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शायरी के नये मोड़-4

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1207
आईएसबीएन :81-263-0022-1

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प्रस्तुत है शेष्ठ शायरों की श्रेष्ठ रचनाएँ....

Shairi ke naye mode Chautha mode

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भारत-भूमि-हित मृत्यु का आलिंगन करने वाले शहीदों की पवित्र स्मृति में

मेरे हाथों से मेरा क़लम छीन लो
और मुझे एक बन्दूक़ दे दो
मैं तुम्हारी सफ़ों में तुम्हारी तरह
अपने दुश्मन से लड़ने चलूँगा

सरदार जाफ़री


मेरे गर्दे-राह, माहो-अंजुम एक दिन
आस्माँ-ता-आस्माँ, अज़्मे-सफ़र रखता हूँ मैं
ज़िन्दगी क्या है, मुसल्लसिल शौक़े-पैहम इज़्तराब
हर क़दम पहले क़दम से तेज़तर रखता हूँ मैं


जाँ-निसार अख़्तर


जागे हैं अफ़लास के मारे, उट्ठे हैं बेबस दुःखियारे
सीनों में तूफ़ाँ का तलातुम, आँखों में बिजली के शरारे
रौंदी-कुचली अवाज़ों के शोर से धरती गूँज उठी है
दुनिया के अन्याय नगर में हक़ की पहली गूँज उठी है


साहिर लुधियानवी

सरदार जाफ़री


परिचय


अली सरदार जाफ़री प्रगतिशील शाइरोंके नेता हैं। वे अपनी शाइराना और वास्तविक ज़िन्दगी में साम्यवादी विचारों के प्रबल समर्थक हैं।

उनके रोम-रोम से मज़दूर-किसान, जनता एवं शोषित वर्ग की भलाई के विचार प्रस्फुटित होते रहते हैं। अत्याचारियों एवं शोषकों के लिए उनका क़लम आग उग़लता रहता है। उनकी वाणी से स्फुलिंग उड़ते हुए प्रतीत होते हैं। उनका हर साँस और हर क्षण जनता के लिए रिज़र्व है। वे साम्यवादी पताका लिये हुए प्रगतिशील शाइरों में सबसे आगे नज़र आते हैं। उन्होंने रूस, लेनिन और इस्तालिनका जिस श्रद्धा-भक्ति और जोशो-ख़रोश से कीर्तन किया है, उसके समक्ष सौदा, ज़ौक़ आदि शाइरोंके क़सीदे भी माँद नज़र आते हैं। उन्होंने धनसत्तावादियों और भ्रष्टाचारियों का ऐसे नग्न रूप में चित्रण किया है, कि उनके कुत्सित रूप से ग्लानि होने लगती है।

विधाताका विचित्र करिश्मा कहिए या क़ुदरतकी सितमज़रीफ़ी समझिये कि रसदार जाफ़री-जैसा आग्नेय एवं क्रान्तिकारी शाइर एक धर्म-भीरु कट्टर मुस्लिम ख़ानदान में 29 नवम्बर 1913 ई. को उत्तर प्रदेशीय गोण्डा ज़िले के बलरामपुर में जन्मा। परम्परानुसार उसे क़ुरान पढ़ाया गया और मज़हबी संस्कारों एवं विश्वासों में उसे बाँधने का प्रयास किया गया। परिणाम-स्वरूप सरदार जाफ़री ने भी शाइरी की बिस्मिल्लाह मर्सियों से की। लेकिन सरदार जाफ़री-जैसा सीमाबी स्वभाववाला मज़हब के संकुचित क्षेत्र में कब तक कुलाँचे मारता। वह मज़हबी बन्धनोंसे भाग निकला-


दौरो-हरम1 भी कूचए-जानाँ में2 आए थे
पर शुक्र है कि बढ़ गये दामन बचाके हम

असग़र गोण्डवी


अपने उस वातावरण के संबंध में स्वयं सरदार जाफ़री लिखते हैं—
बलरामपुर रियासत में ‘‘मेरे चचा बड़े ओहदेपर और बालिद छोटे ओहदेपर थे।.....हमारा ख़ानदान बड़ा ईमानदार, मज़हब का पाबन्द और परहेज़गार था....मेरे चचा और वालिद ने कभी रिश्वत नहीं ली। दौलतमन्दी की शुहरत (धनवान् प्रसिद्ध होने) के बावजूद सब्रो-क़नात (धैर्य और सन्तोष) की ज़िन्दगी गुज़ारी। मेरी माँ के सारे ज़ेवर बिक गए मगर किसी को कानोकान यह ख़बर न हुई कि घरमें इफ़लास (ग़रीबी) है। वे बड़े खुलूस (लगन एवं ईमानदारी) से मुलाज़मत करते थे और हर मौक़े पर नमक हलाल होने का सुबूत देते थे।’’

सरदार जाफ़री का ख़ानदान नमाज़-रोजे का बहुत पाबन्द था। मुहर्रम के दिनों मे मुहर्रम सम्बन्धी सभी फ़र्ज लगन के साथ निभाए जाते थे। उनके यहाँ मर्सियोंकी बड़ी-बड़ी महफिलों के आयोजन होते थे, जिनमें ख्यातिप्राप्त मर्सिये-गो सम्मिलित होते थे। सरदार के किशोर हृदय पर भी इस वातावरण का प्रभाव पड़ा। फ़र्माते हैं—

‘‘शायद इसीका असर था कि मैंने 15-16 वर्श की उम्र में ख़ुद मर्सिये कहने शुरू कर दिये थे और मर्सिये का असर आज भी मेरी शाइरी पर बाक़ी है।....जब मैंने पहला मर्सिया कहा—
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1.    मन्दिर-मस्जिद, 2. प्यारके मार्गमें।


आता है कौन शमए-इमामत1 लिये हुए ?
अपनी जलौमें2 फौज़े-सदाक़त3 लिये हुए
..................................
...........................................
अल्लाहरे हुस्न फ़ात्माके माहताबका4
ज़र्रोंमें5 छुपता फिरता है नूर आफ़ताबका


इसे मिम्बरपर बैठ कर पढ़ा तो वालिद और चचाने गले लगाया। और माँ ने सरपर हाथ रखकर दुआएँ दीं। मेरे चचा बार-बार मर्सियेके आख़िरी दो मिसरों को पढ़ते थे और रोते थे।


अकबरको अपने पहलुए-ग़ममें सुलाऊँगी
असग़रको अपनी गोदमें झूला झुलाऊँगी


इसी कामयाबी से हिम्मत बहुत बढ़ी और मैंने पंद्रह-बीस दिन में एक मर्सिया और कह लिया। वह इस तरह शुरू होता था—


आता है इब्ने-फ़ातए6 ख़ैबर जलालमें7
हलचल है शर्क़ो-ग़र्बो8-जनूबो-शुमालमें9
इक तहलका है वादी-ओ-दश्नो-जबालमें10
भागा है आफ़ताब भी बुर्जे-ज़वालमें11

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1.    नेतृत्वकी मशाल, 2. बागडोरमें, कमानमें, 3. सत्यपर मिटनेवाली सेना, 4. हज़रत मुहम्मदकी पुत्री फ़ात्माके पुत्रका सौन्दर्य, 5. कणोंमें, 6. विजेता-पुत्र, 7. आवेशमें, 8. पूर्व-पश्चिम, 9. दक्षिण-उत्तर में, 10. घाटी, रास्से और पर्वतों में, 11. पतन के गुम्बद में।


करवट बदल रही है ज़मीं दर्दो-कर्बसे
हिलता है दश्त1 घोड़े की टापों की ज़र्बसे2


‘‘मुझे अब तक याद है कि आख़िरी मिसरेके काफ़ियेको दाद मिली। मैं इस उम्र में मर्सियाख़्वानी के अलावा हदीसख़्वानी3 भी करने लगा था। इसलिए क़ुरआनकी बहुत-सी आयतें ज़बानी याद थीं। इस सबका मजमूई असर (सामूहिक प्रभाव) मुझ पर यह था कि हक़ (अधिकारः और सदाक़त (सचाई) के लिए जानकी बाज़ी लगा देना इंसानियतकी सबसे बड़ी दलील (मानवता का मुख्य कर्तव्य) है।.....इस ज़माने में चन्द सवालात ने मुझे बेचैन किया और चन्द वाक़ियात (कुछ घटनाओं) ने मेरी ज़िन्दगीमें बहुत बड़ा इन्क़िलाब पैदा कर दिया।...इस सवालने मुझे हमेशा बेचैन रखा कि यह दुनिया ऐसी क्यों है ! और इसकी इब्दता (शुरुआत) मेरे बचपन में ही हो गयी थी।

‘‘मैंने एशयायी इफ़लास (दरिद्रता) के बद्तरीन (निकृष्ट) नमूने देखे हैं। बलरामपुर रियासतके गाँवों में पहले और अपने घरमें बाद को। मुझे शिकार और घोड़ों को सवारी का बेइन्तहा शौक़ था। और बन्दूक़ लिये गाँव-गाँव और जंगल-जंगल मारा फिरता था, और रियासतकी तहसीलों और जेलदारियों में ठहरता था। इस तरह मैं अवधके देहातकी ज़िन्दगीसे आशना (परिचित) हुआ।...मेरी यादमें इसकी इन्तहाई भयानक तस्वीरें महफ़ूज़ हैं। गरमियोंकी चिलचिलाती हुई धूपमें झुके हुए किसान, जिनकी पीठोंपर ईंटें लदी हुई हैं, उनको जूते मारे जा रहे हैं। और वे दुहाइयाँ दे रहे हैं। पेड़ों की शाखों में बालों से लटकी हुई औरतें, पतली-पतली सूखी हुई टाँगों और बाहर निकले हुए पेटों के बच्चे बड़ी-बड़ी सियाह, मगर बुझी हुई आँखें।
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1. मार्ग (रणक्षेत्र), 2. चोटसे, 3. हज़रत मुहम्मदकी कही हुई बातोंका संकलन।

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