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शायरी के नये मोड़-2

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1209
आईएसबीएन :81-263-0025-6

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ शाइरों की श्रेष्ठ रचनाएँ....

Shairi ke naye mode(2)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक शाइरी

‘शाइरी के नये दौर’ और ‘नये मोड़’ के भागों में आधुनिक शाइरी के विविध अंगों का विवरण दिया जा रहा है। इनसे पूर्वके ‘शेरो-शाइरी’ और ‘शेरो-सुख़न’ के पाँच भागों में ग़ज़ल का क्रमबद्ध इतिहास, प्रारम्भ से अब तक के लब्ध प्रतिष्ठित ग़ज़ल-गो शाइरोंका जीवन-परिचय एवं कलाम, ग़ज़ल पर तुलनात्मक विवेचन दिया जा चुका है।
नज़्म और मर्सियाका इतिहास ‘शाइरीके नये दौर’ के द्वितीय दौर के ‘प्राथमिक’ में आ गया है। प्रस्तुत मोड़ में ग़ज़लों, नज़्मों के अतिरिक़्तक़तोंका विशेष रूपसे चुनाव किया गया है।
फ़ारसी और उर्दूमें ग़ज़लकी तरह रुबाई कहनेका रिवाज़ भी पुराना है। उमरखैयाम और हाफ़िज़की रूबाइअत फ़ारसीकी अमर निधि हैं। विश्वकी अनेक भाषाओंमें उनके बहुत सुरुचिपूर्ण संकलन प्रकाशित हुए हैं और उन्हें अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति उत्तरोत्तर मिलती जा रही है।

उर्दूमें भी—अनीस लखनवी, शाद अज़ीमाबादी, जोश मलीहाबादी, आसी गाजीपुरी, फ़िराक़ गोरखपुरी, तिलोकचन्द महरूम, अमजद हैदराबादी, यगाना चंगेज़ी, आसीउदनी वगैरहके रूबाइयों के संकलन हमारी नज़रोंसे गुजरे हैं1। रूबाइयोंकी लोकप्रियता और उपयोगिता यहाँ तक बढ़ी हुई है कि काफ़ी शाइर, ग़ज़लों और नज़्मोंके अतिरिक्त ख़ास तौर पर रूबाइयाँ कहते हैं और उनके संकलन प्रकाशित कराते हैं। यहाँ तक कि जो
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1. ‘अनीस’ के अतिरिक्त उक्त शाइरोंकी चुनी हुई रूबाइयोंके नमूने खेरो-सुखनके पाँचों भागों और शाइरीके नये दौर और नये मोड़में भी दिये जायेंगे।

शाइर रूबाइआ़त कहनेमें विशेष अभ्यास नहीं रखते, उनमें-से भी अधिकांश शाइर मुशाअरों में अपना कलाम पढ़नेसे पहले दो-एक रुबाई पेश करते हैं और श्रोता बहुत चावसे सुनते हैं।
उर्दूके अनुकरणोंमें कुछ हिन्दी-कवि-सम्मेलनोंमें कविता-पाठ करनेसे पूर्व रूबाइयाँ पढ़ने लगे हैं और हिन्दी भाषा-भाषी भी बहुत दिलचस्पीसे सुनते हैं।

क़ता भी रुबाईकी तरह चार मिसरों का होता है। केवल इतना अंतर है कि रुबाईके पहले, दूसरे और चौथे मिसरे समान क़ाफ़िये-रदीफ़ में होते हैं और उनकी बहर ग़ज़ल से भिन्न होती है। क़ता ग़ज़लकी प्रायः सभी बरहोंमें कहा जा सकता है और उसके दूसरे चौथे मिसरे समान क़ाफ़िये-रदीफ़में होते हैं और जब क़तेका पहला शेर मतला बन जाता है। तब उसके भी पहले, दूसरे और चौथे मिसरे समान क़ाफ़िये-रदीफ़में हो जाते हैं। बहुत अच्छी चुनी हुई रूबाइयाँ शेरो-सुख़नके 2,3,4 भागोंमें और शाइरी के नये दौरके दोनों दौरोंमें दी जा चुकी है और आगेके हिस्सोंमें भी प्रसंगतानुसार उल्लेख होता रहेगा। क़ते प्रस्तुत मोड़में काफ़ी दिये जा रहे हैं, फिर भी दोनोंका अन्तर समझने के लिए यहाँ एक-एक नमूना दिया जा रहा है।

रुबाइ—

कब कोई जहाँमें छूटता है ग़मसे ?
दिल आख़िरकार टूटता है ग़मसे
सद्मातसे खुलती हैं बशरकी आँखें
फोड़ा ग़फ़लतका फूटता है ग़मसे

महरूम

उक्त चार मिसरोंमें पहला, दूसरा और चौथा मिसराक़समान क़ाफ़िये और रदीफ़में है।

क़तअ़---

ज़िन्दगीकी तवील राहोंमें1
मुतलक़न2 पेचो-ख़म नहीं होंगे
एक ऐसा भी वक़्त आयेगा
जब यह दैरो-हरम3 नहीं होंगे

नरेशकुमार शाद

उक्त क़ते में दूसरा-चौथा मिसरा समान क़ाफ़िये-रदीफ़में है। अगर क़तेका पहला शेर मतला बन जाये तो उसके पहले, दूसरे और चौथे मिसरे भी समान क़ाफ़िये-रदीफ़में रुबाई जैसे ही होते हैं--

क़तअ़---

इक मौज मचल चाये तो तूफाँ बन जाय
इक फूल अगर चाहे गुलिस्ताँ बन जाय
इक ख़ूनके क़तरेमें है तासीर इतनी
इक क़ौमकी तारीख़का उनवाँ4 बन जाय

अदम

इतनी अधिक समानता होते हुए भी शाइर क़ते न कहकर रुबाइयाँ ही कहते हैं। अगर ग़ज़ल कहते हुए कभी कोई भाव एक शेरमें न आ सका तो उसे मजबूरन चार मिसरोंमें या उससे अधिक मिसरोंमें बाँधना पड़ता था और एक ही भावके द्योतक ऐसे अशआ़रपर क़तअ़ लिखकर ग़ज़ल साथ ही लिखते-पढ़ते थे। उनका कोई पृथक अस्तित्व नहीं होता था।
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1. लम्बे मार्गोंमें, 2. कदापि, 3. मन्दिर-मस्जिद, 4. इतिहासका शीर्षक।
इसकी ओर अख़्तर अंसारीने विशेष ध्यान दिया और उन्होंने रुबाई आ़तकी तरह क़तआ़तका आस्तित्व भी ग़ज़ल और नज़्मसे सर्वथा भिन्न रक्खा। ख़ुद फ़र्माते हैं—

‘‘आजसे तक़रीबन बीस साल क़ब्ल (1935 ई. के पूर्व) जब मैंने शेर कहना शुरू किया तो आग़ाज़कार (प्रारम्भकाल) सही से नज़्म और ग़ज़लके साथ क़तेको भी अपना मतमहे-नज़र (मुख्य लक्ष्य) बनाया। और इस बाबमें मेरा मख़सूस उसलूब बहुत वाज़ह और मुतऐन (इस सम्बन्धमें मेरा विशेष उद्देश्य बहुत स्पष्ट और स्थिर) हो गया। मैंने शुरू ही से इस बात की कोशिश की कि क़तेका कोई मिसरा बेकार या भर्तीका न हो। पहले मिसरेसे चौथे मिसरेतक न सिर्फ़ ख़यालका तसलसुल (भावोंका क्रमः बल्कि ख़यालका इरतक़ा (संगठित रूप) भी पाया जाये। गोया पहले मिसरे में जो बात कही गई है, उसे दूसरा मिसरा आगे बढ़ाये और इसी तरह चौथे मिसरेतक मज़मून फैलता बढ़ता और बुलन्दसे बुलन्दतर होता चला जाये। फिर ख़यालके तदरीजी इरतक़ा (भावोंके शनैः-शनैः गठन के साथ-साथ तास्सुर (प्रभाव, असर) भी ज्यादे-से-ज़्यादा गहरा होता जाये। ज़ाहिर है कि इस तरह जो क़तअ़ वजूद (अस्तित्व) में आयेगा, वह उस क़तअ़से यकसर मुख़्तलिफ़ होगा, जिसमें शाइर आख़िरी मिसरा कहकर ऊपरसे तीन मिसरे चिपका देता है; और इन तीन मिसरोंका मज़मून अक्सर वही होता है जो चौथे मिसरेमें अदा किया जा चुका है। यह जदीदुलसलूब (नवीन ढंगसे कहा हुआ) क़तअ़ दरअस्ल एक सिमटी हुई नज़्म होगा और कूज़ेमें दरिया (गागरमें सागर) बन्द कर देनेवाली कैफ़ियतका नमूना पेश करेगा।’’

‘‘-चारों मिसरों यकसाँ अहमियत, अफ़ादियत (समान महत्ता एवं उपयोगिता) उसकी बुनियादी ख़सूसित (मौलिक विशेषता) होगी। फिर यह ख़सूसियत एक़ तरहसे कसौटीका भी काम देगी। यानी हम देखेंगे कि इब्तदाई (पहले) दो मिसरे ख़ारिज कर देनेसे क़तेका मफ़हूम और तास्सुर मजरूप (आशय और प्रभाव नष्ट) नहीं होता तो हम क़ते को नाक़िस और साकितुल्फ़न (व्यर्थ और कलाहीन) खयाल करेंगे।’’

‘‘इस मखसूस उसलूब (ख़ासरंग) की पौरवी मेरे सब नहीं तो बहुत-से क़तोंमें कुछ इस तौरसे हुई कि क़तेके पहले दो मिसरोंमें एक ख़ास माहौल (वातावरण) की मुसव्वरी की जाती (छवि खींची जाती) है, या एक ख़ास फ़ज़ाके नक़ूश (कैफ़ियतके चित्रों) को उजागर किया जाता है। फिर तीसरे मिसरे में उस परे-मंज़रका सहारा लेते हुपए एक अनूमी अन्दाज़ (आमढंग) की बात कही जाती है। यह बात उस सारे पसेमंज़रको एक ख़ास रंगमें रंग देती है, या यूँ कहना चाहिए कि पेश करदा माहौलके नक़ूश (उल्लिखित वातावरण) के एक ख़ास ज़ावियेनिगाह (दृष्टिकोण) से देखने में मदद देती है। इस तीसरे मिसरे ही के साथ उस तास्सुराती कैफ़ियत (प्रभावक स्थिति) का भी आग़ाज़ (प्रारम्भ) हो जाता है, जिसकी तकमील (पूर्णता) क़तेकी मजमूई तास्सुर (सम्पूर्ण भाव) की हैसियतसे आगे चलकर चौथे और आख़िरी मिसरेमें होगी।...’’

‘‘क़तेका सारा फ़न ड्रामाइयतका फ़न है। इसमें एक चौंका देने वाला अन्दाज़ होना चाहिए। एक कौन्देकी-सी लपक, एक नश्तरकी-सी चुभन, यही तेजी, नोक और धार क़तेको एक तर्शे हुए हीरेका रूप देती है और उसकी कामयाबीका मेयार मुतऐन (आदर्श स्थिर) करती है। यही वह चीज़ है जो क़तआ़तकी शाइरी और ग़ज़लकी शाइरीमें एक और हद्दे फ़ासिल (अन्तर) क़ायम करती है। ग़ज़लकी शाइरी में अच्छी और बुरी ग़ज़ल के अलावा बहुत अच्छी, बहुत ज़्यादा अच्छी और निहायत अच्छी ग़ज़ल हो सकती है। मतलब यह कि सनफ़ी-एतबार (कलात्मक दृष्टि) से ग़ज़ल के कितने ही मेयार हो सकते हैं। इसलिए कि ग़ज़ल मुतफर्रिक़ और मुख़्तलिफ़ (विविध और भिन्न-भिन्न भावोंके) अशआ़रसे मिलकर बनती है और अगर उसमें चन्द शेर मामूली हैं तो चन्द शेर अच्छे भी हो सकते हैं और एक-आध शेर बहुत अच्छा भी हो सकता है।


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