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यात्रा

शान्ताराम

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1216
आईएसबीएन :81-263-0516-9

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प्रस्तुत है उर्दू की श्रेष्ठ कहानियों का हिन्दी अनुवाद...

Yatra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

मराठी में नयी कहानी के अग्रणी लेखकों में ‘शान्ताराम’ का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनकी कहानी में जहाँ एक ओर गतिशील परम्परा हैं वहीं दूसरी ओर आधुनिकता का समन्वित रूप भी है। अपनी लोकभूमि की जड़ों से मज़बूती से जुड़े रहने के कारण उनकी कहानी में आंचलिकता का स्पर्श भी गहन रूप में अनेक स्तरों पर परिलक्षित है।

शान्ताराम की कहानी में सामाजिक परिवर्तनों की सोच मुख्य रूप से उजागर हुई है। ग्राम-जीवन से नगर-जीवन की ओर बढ़ता आकर्षण जाति समाज और गाँव-गाँव से उखड़कर निर्वासित होने की स्थिति नैतिक मूल्यों के प्रति बढ़ती अनास्था तथा राजनीति का निरन्तर पतनशील चरित्र आदि ऐसे तत्त्व हैं जो उनकी कहानी में प्रतिबिम्बित हुए हैं।

कहना न होगा कि शान्ताराम ने मराठी भाषा की परम्परा को गद्य के क्षेत्र में न केवल सुरक्षित रखा है, उसे उर्वर भी बनाया है। निःसन्देह इतनी विशिष्ट और विलक्षण कहानियों का यह संग्रह ‘यात्रा’ हिन्दी पाठकों को बहुत-कुछ नया देने की सामर्थ्य रखता है। प्रस्तुत है ‘यात्रा’ का नया संस्करण।

शान्ताराम की कहानी

(सम्पादकीय)

प्रो.के.ज. पुरोहित उपनाम ‘शान्ताराम’ जी 1940 से लिखते आ रहे हैं। 1942 में उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सभ्यांचा बाग’ प्रकाशित हुआ। नवोदित कहानीकार की कहानी का मराठी में अच्छा स्वागत भी हुआ। संयत भाषा, प्रभावपूर्ण कथन-भंगिमा, विषय का वैविध्य एवं नवीनता आदि वैशिष्ट्यों के साथ कहानी के लतित निबन्ध (मराठी में लघु निबन्ध) के साथ रूपात्मक रिश्ते का भी ज़िक्र हुआ। वैसे शान्ताराम ने लेखन की शुरूआत ललित निबन्ध लिखकर की और कुछ ही समय के बाद निबन्ध विधा से नाता तोड़कर कहानी के लिए अपने को पूर्णतः समर्पित किया। चालीस से अधिक वर्षों तक लिखते रहने के बावजूद और दो सौ से अधिक कहानियाँ मराठी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने के बावजूद, 1982 तक किसी समीक्षक ने उनकी कहानी का जमकर विचार नहीं किया। हाँ, कहानीकार के रूप में उन्हें मैखिक प्रतिष्ठा अवश्य मिली। 1982-83 में सौन्दर्यशास्त्र में मराठी के प्रख्यात अध्येता डा. रा. भा. पाटणकर ने दीर्घ समीक्षा लिखकर शान्ताराम की कहानी की ओर ध्यान आकर्षित किया। उनकी पुस्तक ‘कथाकार शान्ताराम’ मराठी के प्रतिष्ठित प्रकाशन प्रतिष्ठान मौज ने 1988 में प्रकाशित की।

मराठी के युवा समीक्षक डा. विलास खोले ने शान्ताराम की चुनिन्दा 19 कहानियों का संकलन प्रकाशित किया जिसकी भूमिका बहुत ही उम्दा है। शान्ताराम की कहानियों के मूलभूत वैशिष्ट्यों, उनकी शक्ति एवं सीमा का वस्तुनिष्ठ विवेचन डा. पाटणकर और डा. खोले दोनों ने किया है असल में मराठी में नयी कहानी के अग्रिम श्रेणी के कहानीकारों में प्रो. के. ज. पुरोहित का उल्लेख गौरवपूर्ण ढंग से होना चाहिए था। परन्तु उनको उचित न्याय मिलने में कुछ विलम्ब हुआ। इस विल्म्ब को मीमांसा की जा सकती है। लेकिन एक बात रेखांकित करना ज़रूरी हैं। वह यह है कि पुरोहितजी की कहानी में त्वरित ध्यान आकर्षित करने लायक स्मार्टनेस न हो परन्तु दीर्घकाल तक जीवित रहने की क्षमता अवश्य है। इस क्षमता का विवेचन आगे किया जाएगा। लेकिन आज दशवें दशक में चालीस-पचास वर्षों के बाद जब शान्ताराम की कहानी को पढ़ा जाता है तो उसमें ऐसे अनेक गुणों का सन्निवेश देखकर लगता है कि साहित्य को दीर्घजीवी बनाने वाले ये गुण हैं।

गृहस्थ की कहानीः  के. ज. पुरोहित की कहानी एक गृहस्थ की कहानी है। मराठी की नयी कहानी का प्रारम्भ से रुझान व्यक्ति की पृथागात्मता और विशिष्टता को, उनके ख़ास अपने सुख-दुख को चित्रित करने की ओर था। (मुझे लगता है कि हर भारतीय भाषा की नयी कहानी के केन्द्र में व्यक्ति का हर्ष-खेद है, सुख-दुख है विशिष्टता है जबकि परम्परा में लिखी गयी कहानी में गृहस्थ की मानसिकता है) शान्ताराम का उल्लेखनीय व्यक्तित्व भी ‘गृहस्थ’ की अवधारणा से प्रतिबद्ध है और उनकी कहानी के स्वरूप पर उसका प्रभाव पड़ा है। व्यक्ति समाज से अपनी पृथगात्मकता को सुरक्षित रखना चाहता है, उनके लिए वह सामाजिक और नैतिक परम्परारिक मूल्यों से टकराता भी है। गृहस्थ में यह आघात को प्रतिघात से निरस्त्र करने की अपेक्षा आघात को पचाकर ऊपर उठने की एक समझदारी होती है। उसकी सामाजिकता की जड़ें लोक-जीवन में गहरे गयी हुई होती हैं और नैतिकता का उसका परिप्रेक्ष्य तात्कालिकता से प्रभावित न होकर अधिक व्यापक और सामाजिक जीवन की भलाई से प्रतिबद्ध होता है। परिणामतः ऐसे लेखक की रचनाओं में ऊपरी चाकचिक्य कम, परन्तु भीतरी जीवनशक्ति भरपूर होती है। शान्ताराम की कहानी में यह जीवनशक्ति विद्यमान है।

शान्ताराम की कहानी का एक महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य यह है कि उनकी कहानी में गतिशील परम्परा और कालोचित आधुनिकता के समन्वित रूप के साथ विद्यमान है ठोस भूगोल। यह अच्छा ही हुआ कि शान्ताराम का बचपन और यौवन बम्बई के बाहर नागपुर में बीता। यह सही है कि महानगर की सुविधाएँ न मिलने से कुछ साहित्य-बाह्य लाभों से वे थोड़े वंचित रहे। मसलन संचार साधनों का उपयोग करते हुए एक प्रतिष्ठित लेखक के रूप में पाठकों के गौरव-वलय के बीच रहने की सुविधा उनको नहीं मिली। परन्तु इससे एक बहुत बड़ा लाभ हुआ। वे अपनी लोक-भूमि की जड़ों से मजबूती से जुड़े रहे। परिणामतः उनकी कहानी में अपने गाँवों, कस्बों, छोटे शहरों का एक मांसल संसार मिलता है। लगता है यह लेखक अपने जन्म-स्थान को और उसके आसपास के प्रान्तर को भली-भाँति जानता ही नहीं, उसको गहरे में प्यार भी करता है। शान्ताराम के कथा साहित्य में आंचलिकता का स्पर्श गहन रूप में अनेक स्तरों में परिलक्षित किया जा सकता है। उनकी कहानियों को पढ़ते समय लगता है कि हम देश-विदेश की मिट्टी, कीचड़, उसके रंग और गन्ध से संवेदित हो रहे हैं, वहाँ की विभिन्न ऋतुओं से, वर्षा, धूप, ठण्ड से हमारा वास्ता पड़ रहा है। धान के खेतों की महक, वृक्षों की पत्तियों की सरसराहट, फूलों की गन्ध से हम अभिभूत हो रहे हैं।

 शान्ताराम खेती के काम की समूची प्रक्रिया से भी परिचित हैं। खेती और जीवन के पारस्परिक सम्बन्धों में हो रहे बदलाव से भी भलीभाँति अवगत हैं। ज़मीन से जुड़ाव का यह अन्तःसूत्रों उनको सामान्य लोक-जीवन से भी जोड़ता है। कृषि से यह सम्बन्ध उनको भारतीय परम्पराओं से भी स्वस्थ रूप से जोड़े हुए है। यही कारण है कि आधुनिकता की चकाचौंध से उनकी आँखें चौंधिया नहीं गयी हैं। धरती जिस तरह अपने स्वास्थ्य की चीज़ें सोख लेती है उसी तरह शान्ताराम आधुनिकता से वही तत्त्व स्वीकार कर लेते हैं जो उनके व्यक्तित्व में गहरी तोड़फोड़ नहीं पैदा करते। इसलिए शान्ताराम की कथा-सष्टि एक स्वस्थ मानस की उपज है, विकृतियों और कुण्ठाओं से ग्रस्त व्यक्ति की नहीं। भोग और त्याग के उचित समय होता है। लगता है विशि्ष्ट अंचल के वासियों से हमारा परिचय हो रहा है, आदिवासियों के स्वभाव और नृत्यों की थिरकन तथा उनकी महुए की शराब से हम घेर लिए गये हैं। और उनकी काम-वासना की आदिम गन्ध से हमारे रक्त में उथल-पुथल मच गयी है। उनकी नैतिक, अनैतिक रीति, रिवाज़ों से चमत्कृत भी हो रहे हैं और प्रभावित भी।

वहाँ के काश्तकार, ब्राह्मण, विभिन्न जातियों के लोग (भारत में जो लेखक समाज में वर्तमान जात-पाँत अवस्था के खुरदरे तथ्य से परिचित होगा, वह भारतीय लेखक की नहीं है) शान्ताराम की कथा में आते हैं। विशेषतः नानाविध स्वभाव की, विविध अवस्थाओं की कर्मठ स्त्रियाँ शान्ताराम की कहानियों को जीवान्तता देती हैं। विभिन्न स्तरों के लोग ख़ास अपनी बोली का ढंग लेकर अपनी छाप छोड़ जाते है। अच्छा ही हुआ कि अमिट संस्कार के दिनों में शान्ताराम नगर में आकर अपने आसपास के लोगों से नाता तोड़ नहीं बैठे। आदिवासियों की बस्तियों से लेकर छोटे-बड़े कस्बों में रहनेवाली नदियों के प्रवाह पर थिरकने वाली डोंगियों और डोंगियोवालों से भी परिचय रखते हैं। जंगलों और जंगलों में रहनेवाले मनुष्यों एवं पशुओं से शान्ताराम का नाता का रिश्ता जुड़ा हुआ है। (सिंग, गिलहरी, शेर, रेलाँ रेलाँ, देवता का खेल, चक्र, पेटूक सब अच्छा है, निर्वासित, पोताराज, चुरणं, विच्छेद काका काकी, अतिरेक, रानपछी इत्यादि सभी से)। बाजारों और सड़कों की सुबह-दुपहर-शामों की अलग-अलग अदाओं में वे रस ले सकते हैं। कुल मिलाकर शान्ताराम की कथा का व्यापार परिवेश से गहरे जुड़ाव का बोध देता है। इसलिए उनको कथा भूगोल का बड़ा सशक्त रेखाओंवाला चित्र उभारती है। ‘उगीट’ (यों ही) जैसी कहानी में इसी गहन जुड़ाव से ऐन्द्रिय संवेदनाओं का विम्बधर्मी विलास उत्पन्न होता है।

रक्त की पुकारः शान्ताराम में जीवन की आदिम रक्त-गन्ध तीव्रता का गहरा एहसास है। मनुष्य की आदिम वासना उस रक्त में क्या उथल-पुथल मचाती है और मनुष्य का तर्क, विचार, आचरण की रूढ़ियाँ, संकल्प-शक्ति निर्णय शक्ति, विवेक आदि की लटबन्दियों को कैसे धव्स्त करती है इसका गहरा बोध शान्ताराम की कहानियाँ देती हैं। शिक्षित मध्य वर्ग में कभी बुद्धि को ध्वस्त करने की यह प्रक्रिया शराब से शुरू होती है (नशा खेलणं) तो कभी किसी आवेग के क्षण में ‘धूल’ में मध्यवर्गीय नैतिकता की दृढ़ दीवारें किसी क्षण कैसे हिल सकती हैं, इसका संकेत मात्र किया गया है। यह बात दूसरी है कि ‘धूल’ का निदेशक अपने को बचा सका। शन्ताराम की यथार्थोन्मुखी दृष्टि इस तथ्य को भी अनेक बार प्रकट कर चुकी है कि मध्यवर्गीय नैतिकता की ज़मीन उतनी पुख़्ता नहीं हैं। ‘उद्रेक’ की नायिका अपने व्याभिचारी और ख़ूनी पति से बेहद खफ़ा है और उसने निश्चय किया है कि वह उससे कभी नहीं मिलेगी। लेकिन गहरी घृणा की दीवार तीन साल के बाद पति के घर आने पर ढह जाती है। वासना की प्रबल लहर में दोनों एक-दूसरे से लिपट जाते हैं। घृणा बरकरार है, हिंसा और दूसरे को तोड़ रखने की प्रतिहिंसा ने दोनों को उन्मत्त किया है।

वासना वटवृक्ष की टहनी की तरह किसी भी अवरोध को दबाकर अपना अभीप्सित पूरा कर ही लेती है। अपनी आंतरिक उर्मियों को दार्शनिक मुद्रा में लपेटने वाले ‘शंकरगुरु’ की असलियत यही है कि शंकर का शंकरगुरु बनने के बाद भी वासना को दबाना उनके लिए सम्भव नहीं हुआ। बल्कि अवसरों की सुलभता के परिणामस्वरूप वह और अधिक आसान हुआ। ‘पीले लिफ़ाफे’ का मनोहर अपनी एक समय की प्रेयसी पर बालात्कार करता है। वैसे दफ़्तर से दी गयी शिष्यवृत्ति की रक़म मीरा वापस करे क्योंकि यह नैतिकता की माँग है, इस दृष्टि से उसे समझने गया मनोहर मीरा के इनकार करने पर नीति-अनीति की मान्यताओं को ठुकराकर मीरा के बदले की भावना से गुस्से में बालात्कार करता है (मीरा एक सीमा तक विरोध करती है लेकिन फिर प्रवाह में अपने को छोड़ देती है) वह जिस उद्देश्य से कलकत्ता आया था वह उद्देश्य एक प्रतिशोध, गुस्सा, अतृप्त वासना के आवेग में खत्म हुआ। लौटते समय उसकी मानसिकता यह थीः ‘‘गाड़ी के डिब्बे में वह अपने स्थान पर स्थिर बैठा था फिर भी गाड़ी आगे बढ़ रही थी इसलिए उसकी यात्रा हो रही थी। उसी प्रकार उसका जीवन उसके विचारों, योजनाओं, संकल्पों की परवाह न करते हुए उनसे बिना पूछे आगे बढ़नेवाली थी, इतना ही उसे दिखा था। इतना ही उसे एहसाह हो रहा था।’’ (शान्ताराम में एक किस्सागोई बैठा है जो मित्रों के बीच बैठकर विस्तार से इधर-उधर फैलते हुए अपनी कथा बताता है। परिणातः ‘पीले लिफाफ़े’ जैसी कहानी कुछ पसर जाती है उतनी एकाग्र नहीं बन पाती।) ‘दूसरी आई’ में पुरुष की वासना का एक क्रूर पहलू प्रकट किया गया है और उसके नीचे प्रवाहित करुणा के गर्म स्त्रोत से कहानी को एक मूल्यवान अनुभव का स्तर प्राप्त हुआ है।

 एक स्त्री दूसरी स्त्री को सौत के रूप में स्वीकार करती हैं क्योंकि पुरुष की वासना की आग सहना उस अकेले के लिए असम्भव था। अपनी सौत का यह उपकार उसे सौत के प्रति कृतज्ञ भावना से सदैव आर्द्र रखता है। परिवार बच जाता है। (शान्ताराम भारतीय परिवार व्यवस्था के लिए अनोखे रूप को संकेतित करते हैं। किसी घटना, वस्तु, व्यक्ति का अनेदखा पहलू प्रकट करना शान्ताराम की कथा का एक महत्त्वपूर्ण वैशिष्ट्य हैं। बहुपत्नी प्रणाली का एक अपना विशिष्ट प्रयोजन था और वह मनुष्य और स्त्री की प्राकृतिक वासना-शक्ति की विषमता पर निर्भर था। किसी समय बंगाली परिवारों में प्रौढ़ नारियाँ अपने पतियों को सजाकर वेश्याओं के पास भेजती थीं। क्या परिवार बचाने का यह रास्ता था ?) माया जैसी आदरणीय अविवाहित समाज-सेविका एक अवस्था में श्रीरंग जैसे अति सामान्य व्यक्ति से विवाह करने को तैयार होती है- माया की विवशता में करुणा की एक अन्तर्धारा प्रवाहित अवश्य है परन्तु शान्ताराम केवल संकेत करते हैं। लेकिन यह नहीं भुलाया जा सकता कि श्रीरंग पहला पुरुष था जिसने निस्संकोच रूप में माया के हाथ को पकड़कर हिलाया था।

 मनुष्य में गहरे छिपी वासना की क्रीड़ा का इस प्रकार का संकेत पूर्णनिर्देश शान्ताराम अनेक कहानियों में करते हैं। ‘काही झालं नाही’ (कुछ नहीं हुआ) के गुणवन्त की कमजोरी का पर्दाफाश उनकी छात्रा शीला करती है। यह कमजोरी दाम्भिकता का रूप लेकर चल रही है। यह कमजोरी उस गृहस्थ की है जिसकी पत्नी है, घर गिरस्ती है परन्तु शीला के प्रति उसमें कहीं वासनात्मक आकर्षण भी है। वासना का यह संयत रूप ‘प्रवासी’ में भी प्रकट होता है। पैसे के पीछे लगे कंजूस वसनजीभाई सहयात्री तरुण दम्पत्ती का आपसी उत्तेजक प्रणय देखते हैं तो वसनभाई और उसकी पत्नी दोनों को कुछ विचलित करता है। ‘अतिरेकी’ ‘विवस्त्र’ ‘रती’ ‘बाघ’ आदि कहानियों में यह रक्त का तर्क अजीबोगरीब रीति से सामने आता है।


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