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भारतीय कहानियाँ 1989

र श केलकर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :322
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1224
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है 1989 की श्रेष्ठ कहानियाँ....

Bhartiya Kahaniyan 1989

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

सम्पादकीय

भारतीय वाङ्मय के संवर्धन में भारतीय ज्ञानपीठ के बहुमुखी प्रयास रहे है। एक ओर उसने भारतीय साहित्य की शिखर उपलब्धियों को रेखांकित कर ज्ञानपीठ पुरस्कार एवं मूर्ति देवी पुरस्कार के माध्यम से साहित्य में समर्पित अग्रणी भारतीय रचनाकारों को सम्मानित किया है, इस आशा से कि उन्हें राष्ट्रव्यापी प्रतिष्ठा प्राप्त हो और उनकी श्रेष्ठ कृतियाँ अन्य रचनाओं के लिए प्रकाशस्तम्भ बनें। दूसरी ओर वह समग्र भारतीय साहित्य से कालजयी रचनाओं का चयन कर उन्हें हिन्दी के माध्यम से अनेक साहित्य-श्रृंखलाओं के अन्तर्गत प्रकाशित कर बृहत्तर पाठक-समुदाय तक ले जाता है। ताकि एक भाषा का सर्वोत्कृष्ट साहित्य दूसरी भाषा तक पहुँचे और इस प्रकार विभिन्न भाषाओं के रचनाकारों एवं प्रबुद्ध पाठकों के मध्य तादात्म्य और परस्पर और वैचारिक सम्प्रेषण सम्भव हो सके।

इसी लक्ष्य को सामने रखकर भारतीय ज्ञानपीठ ने कुछ वर्ष पहले एक और प्रकाशन-योजना का आरम्भ किया था। जिसके अन्तर्गत प्रतिवर्ष अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित विभिन्न भारतीय भाषाओं की प्रतिनिधि रचनाओं के अलग-अलग संकलन ‘भारतीय कविताएँ’ और ‘भारतीय कहानियाँ’ नाम से प्रकाशित किये जाते है। इन श्रृंखलाओं का प्रारम्भ 1983 में प्रकाशित कविताओं और कहानियों की चयनिकाओं से हुआ। इन चयनिकाओं का साहित्यिक क्षेत्रों में स्वागत हुआ है उससे हमारी इस योजना को बहुत प्रोत्साहन मिला है। प्रस्तुत कहानी-संग्रह ‘भारतीय कहानियाँ 1889’ श्रृंखला की छठी चयनिका है। पाँचवी चयनिका के रुप में हमने दो वर्षों-वर्ष। 1987 और 1988 की कहानियों का सम्मलित संस्करण निकाला था। ऐसा इसलिये करना पड़ा कि वर्ष 1985 और 1986 की चयनिकाएँ काफ़ी बिलम्ब से प्रकाशित हो सकी थीं-सच तो यह है की इस दौड़ में अभी हम पीछे हैं। यही कारण है कि दिसम्बर 1992 में हम प्रस्तुत संस्करण भारतीय कहानियाँ 1989’ प्रकाशित कर पाये हैं। कुछेक पाठकों ने इस बात को लेकर आलोचना भी की है, जिसे अनुचित नहीं कहा जा सकता । यद्यपि हमारे पाठक भी यह बखूबी जानते हैं कि इस प्रकार की चयनिकाओं के प्रकाशन में बहुतकुछ समय तो उन बातों पर लग जाता है जिन पर हमारा कोई नियन्त्रण नहीं रह जाता। उदाहरण के लिए, चौदह-पन्द्रह भाषाओं में से अन्य सभी भाषाओं की रचनाएँ समय पर मिल जाती हैं लेकिन एक दो भाषाओं की रचनाएँ तब तक प्राप्त नहीं हो पाती हैं तो पाण्डुलिपि को प्रेस में देना सम्भव नहीं हो पाता। कविताओं और कहानियों के चुनाव को लेकर भी कई तरह के गतिरोध खड़े हो जाते है जिनका जल्द ही कोई समाधान नहीं निकल पाता। फिर भी यह स्वीकार करना होगा कि इसमें हमारी ही ओर से कुछ कमी रह जाती है।

भविष्य में आने वाली चयनिकाओं के प्रकाशन में समय का अधिक अन्तराल न रहे, इसलिए संकोच होते हुए भी फिलाहाल हमें यह निर्णय लेना पड़ा कि कहानियों की वर्ष 1990-91 की तथा कविताओं की 1989-90-91 की संयुक्त चयनिकाएँ शीघ्र ही प्रकाशित कर पाठक जगत् तक पहुँचायी जाएँ। इस दिशा में हम प्रयासरत भी हैं ।
एक बात और। हमारे प्रबुद्ध समीक्षकों का यह कहना रहा है कि अमुक चयनिका की कहानियाँ भारतीय भाषाओं की दृष्टि से श्रेष्ठतम नहीं कही जा सकतीं। हम उनकी बात से सहमत हैं। वास्तव में चयनकर्ता के सामने जो सामग्री होती है, या जिसे वह समय रहते उपलब्ध कर पाता है उसी में से वह श्रेष्ठ का चुनाव कर पाता है। फिर चयनिका के लिए उसे मात्र दो कहानियों का चुनाव करना होता है, जबकि अनेक कहानियाँ श्रेष्ठ स्तर की उसके सामने होती हैं। जो भी है इतना तो स्पष्ट है कि चयनकर्ताओं ने चयन करते समय रचना शैली और शिल्प के बदलते मानदण्डों के साथ सामयिकता का भी ध्यान रखा है।

ऐसे और भी अनेक प्रश्न समय-समय पर उठते रहे हैं। जिनका समाधान चयनिकाओं के ‘सम्पादकीय’ में किया जा रहा है। फिर भी पाठक की ओर से प्राप्त दिशा-निर्देशों का सदा हम स्वगत करेंगे।
प्रस्तुत चयनिका के लिए हमें अपने चयन-मण्डल के सदस्यों लेखकों और अनुवादकों से तथा अन्य स्त्रोतों जो सहयोग मिला है, उसके लिए हम उन सभी के बहुत आभारी हैं। हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र जैन ने मुद्रण-प्रकाशन आदि कार्य को पूरी तत्परता से निर्वाह किया है। सुन्दर आवरण-शिल्प के लिए पुष्पकणा मुखर्जी साधुवाद।
सीमा में अनन्त, एक दिन
देवव्रत दास
(अपनी एक प्रतिबद्ध रचयिता महिला मित्र की सेवा में समर्पित)

पत्र का टुकड़ा1

डुमडुमा में उस दिन जब तुमसे भेंट हुई, और तुमने खुले हृदय से, बिना किसी कपट-छल के, बिना किसी लाज-शर्म के बिना किसी भी दुविधा-संकोच के, मुझे बतलाया कि ‘‘एक विशेष विश्वास के प्रति आस्थावान होने के बल पर ही तुम अभी भी, बिना किसी रूकावट के, निरन्तर रचना करती जा रही हो,’’ ठीक उसी घड़ी से मैं तुम्हें बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगा हूँ।
तुमने, मैंने, कमला अथवा मदन ने और उसके अरूपा वग़ैरह हम सभी ने प्रायः एक ही समय रचना करने (लिखने) के कार्य में योगदान करना आरम्भ किया था-(रचना-धर्मिता से एक ही साथ जुड़े थे।)-कविता कहानी या निबन्ध (अपनी प्रवृति के अनुरूप) लिखने में प्रवृत्त हुए थे। परन्तु (मेरे साथ) क्या कुछ घटित हुआ; जानती हो ?

विगत दो दशकों (यानी गत बीस वर्षों) में जो ऊट-पटाँग, अनाप-शनाप घटनाएँ घटीं, उन्होंने मुझसे मेरे ईश्वर (मेरे आश्वास-
1. प्रस्तुत कहानी में अपना एक विशेष रचना विधान है। लेखक ने अपने एक कथाकार महिला मित्र को लिखे अपने अधूरे पत्रों के कुछ अंशों और अपने द्वारा रची जा रही कहानी के कुछ अंशों को खण्ड-खण्ड में प्रस्तुत कर अधूरी रचना से पूरी रचना का कलेवर गढ़ने की कोशिश की है।
विश्वास) को बहुत दूर कर दिया।
(और जब मेरा आराध्य देव ही मुझसे् दूर-दूर छिटक गया) तो फिर किसके लिए निवेदित होगी मेरी लेखनी अब ? (कस्मै देवाय हविषा विधेम ?)
परिणाम यह कि कविता मुझसे दूर भाग गयी। मस्तिष्क कल्पना शून्य हो गया। हृदय भाव का रंच मंच अंश से भी रहित हो कर बिलकुल कठोर पत्थर हो गया।
कहानियों ने भी अब मेरा पीछा करना (मुझे लिखने के लिए बाध्य कर देना) छोड़ दिया।
(ऐसी-दशा में) मैंने कहानियों के क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश करने की कोशिश में, दो पक्तियों में निरर्थक, वाक्यों की अनगिनत अधलिखी रचनाओं को छोड़-छाड़ अलग हो जाने लगा, अनेक ठुकरा दिये गये प्रस्तावों पर।
(और इस तरह) अकेले-अकेले मैं ही नहीं, (बल्कि) कमला, मदन वग़ैरह ने कविता रचना छोड़ दिया; अरूपा द्वारा रची गयी (और प्रकाशित हुई) कहानियाँ भी आज इतनी कम पढ़ने को पाता हूँ (कि नहीं के समान ही समझो।)
तो क्या इसका मतलब यह है कि हमारी पूरी समकालीन पीढ़ी ही ईश्वर शून्य( उस आस्था के हीन, जिसके निवेदनार्थ रचना की जाय, जिसके लिए रचना करने की प्रेरणा मिले) होती जा रही है ?
और हम लोगों के बीच बस अकेली तुम ही एक अपवाद रह गयी हो क्या ? आख़िर फिर तुम फिर कैसे निरन्तर लिखती चली जा रही हो; अभी भी ?

तुमने अपने निबन्धों के संग्रह की पुस्तक का जो मुझे उपहार दिया (उसका गहन अध्ययन करने के अनन्तर) उसमें ही मैंने तुम्हारे ईश्वर (सृजन को आधारदेने वाले तत्त्व) का सन्धान लिया है । और तदानुसार तुम्हारा ईश्वर है-(आधार आदर्श है) समाज में अपने समुचित पर प्रतिष्ठित होने के लिए समुत्सुक (संघर्षशील) साधारण नारी सत्ता। पुरूष के द्वारा शासित, पुरूष के द्वारा ही परिचालित, हमारे अल्प बुद्धिवाले समाज में शोषित, निर्वासित, वंचित, लांछित, पद-दलित-रौंदा हुआ-नारी चरित्र....

कहानी का टुकड़ा

‘‘यह नवयुवती वेश्या (स्वैरिणी या कालगर्ल) है क्या ? ’’
रेलवे स्टेशन के पार-पुल (ओवरब्रिज) के एक किनारे पर खड़ी उस नवयुवती की ओर काफ़ी देर तक ग़ौर से लक्ष्य करने के बाद अनन्त ने मन में कुछ इसी प्रकार का अनुमान किया।
उस नवयुवती के पाँवों में सस्ते किस्म का सैण्डिल है और गठीले बदन पर चमकदार रंगीन साड़ी। साड़ी के लहराने से युवती फाँकों से उसके सिकुड़े मैले ब्लाउज के नीचे के पेट के अंश झलक-झलक जाते हैं। हाँ, चेहरे पर उत्कट (अति मात्रा का) बनाव-श्रृंगार (मेकअप) अवश्य नहीं है। फिर भी ओंठों पर बड़ा गहरा-तीख़ा अधरारंजन (लिपिस्टिक) लगा हुआ है।
अनन्त की आँखों में जब एक बार उसकी आँखे टकरायीं तो अनन्त ने गम्भीरता पूर्वक विचार कर देखा तो भी उसकी आँखों में अपनी ओर बुलाने का रंच मात्र भी भाव का लक्ष्य नहीं कर पाया।
अब तो वह दुविधा में पड़ गया। तो क्या उस छोकरी के बारे में उसने जो धारणा बनायी थी( उसे स्वैरिणी या वेश्या समझा था, यदि वह वैसी होती तो, आँखें मिलते ही अपनी ओर आने की इशारेबाज़ी अवश्य करती)-सो क्या ग़लत है ? तो सम्भवतः यह युवती वेश्या नहीं है।

परन्तु यदि ऐसी बात है तो फिर तरह-तरह के अनगिनत लोगों के आने-जाने के इस भीड़ भरे रेलवे पार-पुल के एक किनारे पर वह इस तरह बिलकुल अकेले-अकेले क्यों खड़ी है ?
पैरों के पास से अचानक उभरी ‘ठक्-ठक्’ की तेज आवाज ने उस नवयुवती के सम्बन्ध में तरह-तरह की जल्पना-कल्पना, उधेड़-बुन के उलझे अनन्त को यथार्थ जगत की धरती पर लौटा दिया।
‘‘हो गया बाबूजी। देखिए न, कितना चमक गया आप का जूता।’’
अनन्त ने अपने पैरों की ओर दृष्टि डालकर देखा-सचमुच बहुत अच्छी तरह ही पालिश कर दिया है, जूतों की जोड़ी को इस छोकरे ने। जूतों का यह पुराना जोड़ा चमचमाने लगा है।’’
‘‘कितने पैसे हुए ?’’
‘‘दो रूपये, साहब ?’’
‘‘अरे वाह ! एक जोड़ी जूते की पॉलिश के दो रूपये हो जाते हैं भला ! लो रखो एक रूपया।’’
‘‘नहीं बाबू जी। क्रीम पॉलिश लगायी है। दो रूपये ही होंगे।’’

अनन्त को किसी और काम करने की कोई हड़बड़ी नहीं है। अतः जूता पॉलिश करने वाले छोकरे से तर्क वितर्क करने में दो चार मिनट उसने फ़ालतू में और खर्च कर दिये अनन्त लाचार होकर छोकरा दो की जगह डेढ़ रूपये ले लेने को राज़ी हो ही गया। उसने दो रूपये में से पाचास पैसे जैसे ही वापस किया कि एक अन्य सज्जन से फटी-फुटी अपनी एक जोड़ी सैण्डिल छोकरे के सामने बढ़ा दी-कीलें ठोक-ठोककर मरम्मत कर देने के लिए। अनन्त वहीं खड़ा-खड़ा उसे देखता रहा।
पार-पुल पर वहाँ खड़े होने पर जहाँ अनन्त खड़ा है, नीचे प्लेटफार्म नं. तीन का हिस्सा बहुत साफ़-साफ़ दिखाई पड़ता है। अनन्त ने उधर देखा तो पाया कि एक सफ़ाई जमादार एक बाल्टी में पानी ला-लाकर प्लेटफ़ार्म पर फैलाये दे रहा है। और एक दूसरा जमादार एक लम्बी झाड़ू से उस पानी को और पानी के साथ-साथ उस पर पड़े कूड़े-कचरे, मलबे को झाड़-झूड़कर हटाता जा रहा है। उस प्लेटफ़ार्म पर चाय समोसा, जलेबी बेचने वाला दुकानदार चाय गर्म रखने वाले चूल्हे में कोयला भर-भरकर उसे जलाते हुए छोटी-सी पंखी से धौंक –धौंककर आग को प्रज्वलित कर लेने की चेष्टा कर रहा है। चूल्हे से उठते हुए धुएँ ने उस सारी जगह को धूम्र-धूसरित कर दिया है। एक-एक, दो दो फेरी लगाने वाले पान-बीड़ी के विक्रेता उस पलेटफ़ार्म पर आने जाने लगे हैं। ऐसा लगता है जैसे बहुत जल्दी ही कोई एक रेलगाड़ी उस प्लेटफ़ार्म पर आ पहुँचेगी। इतने में ही अनन्त ने उस आदमी को देखा।

धोती कुर्ते में सजा-सँवरा अतिशय शौकीन क़िस्म का आदमी है वह। इतने दूर खड़े होने पर भी वहीं से उसके कुर्ते में लगी सोने की बटनों का पूरा-पूरा सही अनुमान अनन्त ने लगा लिया। स्पष्ट जान पड़ा कि वह आदमी काफ़ी उत्कठिण्त है, हड़बड़ाया-सा घबराया-सा किसी की प्रतीक्षा में विकल है। थोड़ी-थोड़ी देर पर वह बार-बार अपनी घड़ी पर दृष्टि डालता जा रहा है, और बस प्लेटफ़ार्म के इस छोर से उस छोर तक बार-बार चक्कर लगा रहा है। मगर उसकी इस उत्कण्ठा का, इस बेकली का, इस दुश्चिन्ता का आखिर कारण क्या है ?
खरे सोने की बटन पहनने वाले, अत्यन्त स्वस्थ सुन्दर सुदर्शन व्यक्तित्व वाले एक महाधनाढ्य पुरूष के मन में भला किसी बात की दुश्चिन्ता हो सकती है ? अनन्त के मन में जो विचार मंथन चल रहा था उसे पुनः झटका देकर तोड़ दिया उसी जूता पॉलिश करने वाले छोकरे की तेज आवाज़ ने-
‘‘ये लीजिए साहब ! आपका चप्पल बिलकुल दुरुस्त हो गया।’’
चप्पलों के मालिक ने अपने पैरों को उनमें डालकर बड़े ध्यान से देखना शुरू किया कि छोकरे ने जो मरम्मत की है वह ठीक-ठीक उनकी आशा के अनुरूप हो पायी है अथवा नहीं।
अब फिर अनन्त ने उस नवयुवती की ओर दृष्टि घुमाकर निहारा।
हाँ, है। वह नवयुवती अभी भी उस स्थान पर खड़ी हुई है। एक बार फिर जब उसकी आँखें अनन्त की आँखों, से मिली, तो जान-बूझकर अनन्त ने उसकी ओर मुस्कराकर देखा। यह देखने के लिए कि इस तरह मुस्कराकर देखने पर उस युवती के चेहरे के भावों मैं कुछ परिवर्तन आता है अथवा नहीं ?
नहीं। अनन्त ने उसके चेहरे पर अथवा उसकी देह- वल्लरी के अंगों में कहीं भी कोई भावान्तर होते, कोई विकार आते नहीं देखा।

परन्तु उसके थोड़े ही समय बाद अनन्त ने लक्ष्य किया कि पच्चीस-या कि तीस वर्ष का एक नवयुवक आकर उसकी बगल में खड़ा हो गया। और बस उसके साथ-ही-साथ उसका मुखमण्डल प्रसन्नता के मारे चमक उठा।
तो फिर यह नवयुवक कौन है ?
यह उसका चाहने वाला कोई सच्चा प्रेमी है ? अथवा धन के बदले में उसकी देह के अन्दर के प्रेम की खरीद करने को उत्सुक कोई धनाढ़्य कामी-लोलुप मौज-मस्ती लूटने वाला बदमाश ?

पत्र का टुकड़ा

तुम अगर इस कहानी की लेखिका रही होती, तो निश्चय ही नवयुवती का यह नारी चरित्र ही इस कहानी में प्रमुख स्थान किये होता । कारण यह कि अब तक के घटना क्रम में ही यह संकेत दिया जा चुका है कि यह नवयुवती कोई उतनी अधिक सुन्दर नहीं है। आर्थिक दृष्टि से कोई भी अधिक धन सम्पन्न नहीं है। उसके चरित्र के सम्बम्ध में भी दृढ़ता के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता।
सवेरे-सवेरे की साढ़े नौ बजे की वेला में, रेलवे के पार-पुल पर आने-जाने वाले तरह-तरह के अनगिनत लोगों की कुतूहल-भरी नज़रों के बीच बिना किसी डर भय के बस तनिक से ही फासले पर अकेले-अकेले खड़ी रहने वाली एक नवयुवती; एक ऐसे आकर्षक चरित्र में रहते हुए उसे छोड़कर क्योंकर हम, अनन्त की धैर्यहीन दशा, जूता-पॉलिश करने वाले छोकरे को ठग लेने में दिखाई गयी उसकी तत्परता प्लेटफ़ार्म नं. तीन पर उद्विग्न-परेशान हो इस छोर से उस छोर तक चक्कर लगाते महाधनाढ़्य आदमी अथवा चाय के दुकानदार के चूल्हे से उठते धुएँ, अथवा हर एक बार (सरकार द्वारा) रेलवे बजट में बढ़ा दिये जा रहे रेल भाड़े वग़ैरह-वग़ैरह विषयों पर क्यों ध्यान दें ?

परन्तु समस्या तो यह है कि मात्र केवल यह एक शोषिचा, अवहेलिता, लांछिता, दरिद्र स्त्री-चरित्र ही अनन्त के आज के इस विहान की वेला को पूरी तरह से अकेले-अकेले भरे रखे नहीं है। उसकी परेशानी के, उसकी धैर्यहीनता के और-और भी कारण हो सकते हैं।
हो सकता है कि उसने आज के समाचार-पत्र में जो अमिताभ बच्चन, राजीव गांधी वगै़रह द्वारा बोफ़ोर्स तोप सौदे के कमीशन की भारी धनराशि को विदे्शी बैकों में जमाकरने का महा-उत्तेजनापूर्ण समाचार पढ़ लिया हो फलत: उसके कारण भी अस्थिर हो गया हो। या फिर उसकी अपनी कोई निजी परेशानी, दुःख- दर्द, या कठिनाई भी तो हो सकती है । सम्भवत: उसी दु:ख-दर्द, हैरानी-परेशानी अथवा जनसाधारण की या फिर सरकारी कारणों से पैदा हुई किसी एक भारी अशान्ति के कारण ही अनन्त विचलित होकर वह अनमने भाव से रेलवे पार-पुल पर चक्कर लगाने आ गया हो और पार-पुल पर चहलक़दमी करते-करते ही उसने यकायक यह महसूस किया हो कि इस धरती पर वही एक अकेला नहीं है, बल्कि उसके इर्द-गिर्द और भी बहुत-सी घटनाएँ घटती जा रही हैं, जिनके ऊपर उसका कोई प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं है , जो पूरी तरह उसके वश के बाहर हैं।

जूता-पॉलिश करने वाले उस छोकरे की इतनी कच्ची उम्र में ही पैसा कमाने की मज़बूरी और कुशलता, चाय बेचने वाले की चूल्हा-भ़ट्ठी सुलगाने-जलाने में दिखाया गया तन्मयता प्लेटफ़ार्म पर इतने बड़े महाधनाढ्य आदमी की व्याकुल चहल-क़दमी अथवा फिर इस ग़रीब-दुखिया नवयुवती का पार-पुल के एक कोने में अकेले –अकेले खड़े रहना। इन तमाम सारी स्थितियों में से किसी एक पर भी उसका रंच-मात्र का नियन्त्रण नहीं है। इन सभी घटित हो रही घटनाओं का वह मात्र एक दर्शक भर है।
परन्तु ये ही चरित्र अगर तुम्हारे हाथ में पड़े होते, इनकी संरचना तुम्हें करनी रही होती, तो अन्तत उसी क्षण एक सामान्य दर्शक की भूमिका से उठकर प्रधान चरित्र से के रूप में बदल गया रहा होता। बिना कुछ देरी किये ही अनन्त तुरन्त जाकर उस नवयुवती के पास खड़ा हो गया होता और फिर उसकी अथवा अपनी निजी समस्या के समाधान के लिए तत्पर हो गया होता। और यह कहानी एक सुनिश्चित रास्ते से आगे बढ़ते हुए अपने उपसंहार की ओर समाप्ति की ओर पहुँची गयी होती। परन्तु मेरी तो सोचने-विचारने की वैसी सहज-सरल, सीधी-सपाट शैली नहीं है। और इसी कारण से, इतना कुछ कह चुकने के बाद भी, अभी भी मैं बता नहीं सकता कि अनन्त से सम्बम्धित इस कहानी का अन्त कहाँ है ?

कहानी का टुकड़ा

अनन्त ने देखा-वह नवयुवती उस नवागत नवयुवक के साथ किसी गम्भीर विचार-विमर्श में निमग्न हो गयी है। वे दोनों के दोनों परस्पर की बातचीत में इतने तल्लीन हो गये हैं कि उनकी ओर अनन्त जो महानिर्लज्जतापूर्वक एक टक निहारे जा रहा है, इस बात का तनिक भी ध्यान नहीं है। उनका इस तरह का एकात्मक भाव, बिलकुल घुलमिलकर एक हो जाने की स्थिति ही अनन्त की सारी उत्सुकताओं का केन्द्र-बिन्दु बन गयी है। अनन्त ने मन ही मन तय किया कि वे दोनों आपस में क्या कुछ बातें कर रहे हैं। सुनने का प्रयत्न किया जाय। परन्तु उनके कुछ पास सरक जाने पर भी वे अपनी फुसफुसाती मद्धिम आवाज़ में क्या कुछ बातें कर रहे हैं, अनन्त ठीक तरह से सुन नहीं पाया। अबकी बार उसने निर्णय किया कि भविष्य में वह ध्यान रखेगा कि यह नवयुवती यहाँ से फिर किस ओर जाती है तब वह भी उसी ओर जाएगा। इस तरह यह नवयुवती जिस गन्तव्य स्थान को जाएगी। यहाँ जाकर पहुँचेगी उस स्थान को देख-समझकर ही वह मोटे तौर पर अनुमान लगा लेगा; उसी आधार पर धारणा बना सकेगा कि यह नववयुवती असलियत में क्या है ?
तभी नीचे प्लेटफ़ार्म से उठते आ रहे, शोर-गुल, हो-हल्ले की आवाज़ उसे सुनाई पड़ी। तब नीचे की ओर दृष्टि ले जाने पर वह समझ गया कि आवाज़ उसे सुनाई पड़ी। तब नीचे की ओर दृष्टि ले जाने पर वह समझ गया कि रेलगाड़ी के आने का समय हो गया है।

चाय का दुकानदार कई गिलासों में एक साथ ही चाय-ढालकर रखते हुए तैयार हुआ जा रहा है। पान बीड़ी सिगरेट की फेरी लगाने वाले कई हॉकर दूर की प्लेटफ़ार्म से ओर आ रही रेलगाड़ी की ओर एकटक निहार रहे हैं। लाल रंग की वर्दी पहने कुली अपने-अपने माथों पर पगड़ियाँ बाँधने लगें हैं। प्लेटफ़ार्म पर जितने सारे अनगिनत यात्री विद्यमान थे वे सभी अपने-अपने झोले-झोपड़े, गठरी-मोटरी, बक्से-अटैची हाथों-हाथों में उठाने लगें हैं। इतने में ही अनन्त ने कुर्ते में सोने के बटन पहनने वाले उस महाधनाढ्य आदमी को फिर देखा। इस समय वह एक युवती के साथ बड़ी आत्मीयता से घुल-मिलकर, हाथ की विभिन्न मुद्राओं के सहारे बातें करने में मशगूल है। युवती को वह कुछ समझाने बुझाने की कोशिश कर रहा है,.... पर लगता है कि उसे मना नहीं पाया। पार-पुल के ऊपर से देखते हुए अनन्त को कुछ ऐसा ही आभास हुआ अनन्त ने लक्ष्य किया कि इस तरह उस नवयुवती को समझाते-बुझाते वह आदमी प्लेटफ़ार्म के उस छोर की ओर लिवा ले गया, जिधर से गाड़ी आ रही थी तथा जिस जगह पर आदमियों की संख्या बहुत कम थी।

रेलगाड़ी अब प्लेटफ़ार्म को पहुँचने-पहुँचने को ही है। लो, रेलगाड़ी वह आ ही गयी, कि इतने में ही अनन्त ने अत्यन्त आश्चर्यचकित होते हुए देखा कि उस नवयुवती को यकायक एक बड़े ज़ोरों से धक्का मारकर चलती हुई रेलगाड़ी के आगे ही गिरा दिया। नीचे पड़ते-पड़ते ही उस स्त्री की देह रेलगाड़ी के चक्के के नीचे पड़कर टुकड़-टुकड़े हो गयी। अनन्त की आँखों के सामने ही उसकी देह का ख़ून, मांस, हाड़, मस्तक सभी कुछ तितर-बितर हो गया, भुजुरी-भुजुरी हो गया।
अनन्त ने तुरन्त ही प्लेटफ़ार्म पर नज़र दौड़ायी, और उस आदमी को देख भी लिया, निश्चय ही। उसने देखा कि वह भागते-पराते उस चलती रेलगाड़ी के एक डिब्बे में उछलकर चढ़ गया। प्लेटफ़ार्म पर उस वक़्त आस-पास जो कुछ लोग खड़े थे, इस घटना के इतने आकस्मिक ढंग से घट जाने के कारण ऐसे अचकचा गये कि कुछ सोच-विचार ही नहीं कर पाये। हतप्रभ हो गये, काठ-मारे-से निर्जीव पड़ गये। उन आदमियों की आँखों के सामने ही, उनके देखते-देखते ही, हत्यारा दौड़कर चलती हुई रेलगाड़ी के किसी एक डिब्बे में जा छिपा !

तेज लम्बी दौड़ लगाता हुआ-सा अनन्त पार-पुल पर से प्लेटफ़ार्म पर उतर आया। उसने उसी क्षण सही-सही अनुमान लगा लिया कि वह हत्यारा रेलगाड़ी के किस विशेष डिब्बे में घुसा हो सकता है ? रेलगाड़ी रूकते ही, उस डिब्बे से उतरने वाले यात्रियों की भीड़ को किस तरह ठेलठूल कर एक किनारे से जगह बनाते हुए, काफ़ी कुछ परेशानी उठाते हुए वह अन्ततः उस डिब्बे में घुस ही गया। उसने ठान लिया-उसे खोज-ढूँढ़कर बाहर निकालना ही है-कुर्ते में सोने की बटन पहनने वाले उस पापी हत्यारे को कि तभी उसने कुर्ते वाले हत्यारे को देख भी लिया। आगे बढ़कर उसकी पीठ की ओर से उसने झपट्टा मारकर उसे धर दबोचा। तुरन्त ही उस आदमी ने पीछे मुड़कर देखा, और तब अनन्त ने समझा, ओह। यह तो वह आदमी नहीं है। यह तो अभी एक छोटा किशोर बालक है। और फिर उस महाधनाढ्य की तरह धोती भी नहीं पहने हुए है, यह तो पैजामा पहने हुए है। नहीं, यह बिलकुल ही नहीं है।

डिब्बे के आदमियों के नीचे उतर जाने के कारण थोड़ी देर में ही पूरा डिब्बा खाली हो गया। वह डिब्बे से नीचे उतरने को हुआ ही कि उसने दोखा कि धोती कुर्ता पहने हुए एक आदमी हड़बड़ाता-भागता पार-पुल की ओर चला जा रहा है। फिर क्या था, वह एक साँस में ही दौड़कर उसके पास पहुँच गया। परन्तु नहीं। यह आदमी वह नहीं है ! यह बेचारा तो एक बूढ़ा आदमी है। ऊपर से उसके मुँह पर एक झुण्ड दढ़ी फैली है। और फिर उसके कुर्ते में सोने के बटन भी नहीं है! कुरता भी मैला कुचौला है! तो इसका मतलब यह है कि हत्यारा इस तरह भाग कर बच जायेगा।
कुछ देर बाद। आदमियों ने उस युवती की लिद्दर-छिद्दर मृत देह को, लास को उठा लाकर प्लेटफ़ार्म के एक किनारे पर रख दिया है। कुछ लोग उसे चारों ओर से घेरकर देखने के लिए खड़े हो गये हैं। अनन्त अब उस भीड़ की ओर गया। वहाँ पहुँचने पर एक ने उसे समझाया ‘‘समझ रहे हैं ? अरे आत्म-हत्या का मामला है। नवयुवती पेट से थी यानी गर्भवती थी। बस, आत्महत्या कर ली।’’
अनन्त ने उसका विरोध करते हुए कहा,‘‘नहीं साहब ! नहीं। आत्महत्या कतई नहीं है यह तो साफ़-साफ़ हत्या है। यह एक जानबूझकर किया गया क़त्ल है। मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा है कि एक आदमी ने उसे धक्का मारकर चलती हुई रेलगाड़ी के आगे गिरा दिया।’’
वहाँ उपस्थिति लोगों ने उसकी ओर अविश्वास भरी नज़रों से देखा। उसने फिर मद्धिम आवाज़ में धीरे-धीरे समझाने की कोशिश की-‘‘आप लोग विश्वास कीजिए। मैंने स्वयं प्रत्यक्ष देखा है।’’
परन्तु किसी ने भी उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया कि तभी पुलिस के कुछ जवान आ पहुँचे और वहाँ से उन्होंने भीड़ को हटाना आरम्भ कर दिया।

फिर तो वह निराश-हताश हो अत्यन्त खिन्न मन से एक क़दम, दो क़दम चलते-चलते वहाँ से दूर हट आया।
अनन् धीरे-धीरे पार-पुल पर ले जाने वाली सीढ़ियों पर चढ़ने लगा। और फिर एक समय वह पार-पुल पर चढ़ भी आया।
जूता-पॉलिश करने वाला छोकरा किसी के जूते पर रंग चढ़ा रहा है। अनन्त चलकर अपनी पहली वाली जगह पर ही जाकर खड़ा हो गया। वहीं से उसने देखा-उस युवती की लाश के पास दो डॉक्टर क़िस्म के आदमी और पुलिस के सिपाहियों का एक झुण्ड इकट्ठा हो गया है। अभी थोड़ी देर पहले उसने हड़बड़ी में जो भाग दौड़ की थी। उसकी वज़ह से उसे भारी थकान भी महसूस होने लगी थी। अतः उस पार-पुल के एक खम्भे की टेक लेकर आराम से निढ़ाल होकर उसने कुछ देर तक अपनी थकान मिटायी। इतने में उसे फिर उस नवयुवती की बात याद आयी....नहीं है। उसने ध्यान देकर देखा वह रंगीन नवयुवती छोकरी पहले जिस जगह खड़ी हुई थी, वहाँ तो नहीं है। पार-पुल के इस छोर से उस छोर तक सर्वत्र नज़रें दौड़ा-दौड़ाकर भी वह कहीं भी उस युवती को ढ़ूँढ़कर निकाल नहीं पाया। तब एक अद्भुत प्रकार का विषाद-अववाद ने उसकी पूरी देह को, उसके समूचे मन मष्तिष्क को जकड़ लिया।

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