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शायरी के नये मोड़-5

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1211
आईएसबीएन :81-263-0031-0

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ शायरों की श्रेष्ठम रचनाएँ....

shayari ke naye mod(5) -

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अन्तिम मोड़

शाइरी की यह सीरीज़ पूर्ण भी हो गयी, परन्तु पचास के लगभग ग़ज़ल-गो शाइर और सौ के क़रीब तरक़्क़ीपसन्द और ग़ैर-तरक़्क़ीपसन्द ऐसे ख्यातिप्राप्त शाइरों का परिचय का एवं कलाम अभी भी नहीं दिया जा सका जो महत्त्वपूर्ण शाइराना मर्तबा रखते हैं। इनमें-से अधिकांश शाइरों का अनुमानतः छह सौ पृष्ठों का कालम हमने संकलित भी किया है, किंतु प्रकाशन की भी एक सीमा है। एक प्रकाशन-संस्था कहाँ तक और कब तक जिम्मेदारी निभाये ?
अतः शेरो-सुख़न, शाइरी ने नये दौर और शाइरी के नये मोड़ के पाँच-पाँच भाग प्रस्तुत करके हम इस सीरीज़ को समाप्त कर रहे हैं।

प्रथम महायुद्ध के बाद से अब तक शाइरी में कितने परिवर्तन-परिवर्द्धन हुए, उसने कितने उतार-चढ़ाव देखे और किन-किन समस्याओं को हल करती हुई कितने मोड़ लेकर वर्तमान स्थिति तक पहुँची, यह हम पृथक् रूप से एक तुलनात्मक अध्ययन पुस्तकाकार प्रस्तुत करने का इरादा रखते हैं। फ़िलहाल 1943 से 1963 तक के बीस वर्षों के लगातार श्रम से यह सीरीज़ पन्द्रह भागों में प्रस्तुत कर पाये हैं। जैसी भी है आपके सामने है। अपनी साधना-हीनताओं, त्रुटियों और अज्ञानता का भान होते हुए भी यह साहस हमने कर ही डाला। बक़ौल रियाज़:

ख़ुदा के हाथ है बिकना न बिकना मै का ऐ साक़ी !
बराबर मस्जिदे-जामअ़के हमने तो दुकाँ रख दी।।


इसी धुन में बीस वर्ष गुज़र गये और ईमान की बात तो यह है कि जो हम पाठकों को भेंट करना चाहते थे, वह पूर्णरूपेण अपनी असमर्थता के कारण न कर सके, बक़ौल रियाज़ खैराबादी :

सद्साला दौरे-चर्ख़ था साग़र का एक दौर
निकले जौ मैकदे से तो दुनिया बदल गयी।


अयोध्याप्रसाद गोयलीय

नरेशकुमार ‘शाद’

परिचय


नरेशकुमार ‘शाद’ उसी प्रकारके नरेशकुमार हैं, जैसे कि फुटपाथ पर सोनेवाला बंगाली अपने को चक्रवर्ती, निरक्षर भट्टाचार्य अपने को वन्द्योपाध्याय कहलाने का अधिकार रखता है। अन्यथा वास्तव में तो वे बेचारे दीनकुमार नाशाद हैं। भारत-स्वतन्त्र होनेपर जब रियासतों के विलीनीकरण का प्रस्ताव आया तो उनके नाम की मौज़ूनियत (औचित्य, मुनासबत) पर हज़रत त्रिलोकीचन्द ‘महरूम’ ने स्नेहपूर्ण उपहास के तौर पर ‘शाद’ के सम्बन्ध में यह क़ता कहा—


सब नरेशों को ख़त्म कर देगी
कह रही है यह हिन्दकी सरकार
शाइरो ! मिलके यह दुआ माँगो
उनमें शामिल न हों नरेशकुमार,



बहुत-से शाइरों को शाइरी उत्तराधिकार स्वरूप प्राप्त हुई, परन्तु शाद को विरासत में मैनोशी नसीब हुई, बक़ौल-बर्क़ देहल्वी—


नज़ाकतसे फूलों पै तुलता है कोई
है काँटोंका बिस्तर मयस्सर किसीको


नरेशकुमार ‘शाद’ का जन्म पंजाब प्रदेशीय जिला जालन्धरसे 15 मील दूर नकोदर गाँवके एक दरिद्र परिवार में हुआ। माँ-बाप बहुत सीधे-सादे और ग़रीब थे। पिता उर्दू के एक साप्ताहिक पत्र में कार्य करते थे, जहाँ से नाम मात्रको वेतन मिलता था। रूखी-सूखी रोटियों के भी लाले रहते थे। उस पर कोढ़ में खाज यह कि पिता शराब के आदी थे। यह बिलकती-बिसूती ज़िन्दगी शाद को रास न आयी। उनका मन खीज उठा और वे उस वातावरण से विद्रोह करने पर मजबूर हो गये। वे नकोदर छोड़कर स्वयं अपना व्यक्तित्व बनाने के लिए जुट गये। बक़ौल-ज़िगर मुरादाबादी—


अपना ज़माना आप बनाते हैं अहले-दिल
हम वे नहीं कि जिसको ज़माना बना गया


फ़िक्र तोसवींके शब्दोंमें—‘‘यह हक़ीक़त है कि शादने अपनी मौजूदा ज़िन्दगी की टूटी-फूटी इमारत सिर्फ़ अपने ही बलबूते पर खड़ी की है। जहानत (प्रतिभा) की चिनगारी उसके नसीब में थी, उसने उसे बुझने नहीं दिया। बल्कि मसल्सल (लगातार) कड़ी और खौफ़नाक जद्दो-जहद (संघर्ष) करके, उसने उस चिनगारी को चमकाये रखा। उसे फूँक दे-देकर हवा देता रहा। उसने जहाँ भी ज़हानतके शोले (विवेक के अंगारे) उठते हुए देखे, वहां लपककर अपनी चिंगारी लिये हुए पहुँचा और उन शोलोंसे नूर और ताबिन्दिगी अख़्ज (प्रकाश-ज्योति ग्रहण) करके अपनी चिनगारी-को शोला बनाने की धुनमें लगा रहा।...उसकी इस जद्दो-जहद (संघर्ष) की कहानी न सिर्फ़ तवील (लम्बी) है, बल्कि तेज़ रफ़्तार भी। यूँ लगता है, जैसे उसने पैदल ही 100-100 मीलका फ़ासला एक-एक घण्टे में तय कर लिया है। इस सफ़र में अगर्चे उसके चेहरे पर गर्द अट गयी, उसकी हड्डियाँ चटख़ गयीं, उसके पाँव टूट गये, उसका जिस्म मुड़-तुड़ गया, मगर उसने जद्दो-जहद तर्क नहीं की।1’’

शाद की आर्थिक स्थिति किसी वक़्त ऐसी भी शोचनीय रही कि रात-रातभर जागकर उन्होंने मिट्टी के तेलकी ढिबरी के आँखफोड़ू प्रकाश में साठ
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1.    आहटें पृ. 16।

ग़ज़लें कहीं और वही 60 ग़ज़लें सिर्फ़ 60 रुपये में इस शर्तपर बेचने को विवश हुए कि उन ग़ज़लों पर-ब-हैसियत शाइर नाम भी उसी खरीददार का होगा। शायद ऐसे ही कड़ुवे अनुभवों के फलस्वरूप ‘पब्लिशर’ नज़्म शब्द को कहनी पड़ी है। जिसके 4 में-से दो बन्द यहाँ दिये जा रहे हैं—

आप गुमनाम आदमी हैं अभी
इसलिए आपका यह मजमूआ1
अज़सरेनौ2 दुरुस्त करवाकर
अपने ही नाम से मैं छापूँगा
रह गया अब मुआबिज़ेका3 सवाल
नक़्द लेना कोई ज़रूर नहीं
शामके वक़्त आप आजायें
मैकदः4 इस जगहसे दूर नहीं


शादको न सिर्फ़ अपना कलाम ही बेचना पड़ा, अपितु पेट की ज्वाला को बुझानेकी लालसामें उन्हें लाहौर, रालपिण्डी, अमृतसर, जालन्धर, पटियाला, कपूरथला, दिल्ली, कानपुर, बम्बई, इलाहाबाद, लखनऊ आदि न जाने कहाँ-कहाँकी खाक छाननी पड़ी, किन्तु न उनके आत्मविश्वासको और न उनके स्वावलम्बी बननेके विचारको ही ये आपदाएँ डिगा पायीं। वे उत्तरोत्तर इरादेके मज़बूत होते गये और अपनी पुरुषार्थ-डगरपर बढ़ते गये। लेकिन वे अभी भी दुःख-दारिद्रसे मुक्त नहीं हो पाये हैं। आर्थिक चिन्ताओं के भँवर में वे अभी भी फँसे हुए हैं। उन्होंने अपने होनेवाले पुत्रके नाम एक व्यंग्यपूर्ण पत्र 14 जुलाई 1962 को लिखा है। जिसके चन्द
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1.कविता-संकलन, 2. फिर नये सिरेसे, 3. पारिश्रमिकका, 4. मदिरालय।

अंश यहाँ दिए जा रहे हैं। पत्र यद्यपि व्यंग्यात्मक है, फिर भी उनके व्यथा-पूर्ण संघर्षमय जीवनकी झाँकी उसमें दीखती है।

‘‘....हालाँकि बड़े-बड़ों की ज़बानी यही सुना है कि बच्चे घरकी रौनक और भगवानकी देन होते हैं। लेकिन मुझ ऐसे छोटे लोग जिनकी हिसेलतीफ़को इफ़लान (कोमल संवेदनशील स्वभावको दरिद्रता) ने अपने तलवों से कुचल डाला है, अपने हर बच्चे को हादसा (दुर्घटना) और मुसीबत ही कहेंगे। क्योंकि हर बच्चे की विलादत (जन्म) से तनख़्वाह का कमज़-कम आठवाँ या दसवाँ हिस्सा उसकी नज़र होता है.....अपने बापके दौलतकदेमें आकर रहना तुझे अँधेरे ही में पड़ेगा। उसी अँधेरे के झूलेमें झूल-झूलकर तुझे परवान चढ़ना होगा। अँधेरा तो मेरे अज़ीज ! हमारी तक़्दीर है, ख़ान्दानी विरासत है—


उम्र अपनी इन्हीं तारीक मकानोंमें कटी


इसलिए ऐ मेरे चाँद ! तुझे माहेकामिल (पूर्ण चन्द्रमा) बनने से बहुत पहले ही गहनाना पड़ेगा। तुझे एक ऐसे सरफिरेका लख़्ते-जिगर होनेकी सआदत नसीब (शुभकारिता प्राप्त) होनेवाली है, जिसका जिगर इस बेदर्द दुनियाने पहले ही लख़्त-लख़्त (छिन्न-भिन्न) कर रखा है। जो एक दर्ज़न से ज़्यादा किताबों का गुसन्निफ़ (निर्माता, जनक) होनेके बावजूद हर महीनेकी आखिरी अय्याम अपने कालोनीके बनियेके रहमो-करमपर बसर करता है। और वह अगर उधार न दे तो उसके घर का चूल्हा नहीं सुलग सकता।....तेरे बापको भी एक ऐसे सरकारी दफ़्तर में भारी भरकम फाइलों में सर खपाकर अपने खयालोंकी उड़ानों और जीवनीके ख़्वाबोंको दो वक़्त की रोटीके टुकड़ों में तब्दील करना पड़ता है। जहाँ उसे अपने हर अफ़सरकी झिड़कियाँ बरदाश्त करनी पड़ती हैं।

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