की प्रधानता होना आवश्यक है...

Bhagavatprapti Mein Bhav Ki Pradhanta - A Hindi Book by Jaidayal Goyandaka - भगवत्प्राप्ति में भाव की प्रधानता - जयदयाल गोयन्दका

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

निवेदन

परम श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका ने अपने जीवनकाल में स्थान-स्थान पर बहुत ही भगवद्विषयक प्रवचन दिये, उनका एकमात्र उद्देश्य था कि हम लोगों का, मनुष्यमात्रका उद्धार हो। इन प्रवचनों के अंतर्गत एक बहुत ही रहस्यमय बात पढ़ी गयी। उसमें बताया गया कि भगवान् रामचन्द्रजी जब अन्तर्धान होने लगे तो अयोध्यावासियों को सरयू की धार में गोता लगवाकर अपने साथ परमधाम ले गये। भगवान् श्रीकृष्ण ने ऐसे (एक प्रकार की घास) की धार से यदुवंशियों का उद्धार किया। इसी प्रकार मैं (गोयन्दकाजी) पुस्तकों एवं सत्संग द्वारा मनुष्यों का उद्धार करता हूँ। यह बात पढ़- सुनकर हमारे रोमाञ्च हो जाना चाहिये। ऐसे अधिकार-प्राप्त महापुरुष के प्रवचन हमें सुनने-पढ़ने को मिल जायँ, यह हमारा कितना अहोभाग्य है। ऐसे प्रवचनों को पढ़कर, मनन कर जीवन में लाकर हम केवल अपना उद्धार ही नहीं, अनेक भाई-बहिनों का उद्धार करानें सहायक हो सकते हैं। उन्हीं महापुरुष के समय-समयपर दिये गये हुए प्रवचनों को कई सज्जनों ने लिख लिया एवं टेप कर लिया।
भाई-बहिनों को उन प्रवचनों से लाभ मिल जाय, इस हेतु उन प्रवचनों को पुस्तकों का रूप देकर प्रकाशित किया जा रहा है। हमें आशा है कि आपलोग इन प्रवचनों को मनोयोगपूर्वक पढ़कर लाभ उठायेंगे।

 -प्रकाशक

भगवत्प्राप्ति में भाव की प्रधानता


प्रत्येक प्राणी के प्रति अपना भाव अच्छा रखना चाहिये, अपनी प्रत्येक क्रिया में भाव अच्छा रखना चाहिये, प्रत्येक पदार्थ में भी अपना भाव अच्छा रखना चाहिये। अपना साधन भी बहुत उत्तम भावयुक्त होना चाहिये। यदि नाम-जप भाव से किया जाय तो परमात्मा की प्राप्ति बहुत जल्दी हो सकती है। परमात्मा के स्वरूप का ध्यान भी यदि भावयुक्त हो कर किया जाय तो उससे भी बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। इसी प्रकार  अपने नित्यकर्म यदि भाव-सहित किये जायँ तो उनसे बहुत ज्यादा लाभ हो सकता है।

प्रत्येक यज्ञोपवीतधारी को नित्यप्रति शुक्ल यजुर्वेद 40 वें अध्याय (ईशावास्योपनिषद्) –का या 31 वें अध्याय (पुरुषसूक्त)-का अर्थ और भावसहित पाठ करने से यज्ञोपवीती होने की सफलता प्राप्त हो जाती है। ऐसे ही नित्य प्रातः और सायं संध्या एवं गायत्री-मन्त्र का जप यदि भावयुक्त होकर किया जाय तो बहुत ज्यादा लाभ हो सकता है। गायत्री-मन्त्रमें भगवान् स्तुति (गुणगान) एवं उनके स्वरूप और ध्यान का वर्ण है तथा भगवान् से आत्मा के कल्याण की प्रार्थना है। एक ही मन्त्र में स्तुति, ध्यान और प्रार्थना भी है। ऐसे वेद मन्त्र वेदों में बहुत कम हैं। इसीलिये सभी मन्त्रों में गायत्री-मन्त्रको उत्तम माना गया है। अतः गायत्री-मन्त्र का जप यदि अर्थ और भाव समझकर किया जाय तो ‘गायत्री-मन्त्र’ से ही परम कल्याण हो सकता है। महाभारत के शान्तिपर्व में गायत्री-मन्त्र के जपकी एक कथा आती है—

पिप्पलाद—वंश में एक तपस्वी ब्राह्मण था। उसने गायत्री-मन्त्र का जप किया तो गायत्री ने प्रकट होकर दर्शन दिया। जब उसका मृत्युकाल आया तो मृत्यु, काल और यमराज सब उसके आश्रम में उपस्थित हुए; किंतु उनमें शक्ति नहीं थी कि उसके प्राणों को निकाल कर ले जा सकें। गायत्री-मन्त्र के जप से गायत्री देवी खुश हुईं और बोलीं कि तू वरदान माँग। उसने कहा कि मुझे गायत्री-मन्त्र का जप ही सबसे बढ़कर लगता है, अतः मैं जप ही करता रहूँ। उसके जप को देखकर राजा इक्ष्वाकु भी वहाँ पहुँचे और बोले कि आप मुझसे कोई चीज माँग लें, मैं आपको देने के लिये तैयार हूँ। इसपर उसने कहा—‘राजन् ! आपको मुझसे कुछ माँगना हो तो माँग लें, मैं अपने तप के बल से सब कुछ दे सकता हूँ।’

(तात्पर्य यह है कि अगर वे तपस्वी ब्राह्मण चाहें तो ब्रह्मा और शिव की पदवी भी दे सकते हैं।) राजा ने कहा कि ‘आप अपने गायत्री-मन्त्र-जप के तपरूप फल को दे दें।’ तब ब्राह्मण ने कहा—‘लो, दे दिया।’ फिर वे इन्कार करने लगे कि मैं क्षत्रिय हूँ, आप ब्रह्मण हैं। दान लेना मेरा कर्म नहीं। ब्राह्मणने कहा—अगर दान नहीं लेना था तो तुमने माँगा क्यों ? अब तो मैंने कह दिया, इसलिए तुम्हें लेना ही होगा। न्याय करवाया गया तो धर्मराज ने यही न्याय किया कि आप बोलकर बँध गये, अब आपको लेना ही पड़ेगा। राजा को लेना पड़ा। पर लेने से दोनों ब्रह्मणलोक गये और ब्रह्मा के शरीर में प्रवेश कर ब्रह्मतेज को प्राप्त हो गये।

इसी तरह संध्या का बड़ा बारी प्रभाव बताया गया है। संध्या-वन्दन सूर्य की उपासना है। जरत्कारु ऋषि सूर्य की उपासना किया करते थे। जबतक उनकी उपासना पूरी नहीं हो जाती, उनके प्रभाव से सूर्य अस्ताचल को नहीं जाते थे। एक दिन सूर्यास्त का समय हो गया।  उस समय वे सो रहे थे। उनकी स्त्री ने उन्हें जगा दिया और कहा कि सूर्य अस्त होनेवाले हैं, आप उठें, कहीं आपका नियम-भंग न हो जाय। इसपर वे बोले—मेरा नियम कैसे भंग होगा ? जब तक मैं सूर्य को अर्ध्य नहीं दूँगा, तबतक सूर्य अस्ताचल कैसे चले जायँगे ? तुमने मेरे प्रभाव को बिना जाने ही मुझे उठा दिया।

(यह कथा महाभारत के आदि पर्व में आती है।) सूर्योदय से सूर्यास्त तक न जाने कितनी बार हमें सूर्य की स्मृति हो जाती है कि देखें, कहीं सूर्य अस्त तो नहीं हो गया—हमें संध्या करनी है। इस प्रकार की स्मृति उनकी उपासना ही है। इस उपासना से सूर्यभगवान् पर असर पड़ता है कि यह संध्योपासना के ठीक समयपर मुझे याद कर लेता है: यह मेरा उपासक है संध्या के मन्त्रों की विधि है, उस विधि का अर्थ समझें कि प्रत्येक मन्त्र में क्या बात है ? प्रत्येक मन्त्र में चार बातें हैं कि यह अमुक छन्द है, इसका अभिप्राय यह है। छन्द का ज्ञान होना चाहिये। यह एक नम्बर की बात ही है। इस प्रकार करने से वह उच्चारण शुद्ध माना जाता है। शुद्ध उच्चारण करने से ही उन मन्त्रों का विशेष लाभ होता है। उस मन्त्र में जिस देवता की उपासना, स्तुति-प्रार्थना या ध्यान है उस देवता का ज्ञान होना चाहिये। मान लो मन्त्र तो है ब्रह्माजी का और उपासना कर रहे हैं शिवजीकी तो शिवजी महाराज समझेंगे कि यह मूर्ख आदमी है।

 हम मन्त्र तो देवी के सामने बोल रहे हैं और मन्त्र है विष्णुभगवान् का, यह व्यतिक्रम नहीं होना चाहिये। अतः जिस देवता की उपासना उसमें है, उसी देवता का ध्यान और पूजा आदि करना चाहिये। यह दूसरी बात है। तीसरी बात है —ऋषि यानी इस मन्त्र का ऋषि कौन है ? मन्त्र के भाव, अर्थ तथा रहस्य को जिस ऋषि ने प्रथम जाना, वही उसका ऋषि है—‘मन्त्रद्रष्टारो ऋषयः।’ ऋषिकी स्मृति होने से ऋषि प्रसन्न होते हैं। चौथी बात है यह मन्त्र इस जगह किस विषय में प्रयोग करने कि लिये है, उस विषयका ज्ञान होना चाहिए। जैसे गायत्री-मन्त्र का सूर्य भगवान् को अर्घ्य देते समय, प्राणायाम करते समय तथा माला जपते समय प्रयोग करते हैं। मन्त्र का विषय समझकर प्रयोग किया जाय तो विशेष लाभ होता है। मन्त्र का अर्थ और विधि समझकर संध्या की जाय तो उस संध्या का बड़ा भारी माहात्म्य है। हम सब लोग संध्या करते हैं, किंतु इस बात को ठीक से समझते नहीं, इसलिये उसका पूरा फल नहीं होता। जैसे एक अदमी हलवा बनाना चाहे। घीसे आटा सेककर पानी मिलाकर चीनी डालनी चाहिये, पर वह आदमी मूर्खता से आटा डालने की जगह चीनी डाल दे। घीसे चीनी सेंके तो चीनी तो गलेगी नहीं। हलवा की जगह कोई और चीज बनेगी। इस प्रकार यज्ञोपवीत धारी को इन तीन बातों का पालन करना चाहिये—(1) अर्थ और भावसहित संध्योपासन, (2) गायत्री-जप, (3) वेदमन्त्र का पाठ-जो अध्याय बहुत महत्त्वपूर्ण हो उसका पाठ।

 जैसे मैंने आपको ईशावास्योपनिषद् एवं पुरुषसूक्त बताया। पूरे अध्यायका, नहीं तो आधे अध्याय का, जितना हो सकते उतने का ही पाठ करें। यदि उसका अर्थ, भाव, तत्त्व, रहस्य समझकर करे तो इतना समय नहीं लगेगा, उसका जीवन बहुत ही जल्दी बदल जाना चाहिये। जिनका यज्ञोपवीत हो गया है वे संध्या, गायत्री तो करते ही होंगे। अगर नहीं करते तो करनी चाहिये। अन्यथा उनके लिये प्रायश्चित है। ब्राह्मण होकर यदि संध्या नहीं करे तो शास्त्रानुसार ब्रह्मणों को चाहिये कि उस संध्याविहीन व्यक्ति को ब्राह्मण-जाति से निकाल दें यानी जाति से बहिष्कृत कर दें। यही उसके लिये प्रायश्चित है। इसी तरह पाठ की बात है। जैसे गीता-रामायण का पाठ है।

 पाठ करते समय उनका अर्थ और भाव समझना चाहिये और उसे अपने हृदय में धारण करना चाहिये। इस प्रकार करने से गीताजी का एक श्लोक ही उसका कल्याण कर देगा और यदि कोई प्रतिदिन भाव और अर्थ समझकर एक अध्याय का पाठ करे और उसे धारण करता जाय तो उसकी बात ही क्या है ? पाठ करते समय यदि नींद आ जाय तो उस पाठ का विशेष महत्व नहीं है। पाठ तो करता है पर अर्थ का ज्ञान नहीं, भाव की बात तो दूर रही। शब्दार्थ का भी ज्ञान नहीं तो उसको साधारण लाभ ही होना चाहिये। न्याय तो यही बात कहता है। उसका भाव समझकर मुग्ध होता रहे तो प्रत्यक्ष में भी आनन्द होता है और परिणाम-स्वरूप उसे बहुत शीघ्र ही परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।


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