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मंगलसूत्र

शिवशंकर पिल्लै

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1232
आईएसबीएन :81-263-0118-x

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प्रस्तुत है मलयालम की श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह....

Mangalsutra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें मानवीय संवेदना का आश्चर्यजनक क्षेत्र इन कहानियों के अन्तर्गत समोया गया है। तकषी की सहानुभूति गरीबों एवं दलितों के प्रति, बेघरबार लोगों तथा गन्दी बस्तियों में रहनेवाले,सड़कों पर मारे-मारे फिरनेवाले शरीफ लोगों के प्रति है,जिन्हें अविश्वास निराशा और कूरता के बीच जीवन गुजारना होता है। यह जीवन का शुद्ध रूप है।

मुझे इतना तो कहना ही है...

(पहला संस्करण, 1991 से)

मेरी करीब तीस कहानियों का यह संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित किया जा रहा है। मेरी इन कहानियों में पाठक मुझे देख पाएँगे। उपन्यासों द्वारा उतना नहीं जितना कहानियों द्वारा हो सकता है। कारण यह कि कहानियों को मैं लिखता हूँ, जबकि उपन्यास लिखे जाते हैं। समाज ही उपन्यास का कर्ता है। मुझे जो कुछ कहना है, वह स्वयं उपन्यास बन जाता है। पर तकषी नामक लेखक को उनकी कहानियों में ही देखा जा सकता है। यह जान-बूझकर नहीं, फिर भी बहुत समय से मैंने कहानी प्रायः नहीं लिखी है। यह नहीं कि कहानी की उपेक्षा की हो। वह सुन्दरी अब भी दुःखी है कि मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया है।

यह कैसे हो गया ? ‘कयर’ को मिलाकर मेरे उपन्यास इसी समय लिखे गये थे। उपन्यासों में यह कालखण्ड रूपायित हुआ है। सातवें दशक के अन्तिम चरण में मैंने ‘कयर’ लिखना शुरू किया था। फिर ज्यादा कुछ लिख नहीं पाया था। कहानी को छोड़ने का यही कारण है। छठे और सातवें दशकों में मैंने कहानियाँ लिखीं हैं। पर सिर्फ कहानी की ओर ध्यान देना मुमकिन नहीं था। मेरे उपन्यास भी निकलते रहे। आठवें दशक के प्रथम चरण में भी मैंने कहानियाँ लिखी हैं-पर कम। उपन्यास भी लिखा। बड़े कैनवास पर ही लिख रहा हूँ, जिससे कहानियाँ लिखने की एकाग्रता नहीं मिलती। फिलहाल मैं दो उपन्यासों पर काम कर रहा हूँ। एक तो प्रागैतिहासिक समय से सम्बन्धित है।

भारतीय ज्ञानपीठ में मेरा यह कहानी-संग्रह ‘तकषी की कहानियाँ’ प्रकाशित हुआ था, पाँच वर्ष पहले। अब इस संकल्प को भी प्रकाशनार्थ स्वीकृति देकर ज्ञानपीठ ने मेरा मान बढ़ाया है। इस अवसर पर मेरी इन कहानियों के संयोजक-सम्पादक और अनुवादक मित्रवर प्रो. वी.डी. कृष्णन नम्पियार का भी स्मरण करता हूँ।
आशा है सुदूर केरल प्रदेश के जन-जीवन को निकट से देखने का अवसर आपको इन कहानियों में मिलेगा। यहाँ के मामूली गरीब लोगों के हर्ष-विषादों, आशा-आकांक्षाओं, कामयाबी-नाकामयाबियों और उत्थान-पतनों की दास्तान अगर इन कहानियों में, छोड़ी ही सही, आप सुन पाएँ, तो मैं अपने को धन्य मानूँगा। दरअसल, मुझे इतना तो कहना ही है।

भूमिका

बहुत पुराने समय से कहानी के द्वारा बात सुनने-सुनने की वासना मनुष्य में रही है। बैसी कहानियाँ ह्रदयाकर्षक तभी होतीं, जब उनमें अनुभव की दीप्ति एवं कथनशैली की भंगिमा होती । पुरानी सदियों में कहानियों को,बिना छन्दस्कृत शैली में बताने में असुविधा थी। तब मनुष्य की माँग ठीक से पूरी नहीं होती थी। फिर वह पुरानी छन्दस्कृत शैली की कहानियों को बार-बार दुहराया गया। नहीं तो पुराने बुजुर्गों ने अपने मनोधर्म के आधार पर नयी-नयी कहानियों को सुनाया होगा। ठीक कहूँ तो छपाई कला के बाद ही जीवन की कहानियों को आख्यान करने और आस्वादन करने की सुविधा मनुष्य को प्राप्त हुई हो। उस हालत में पद्य से ज्यादा गद्य में ही कथा वर्णन होने लगा । बल्कि गद्य में जीवन की कहानियों को और विस्तार से बताया जा सकता था। आज की कहानियों और उपन्यास के आदि रूप इन्हीं दिनों फूट निकले होंगे।

सम्पूर्ण जीवन की कहानियाँ, खासकर आम जनता की जिन्दगी की कहानियाँ विस्तार से लिखने में तब देर नहीं हुई। कृषक-संस्कृति से औद्योगिक संस्कृति की ओर बढ़े यूरोप के देश-ब्रिटेन, फ्रान्स, और रूस-यही तीन देश इस क्रान्ति के अग्रगामी रहे। गहराई और विस्तार की बात में फ्रान्स ने रूस और ब्रिटेन से बढ़ौती हासिल की थी। पर चूँकि सर वाल्टर स्कॉट ने ऐतिहासिक उपन्यासों का श्रीगणेश किया था, इसलिए ब्रिटेन को आश्चर्य का स्थान दिया जा सकता है। प्राक्तन संस्कृति के पूज्य केन्द्र बताये गये देशों ने ऐतिहासिक पद्य-काव्यों से जो पाया, प्रायः वे सब ब्रिटेन, फ्रान्स और रूस जैसे नये देशों ने ऐतिहासिक गद्य काव्य-उपन्यासों द्वारा प्राप्त किया । यूरोप के बृहद्रुपाकार उपन्यासों के साथ लघु आकार की कहानियाँ भी रची गयीं। औद्योगिक संस्कृति के फलस्वरूप जल्द-से-जल्द हो गये सामाजिक जीवन को उन छोटे आकार की कहानियों का स्वागत करने का उत्साह बढ़ा भी। ये कहानियाँ पहले-पहल संक्षिप्त जीवन-कथाएँ थीं। बाद में वे जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों का वर्णन करनेवाली हो गयीं। समुद्र जैसे प्रक्षुब्ध जीवन की एक झाँकी-कहानी वही हो। तब से कहानी भावगीत की तरह बहुत सोच-समझ के लिखा जाने वाला साहित्यिक नमूना हो गयी । यूरोप में इस कहानी-विधा का झण्डा फहराया था क्रान्स और रूस ने। यानी मोपासाँ और चेखव ने। उनसे बेहतर कोई लेखक अभी तक पैदा नहीं हुआ है। कभी-कभार बहुत बढ़िया कहानियाँ हर देश ने भेंट की होंगी बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कैथरीन मैन्सफील्ड, हेच.ई. बेट्ज जैसे इने-गिने अँग्रेजी कहानीकारों ने मोपासाँ और चेखव का अनुकरण करते हुए, कथावस्तु को बहुत छोटा कर दिया । छोटी-छोटी विसंगतियों पर ही उन्होंने लिखा था। (लिटिल आइरजीज) मोपासाँ और चेखव ने फ्यूडलिज्म की पूँजी-अभिजात्य पर बम गिराये थे। वे कहानियों द्वारा ही पतनात्मक जीवन और उस जीवन की किसी भी गुप्त कड़ी को खोल दिखाने से हिचके नहीं । पर उन दोनों में कैसा अन्तर ? जबकि मोपासाँ ने इस पर ज्यादा ध्यान दिया था कि कैसे लिखा जाय, तब चेखव ने मन लगाया था कि क्या लिखा जाय। इसी प्रकार उनकी कहानियों में उन दोनों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की प्रेरक शक्ति अलग-अलग है।

मलयालम में उपन्यास और कहानी के उद्भव की पृष्ठभूमि समझने के लिए ही इधर-उधर इतना कुछ लिखा गया है। अँग्रेजी द्वारा प्राप्त नमूनों के आधार पर ही इधर चाहे उपन्यास हो या कहानी हो, लिखी गयी थी। पूर्वापर सम्बन्ध भी वही, यानी यूरोप के क्रम से ही। बीकंस फील्ड के नमूने पर चन्तुमेनन और स्कॉट के अनुकरण में सी.वी. ने अपने-अपने जीवन के अनुभवों पर उपन्यास लिखे। प्रायः इसी प्रयोग के पीछे ही इधर कहानी के अंकुर फूटे। उस समय की पत्रिकाओं ने कहानी को विकसित किया। यूरोप के देशों की तरह यहाँ भी प्रारम्भ में कहानियाँ संक्षिप्त जीवन-कथाएँ थीं या उपन्यास के संग्रह थीं। ओटुविल कुञ्ञु कृष्ण मेनन की कहानियाँ इसका सबसे बढ़िया उदाहरण हैं। उनके समकालीन एम.आर.के.सी. और अम्पाटि नारायण पोटुवाल् जीवन-कथाओं की अपेक्षा घटना-प्रधान कहानियों में तत्पर थे। इसलिए उनकी कहानियों में वैचित्र्य ज्यादा है। एक प्रकार से उनकी कहानियों ने ही मलयालम में ठीक से कहानी की रूप रेखा निर्मित की थी। फिर भी वे कथावस्तु का आभिजात्य खो देने को तैयार नहीं थे। उनके अनुगामी ई.वी.ने ही साहस कर दिखाया था।
इस प्रारम्भ कालीन कहानिकारों में ज्यादातर ब्रिटिश परम्परावाले ही थे। ब्रिटिश शैली में पढे-लिखे लेखक बन गये थे। इस विरासत से हटकर कहानीकारों की एक नयी पीढ़ी की सृष्टि केसरी बालकृष्ण पिल्लै ने की थी। यूरोप के साहित्य का काफी अध्ययन करके, फ्रेंच और रूस की कृतियों का अनुवाद करके और अँग्रेजी साहित्य से पृथक यूरोप के साहित्य की विशेषताओं को उभार के उन्होंने मलयालम के युवा लेखकों को यूरोप का दृष्टि कोण प्रदान किया। तिरूवनन्तपुरम में उनके पत्र के दफ्तर में रोज नवोत्थान प्रार्थी युवक आया करते थे। उन्हें सीधे उपदेश देते और जो प्रतिभा शाली दिख पड़े, ऐसों का हाथ पकड़कर नये ढ़ंग से लिखवाने का मन लगाते। मोटे तौर पर नवयुग के मसीहों एवं मूर्ति-भंजकों की इस पुरूष-पाँत के बहुत कुछ लेखकों के वे मार्गदर्शक रहे। जीवन के प्रति हमारे लेखकों का रूढ़ दृष्टिकोण उन्होंने एकदम बदल डाला । सांस्कृतिक क्षेत्र में उनका किया ऑपरेशन प्रायः सफल रहा। इसके प्रमाण के रूप में कुछ लेखक सामने आये, जिनमें प्रथम हैं इस कहानी –संकलन के लेखक श्री तकषी शिवशंकर पिल्लै। बुजुर्गों का रोका कोई भी फल तोड़ खाने का आचार्य जैसा या कहीं उनसे भी बढ़कर साहस एक शिष्य तकषी ने दिखाया था।

तकषी को कहानी-लेखन शुरू किये अब तीस से ज्यादा साल हो गये होंगे।इसी बीच बहुत ज्यादा बहुत लिखा भी है। हमारे पुस्तकालयों के शेल्फ में तकषी का एक अलग कोना खोला जाय-इतनी अधिक कहानियाँ है उनकी। कहानियों के साथ ही उपन्यास भी उन्होंने लिखे हैं। लिखते-लिखते कहानीकार से ज्यादा उपन्यासकार हो गये हैं। तीस साल से ज्यादा लिखने के बावजूद उनके हाथ थके नहीं, अनुभव के स्त्रोत सूख नहीं गये हैं। इस पीढ़ी के हमारे कथा-लेखकों में भारत के बाहर माने जानेवाले एक ही लेखक हैं। वे तकषी हैं, यह उन्हें और केरल को गर्व की बात है। एक और बात उनके बारे में बतानी है। बहुत छोटे पैमाने पर शुरू करके, साहित्य सेवा में ही लगे रहकर, आर्थिक शक्ति प्राप्त करने वाले इने-गिने साहित्यकारों में वे प्रमुख हैं। वह भी इस जमाने में, जब साहित्य का बाजार गरम होता जा रहा है। ऐसा नहीं कि यह सब उन्होंने किसी रोक रूकावट के बिना पाय़ा हो। साहित्य के क्षेत्र में नाम कमाने रूढ़िवादियों से उन्हें निरन्तर संघर्ष करना पड़ा। केसर बालकृष्ण पिल्लै और कतिपय सांस्कृतिक संस्थाओं के बल पर केरल-भर में वैचारिक क्रान्ति का बीज बोने का साहस, जिन महारथियों ने दिखाया, उनमें तकषी का नाम सबसे आगे है।

ऐसे साहसी लेखकों ने राष्ट्रीय, सामाजिक और मानवीय बातों के लिए डटकर संघर्ष किया था। इसलिए उनके हर भाषण और हर कृति का अपना लक्ष्य था। यद्यपि अभिजात विधानों ने बराबर रोक लगायी कि साहित्य-रचनाओं का कोई उद्देश्य न हो, तो भी वे हटे नहीं। संक्षेप में कहा जाय तो पदवाक्य छन्दालंकारों का जो साहित्य में अधिपत्य रहा, वहाँ मानव-मूल्यों के राज के लिए लोगों ने जो संघर्ष किया, वह पच्चीस वर्षों के अन्दर सफल हो गया। उसकी विजयपताका में तकषी की कृतियाँ ऊपर अंकित हैं
गौर से देखें तो तकषी की कहानियों में मोपासाँ और चेखव मिलेगें पर मोपासाँ की रंगीन शैली एवं चेखव की व्यंग्य उनकी कहानियों में ढ़ूँढ़ना व्यर्थ होगा। नारी-जीवन की विसंगतियों को उभारने में मोपासा और जीवन के विस्तार में घूमकर अनुभवों को बटोरने, उनका सीधा-सादा चित्रण करने में चेखव का प्रभाव उन पर पड़ा है। आरम्भिक कहानियों में मोपासाँ का रंग और बाद की कुछ कहानियों से चेखव की गम्भीर-सार्थक शैली का थोड़ा-बहुत प्रभाव है।

वस्तु चयन के प्रारम्भ में आस-पास के जीवन से तकषी को, गरीबी से ध्वस्त जीवन की विसंगतियाँ, विशेषकर नारी-जीवन की विषमताएँ ही मर्मस्पर्शी लगीं। यह शिकायत बराबर सुनने को मिली है कि तकषी ने मोपासाँ के पीछे जाके लैगिक विकृतियों को चित्रित करके हमारे सांस्कृतिक जीवन को खराब किया है। आज उतनी मात्रा में नहीं। ‘चन्द्रोत्सव’ जैसी कृतियों में प्राप्त लैंगिक केलियों में जिन्हें कोई दोष नजर नहीं आया, उन्ही अभिजात पण्डितों ने यह ढ़िढोरा पीटा है। उन मालिकों की मन मानी जो अपने असामियों के सौन्दर्य पर हाथ लगाने का हर मौका इस्तेमाल करते हैं, उसे छिपा रखना चाहती थी। तकषी ने पर्दाफाश किया उस कालाबाजार वाली वासना का। तो वे सदाचारी चुप रहेंगे? फ्रांस की मदालसा वारांगनाओं की विसंगतियों के बदले तकषी ने केरल के टूटे-फूटे परिवारों के लैंगिक व्यभिचार का वर्णन किया था, बस।
मुझे इन कहानियों को पढ़ते हुए एक सवाल आया। चाहे मोपासाँ हो, चाहे तकषी हों या और कोई हो....पुरूष की लैंगिक विकृतियों का ढिंढोरा न पीटने का राज क्या है? उसके कन्धे पर झोली नहीं, इसलिए वह कुछ भी कर सकता है? क्या उसके लिए सदाचार का बन्धन नहीं? या कि इसलिए ज्यादातक लेखक पुरूष हैं इसलिए उसे बेकसूर छोड़ा है? तकषी को इन सवालों का एक जवाब होगा। गरीबी में मुक्ति पाने की आखिरी उपाय लैंगिक व्यापार है-यह नारी जाति की मजबूरी है, पुरूष की नहीं। फिर पैसा भी पुरूष के हाथ है। संक्षेप में, नारी-जीवन के भटकावों को इतना अधिक महत्त्व देने मेरे दोस्त को प्रेरित किया हो, उसमें अन्तर्निहित लैंगिक लिप्सा ने ही नहीं वरन् उससे अटकी हुई आर्थिक कठिनाई ने भी ‘एक सन्मार्ग विचार का बाकी’, ‘नौकरानी’, ‘ताड़ीखाने में’, ‘कल्याणी की कहानी’, ‘बेटियाँ’, ‘अन्धे की धन्यता’, ‘चिथड़े का टुकड़ा’, मंगलसूत्र’ जैसी कहानियाँ उदाहरण हैं। नारी की कमजोरी का फायदा उठानेवाली पुरूषजाति की कहानियाँ भी उन्होंने रची हैं। जैसे कि ‘पहला प्रसव’ और ‘गोरा बच्चा’।

यह विचार गलत है कि अच्छे कहानीकार के रूप में तकषी की आँखें लैंगिक विसंगतियों पर ही गयी हैं। समकालीन राजनीति को मिलाकर मामूली जीवन की कई विचित्र विसंगतियों को उन्होंने बड़ी खूबी से विचित्र किया है। भले ही वे चेखव की तरह क्रान्तदर्शी नहीं थे, तकषी की कल्पना जीवन की प्रायः सभी पगडण्डियों से गुजरती थी। दो पीढ़ियों में खड़े बाप-बेटे-रिश्ते की शिथिलता, एक ही पीढ़ी में भाई-बहन-सम्बन्ध की पड़ी दरार, छोटी बहन की शादी के बाद भी कुँवारी कहने के लिए शापग्रस्त दीदी का दुःख, वह उदारता को जिन्दा रहने पर न होती और मरने पर श्मशान की ओर दौड़ आती, झूठे अभिमान के मारे झगड़ा और बँटवारा करके बरबाद होते परिवार, जेल में हमजोलियों के बीच बढ़ता भाई-चारा, सब कुछ लुटाने के बावजूद किसानों में शेष रही कृषक-संस्कृति, अमीरों के यहाँ क्राँग्रेस के खिलाफ डाले गये अकेले वोट का मूल्य, गाँधीजी की मृत्यु के पीछे की राजनीति, धर्म की राजनीति के बावजूद नहीं काटा जा सका भाई-चारा-ऐसी कितनी ही पगडण्डियों से। इन बातों में उन्हें धर्म और जाति का भेद नहीं।

यद्यपि समकालीन जीवन की चीख-चिल्लाहटों और पीड़ाओं को पकड़ने और चित्रित करने में वे प्रायः चिन्तित थे, तो भी कट्टनाटु के जीवन का प्रतिपादन करते समय ही तकषी पूरे अर्थ में तकषी हो जाते। ‘तहसीलदार के पिता’ के केशवपिल्लै को देखें। ‘तै तै तों करकुतकततै.....तकतों’ कट्टनाटु की निचले खेतों पर वृश्चिक-धनु महीनों में सुनाई देनेवाला सिंचाई-गीत, साठ बरस के नित्य-परिचय से साँसों का हिस्सा हो चुका था। सत्तर के बाद अपने बेटे तहसीलदार के बँगले पर पत्नी की मृत्यु के बाद प्रायः अकेले हो गये पिता धनु (अगहन) महीने के शुरू में अनजाने ही गा उठा। वह तकषी जी का ही कोई पुराना रिश्तेदार रहा होगा। शायद ऐसा ही एक भाव ‘किसान’ के केशवन नायर में भी हो। कट्टनाटु के कृषक-जीवन की पृष्ठभूमि पर लिखी हरिजन स्त्री चिरूता की कहानी भी इसी कोटि में अनुभव की रोशनी से दीप्त कहानी है। तिरूवनन्तपुरम की पृष्ठभूमि पर लिखी कहानियों में भी तकषी की अपनी खासियत मुझे दिखाई देती है। अपने चिर-परिचित और चिर-व्यवह्रत कुट्टनाटु एवं तिरूवनन्तपुरम के जीवन की ओर बढ़ते समय मेरे मित्र की कलम विशेष रोमांचित हो जाती। स्वानुभव से दूर की कुछ कहानियों में, सच कहूँ, तो तकषी तकषी नहीं बन पाये हैं। शायद इस प्रकार का फर्क उनके उपन्यासों में भी देखा जा सकता है कुट्टनाटु के जीवन से सम्बद्ध ‘रण्टिठाषि’ (दो सेर धान) और राजधानी तिरूवनन्तपुरम से फूट पड़े एणिप्पटिकल्’ (सीढ़ी के झण्डे) शायद उनके उपन्यासों में अनुभव की तीक्ष्णता से बेजोड़ हैं।
संक्षेप में, समकालीन जीवन के यथार्थ पर चुभनेवाली है तकषी की कल्पना शक्ति। ‘Talent is knowledge of life. Talent is courage’ (प्रतिभा जीवन का ज्ञान है। प्रतिभा साहस है।) चेखव की कल्पना-शक्ति पर ब्लाडिमर एर्मिलोव का यह कथन इस प्रसंग में ठीक लगता है। जीवन के बारे में, उसमें भी विशेषकर समकालीन जीवन के बारे में जानना-अच्छी तरह जानना-वही कृति की पूँजी है। उसे अर्जित करनेवाले लेखक को ही आत्मविश्वास होगा। इस मापदण्ड पर माप लिया जाय, तो पाठक निर्णय कर सकें कि तकषी कौन हैं और क्या हैं। मुझे अपने मित्र पर गर्व इसलिए है कि उन्होंने समकालीन जीवन की विसंगतियों को यथासम्भव देखा-परखा और पूरे आत्मविश्वास के साथ उसे लिखा। वाक्-चातुरी में उन्होंने काव्यकला का दम नहीं घोंटा। ऐसा किया होता तो अब तक उन्हें केरल के लोग भूल गये होते।
अपनी कहानियों में कई घटनाओं के साथ कई पात्रों को भी अंकित किया है तकषी ने। पर उनका सबसे बड़ा पात्र अपना गाँव है, उस गाँव की चीखों और दुःखों की जिन्दगी है।

सामान्यतः कथा वस्तु ऐसे दुःखों की जिन्दगी होने के कारण ही, तकषी साहित्य को ‘नाली-साहित्य’ की संज्ञा देने की अभिजात सहृदयों में कइयों ने पहल की है। उनमें से कुछ लोग अरविन्द घोष या किसी और के दृष्टिकोण से ही साहित्य का मूल्यांकन कर सकते । ये महाशय ‘जीवित वर्ज्य साहित्य’ सिद्धान्तवाले हैं। इन्हें वह दृष्टिकोण नहीं कि साहित्य द्वारा मानव-जाति को सांस्कृतिक जीवन के साथ भौतिक जीवन का ‘सुन्दर कल’ वाला दृष्टिकोण दिया जाय। इसलिए वे रोजमर्रा से जीवन के दुःखों और उलटे-फेरों की ओर से आँख हटा लेते हैं। उनका पर्दाफाश करनेवालों को नफरत करते हैं। ऐसे सह्रदयों की अन्धी राजनीति से ही तकषी जैसे पुरोगामी लेखकों की कृतियों की नैतिकमूल्यों के नाम पर हमारे सांस्कृतिक मन्दिरों में मनाही होती है।

तकषी की भाषा-शैली पर एक शब्द। कई मंचों से उन्होंने भाषण दिया है कि मैंने व्याकरण नहीं पढ़ा है और भाषा पर मेरा अधिकार नहीं है। एक प्रकार से यह ठीक है। उन्होंने सीखा था जीवन का व्याकरण और लिखी है जीवन की भाषा। जीवन में अवगाह लेकर जो कुछ कहना था, उसके अनुरूप उसकी भाषा हो गयी। बताने की बात व्याकरण-सम्मत बनाके अपनी भाषा में बताएँगे, तो उसका अपना व्याकरण हो जाएगा। पर एक बात। शुरू में दूसरे लेखकों की तरह तकषी ने भी भाव और भाषा को अलग-अलग देखा । यही नहीं, शायद भाव से ज्यादा भाषा पर ध्यान दिया हो। इसलिए उस समय की भाषा कुछ कृत्रिम-सी हो गयी। पर धीरे-धीरे वह कृतिमता अपने आप खुल गयी। श्रेष्ठ कृतियों में उनकी भाषा। उनकी कलम ने पहचानी नहीं । अतिस्वाभाविक व ललित है वह भाषा। तकषी का हर वाक्य कहीं टकराए बिना सीधे पाठक के ह्रदय तक पहुँच जाता है। अच्छी शैली का बढ़िया लक्षण भी यही है।

बाढ़ में

गाँव में ऊँचें स्थान पर एक मन्दिर है। वहाँ देवता गले तक पानी में डूबा पड़ा है। पानी। सब कहीं पानी-ही-पानी है। सभी गाँव वाले बसेरा ढूँढने चले गये हैं। जिसके घर नाव है उसके यहाँ घर की रखवाली के लिए एक आदमी रह गया है। मन्दिर की तीन कमरों वाली छत पर सड़सठ बच्चे थे। तीन सौ छप्पन लोग, कुत्ता, बिल्ली, बकरी, मुर्गा-जैसे पालतू जानवर भी। सभी एक जुट होकर रह रहे थे। कोई झगड़ा नहीं था।
चेन्नन् को पानी में खड़े एक रात और दिन हो गया। उसके नाव नहीं है। उसके यजमान को प्राण लिये किनारे पहुँचे तीन दिन हो गये। जब पानी झोंपड़े के अन्दर पहुँचने को हुआ तो टहनियों और लठ्ठों से ताक और मचिया बना ली थी। यह सोचकर की पानी जल्दी उतर जाएगा, वह दो दिन तक उसी पर बैठा रहा। इसके अलावा चार-पाँच केले के गुच्छे और फूस का अम्बार भी तो था। वहाँ से चल दिया तो सारी चीजें कोई चालाक उड़ा ले जाएगा।

अब तक तो मचिया पर घुटनों पानी है। छप्पर छाने वाले नारियल के पत्तों की दो पक्तियाँ पानी के नीचे हैं। अन्दर से चेन्नन् चिल्लाया, पर सुनेगा कौन? पास है कौन? गर्ववती पत्नी, चार बच्चे, एक बिल्ली और एक कुत्ता-इतने प्राणी उसी पर आश्रित हैं। उसे निश्चय हो गया कि झोंपड़े के अन्दर पानी निकलने में तीस घण्टे से कम नहीं लगेंगे। अब तो अपना व परिवार का अन्त आसन्न है। मूसालाधार वर्षा तीन दिनों से लगातार हो रही है। झोंपड़े के नारियल-पत्ते हटाकर चेन्नन् किसी प्रकार बाहर आया। चारों ओर देखा। उत्तर की तरफ बड़ी नाव जा रही थी। उसने जोर लगाकर नाव वालों को पुकारा। नाव वाले, सौभाग्य से, बात समझ गये। उन्होंने नाव झोपड़े की ओर मोड़ी। चेन्नन् अपने बच्चों, पत्नी, कुत्ते और बिल्ली को एक-एक करके छप्पर बाहर ले आया। तब तक नाव भी आ गयी।

बच्चे नाव पर चढ़ने लगे। ‘‘चेन्नन् भाई, सुनो जरा!’’ पश्चिम की ओर से कोई बोल रहा था। चेन्नन् ने मुड़कर देखा। ‘‘इधर आओ!’’ वह कुंजप्पन था। अपनी मचिया पर से बुला रहा था। चेन्नन् ने पत्नी का हाथ पकड़कर उसे नाव पर बिठाया। उसी ताक में बिल्ली भी नाव पर चढ़ गयी। किसी को कुत्ता याद नहीं आया। वह झोपड़े के पश्चिमी ओर इधर-उधर कुछ सूँघता फिर रहा था।
नाव चल दी।
कुत्ता छप्पर पर लौट आया। तब तक चेन्नन् की नाव दूर पहुँच गयी थी। वह मानो उड़ रही थी। कुत्ता मर्मान्तक पीड़ा से किकियाने लगा। बेसहारे मनुष्य की-सी आवाज उसने दी। कौन था उसे सुनने को ? झोपड़े के चारों ओर फिरा। कहीं-कहीं सूँघा, और फिर किकियाया।
एक मेढ़क आराम से मचिया पर आ बैठा था। यह अप्रत्याशित शोरगुल सुन वह डर गया और कुत्ते के सामने से पानी में कूद पड़ा, धुटीम्म्...। कुत्ता डर कर काँपने लगा और पीछे उचककर पानी को देखता रहा, पानी हिल रहा था।
शायद खाना खोज रहा होगा, कुत्ता इधर-उधर सूँघने लगा। कोई मेढक उसकी नाक में पेशाब करके पानी में कूद गया। कुत्ते को बेचैनी में छींकें आने लगीं। वह सिर हिला-हिलाकर छींका। फिर आगे के पैर से मुँख पोंछ लिया।
मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। कुत्ता उकड़ूँ बैठकर सहता रहा। उसका मालिक अम्पलप्पुबा पहुँच चुका था।

रात हो गयी। एक भयंकर घड़ियाल पानी में अधडूबी झोंपड़ी को छूते हुए धीरे-से बह गया। कुत्ता भय से पूँछ हिलाते हुए भौंका। घड़ियाल बह गया मानो कुछ नहीं जानता हो।
मचिया पर उकड़ूँ बैठा कुत्ता भूख से पीड़ीत हो , कालें बादलों और अँधेरे से युक्त वातावरण को देख किकिया उठा। उसकी दीनता भरी रूलाई दूर तक सुनाई दे रही थी। सहानुभूति से पवनदेव उसे लेकर आगे बढ़े। घर की रखवाली करने वाले कुछ हृदयालुओं ने कहा होगा-हाय! छत पर बैठा कुत्ता किकिया रहा है! समुन्दर के किनारे उसके मालिक उसी रात का खाना खा रहा होगा। खाना खत्म करके उसने अपने कुत्ते के लिए आज भी मुट्ठी-भर भात अलग रख छोड़ा होगा।
कुत्ता कुछ देर तक लगातार ऊँचे स्वर मे किकियाता रहा। फिर आवाज मन्द होकर बन्द हो गयी। उत्तर की दिशा में कोई अपने घर बैठे रामायण बाँच रहा था। कुत्ते ने उस तरफ देखा, मानो वह उसे सुन रहा हो। वह हला खाड़कर दूसरी बार भी थोड़ी देर किकियाया।
निस्तब्ध निशीथिनी में मधुर स्वर में रामायण-पाठ एक बार और सुनाई पड़ा। कुत्ता कान लगाकर देर तक उसे सुनता रहा। शीतल पवन में वह शान्त मधुर गान घुल-मिल गया। हवा के झोंके और लहरों की आवाज को छोड़ और कुछ सुनाई नहीं मचिया के सबसे ऊपर चेन्नन् का कुत्ता लेट गया और लम्बी साँसे लेने लगा। बीच-बीच में निराश होकर किकियाया भी रहा। तभी मेढक ने छलाँग लगायी। कुत्ता फिर बेचैन हो उठा।
सवेरा हो गया। कुत्ता धीमी आवाज में फिर किकियाने लगा। उसने हृदय विदारक राग छेड़ा। मेढ़कों ने उसे घूरकर देखा। पानी की सतह पर उछलते-कूदते मेढकों को वह एकटक देखता रहा।

पानी के ऊपर दीखते झोंपड़े के पत्तों को उसने आशा से देखा। सब ओर बिजन! कहीं पर चूल्हा भी नहीं जल रहा था। कुत्ता उन पक्खियों पर लपक रहा था जो उनके शरीर में खुशी से काट रही थीं। पिछले पैरों से चिबुक को बार-बार खुजलाकर वह मक्खियों को भगाने लगा।
थोड़ी देर के लिए सूरज निकला। सवेरे की धूप में वह थोड़ा सोया भी । उस केले के पत्ते की छाया मचिया पर पड़ रही थी, जो मन्द पवन में हिल-डुल रहा था। कुत्ता उस पर लपक उठा। वह एक बार फिर भौंका।
बादलों से सूरज छिप गया। सब कहीं अँधेरा। हवा ने पानी को तरंगित कर दिया। पानी की सतह से जानवरों की लाशें बह रही थीं। लहरों में पड़कर उनका प्रवाह और तेज हो गया था। वे जहाँ कहीं स्वच्छन्द बहती जा रही थीं। कुत्ते ने चाव से उन सबको देखा और फिर किकियाने लगा।
दूर कहीं कोई छोटी नाव तेज से जा रही थी। वह उठकर दुम हिलाने लगा। उस नाव की गति देखने लगा, पर वह जल्दी ही छिप गयी।
पानी बरसने लगा। कुत्ते ने उकड़ूँ बैठकर चारों ओर देखा। उन आँखों में किसी को भी रूलाने वाली निस्सहाय स्थिति प्रतिफलित हो रही थी।

पानी बन्द हो गया। उत्तर के घर से छोटी नाव आयी और एक नारियल के पेड़ का पास रूक गयी। कुत्ता दुम हिलाते और जँभाई लेते हुए किकियाया। नाव वाला नारियल का पेड़ पर चढ़कर कच्चे नारियल तोड़ने के बाद नीचे उतरा। वह नाव पर नारियल का पानी पीकर डाँड से नाव खेने लगा।
दूर किसी पेड़ की डाली से एक कौआ उड़कर आया और उस सड़ी-गली लाश पर उतरा, जो एक मोटे भैंसे की थी। चेन्नन् का कुत्ता चाव से उसे देखकर भौंक उठा। कौआ भैसे का मांस चिकोटने लगा था। फिर सन्तुष्ट होकर वह भी उड़ गया।
एक हरी चिड़िया झोपड़े के पास खड़े केले के पेड़ पर आ बैठी और चहकने लगी। कुत्ता बेचैन होकर फिर भौंका। वह चिड़िया भी उड़ गयी।
पहाड़ो से बहे जा रहे पानी पर चींटियों का एक झुण्ड था, जो जाकर झोंपड़े से अटक गया। फिर बच गया। खाने की चीज समझकर कुत्ता उसे सूँघने लगा। वह एकदम छींक उठा, उसका मुलायम चेहरा लाल होकर थोड़ा-सा सूज गया।
दोपहर बाद, एक छोटी नाव में दो आदमी उस तरफ आये। कुत्ता दुम हिलाकर उन्हें देख भौंकने लगा। वह अपनी भाषा में कुछ बोला, जो मनुष्य की भाषा-जैसी थी। पानी में उतर कर नाव में चढ़ने को वह तैयार खड़ा था। ‘‘देख, एक कुत्ता खड़ा एक बार फिर किकियाया, मानो वह उनकी सहानूभूति का आभार प्रकट कर रहा हो। ‘‘वहीं रहने दे।’’ दूसरे आदमी ने कहा। कुत्ता मुँह बन्द करके कुछ बोलने लगा, एक-दो बार उस ओर लपकने का प्रयास भी किया।
नाव दूर चली गयी। कुत्ता एक बार और किकियाया। नाव वालों में एक ने मुड़कर देखा।
‘‘हाय!’’
यह नाव वाले की नहीं, कुत्ते की आवाज थी।
‘‘हाय!’’

उसकी थकी-माँदी हृदयस्पर्शी दीन रूलाई दूर हवा में विलीन हो गया। फिर लहरों का अनन्त नाद। किसी ने फिर मुड़कर नहीं देखा। कुत्ता उसी तरह नाव के गायब हो जाने तक खड़ा रहा। वह भौंकता हुआ मचिया पर चढ़ गया मानो कह रहा था कि अब दुनियाँ से अन्तिम विदा ले रहा है । शायद कह रहा हो कि वह आगे कभी किसी मनुष्य को प्यार नहीं करेगा।
उसने थोड़ा पानी पिया, फिर ऊपर उड़ने वाली चिड़ियों को देखा। लहरों में बहता हुआ एक सांप उसके पास आया। कुत्ता छट से मचिया पर जा पहुँचा। चेन्नन् और परिवार जिस सेंध से बाहर निकले थे, उसी से साँप अन्दर रेंग गया। कुत्ते ने सेंध की ओर झाँका। वह फिर भौंकने लगा। फिर किकियाया। उसमें प्राणों का डर और भूख दोनों मिल गये थे। वह भाषा कोई भी भाषा-भाषी, यहाँ तक कि ग्रहवासी भी समझ सकता था। इतनी संवेदनशील थी उसकी भाषा।
रात हो गयी। भयंकर तूफान आया। वर्षा हुई। छप्पर पानी के थपेडों से हिल डुल रहा था। दो बार कुत्ता ऊपर से नीचे गिरने को हुआ। एक लम्बा सिर पानी के ऊपर उठा। वह एक मगर था। कुत्ता प्राण-पीड़ा से भौंकने लगा। पास ही कहीं मुर्गियों की एक साथ रोने की आवाज सुनाई दी।
‘‘कुत्ता कहाँ से भौंक रहा है ? यहाँ से लोग गये नहीं क्या ?’’ केले के पेड़ के पास एक नाव आयी जो फूस, नारियल और केले से भरी हुई थी।
कुत्ता नाव वालों की ओर मुड़कर भौंकने लगा। वह क्रुद्ध होकर, पूँछ उठाये, पानी के पास गया और फिर भौंका। नाववालों में से एक केले के पेड़ पर चढ़ गया।
‘‘भई, लगता है कि कुत्ता लपकेगा।’’

कुत्ता आगे की ओर लपका भी। केले पर से वह आदमी गिर पड़ा। दूसरे ने उसे हाथ देकर नाव पर चढ़ाया। इतने में कुत्ता तैरकर मचिया पर जा पहुँचा और शरीर झटकते हुए क्रुद्ध होकर भौंकने लगा।
चोरों ने केले के गुच्छे काट लिये। ‘‘तुझे मिल जाएगा।’’ गला फाड़ भौंक रहे कुत्ते से उन्होंने कहा। फिर उन्होंने फूस नाव में डाला । अन्त में एक आदमी मचिया के ऊपर चढ़ा तो कुत्ते ने उसका पैर काट लिया। कुत्ते के मुँह में मांस भर गया। ‘‘हाय!’’ वह आदमी रोते हुए कूदकर नाव पर जा चढ़ा। नाव में खड़े आदमी ने डाँड लेकर कुत्ते के पेट पर दे मारा।
‘‘कैं...कैं....कैं!’’ कुत्ते की आवाज मन्द पड़ गयी। जिस कुत्ते ने काटा था वह नाव पर रो रहा था।
‘‘अरे! चुप रह, कोई...’’ दूसरे ने उसे ढाढस बँधाया। वे आगे बढ़ गये। बहुत देर बाद कुत्ते ने उस ओर देखा और भौंका, जहाँ से नाव चली गयी थी।
आधी रात के करीब का समय। एक मोटी गाय की लाश बहती हुई झोंपड़े से आ लगी। कुत्ता उसे उपर से देख रहा था। वह नीचे नहीं उतरा। लाश धारे-धीरे बहने लगी। कुत्ता किकियाया। नारियल के पत्तों को छीला। दुम हिलायी। अलग हट रही गाय की लाश के पास गया और दाँतों से उसे पास खींचकर खाने लगा। भयंकर भूख मिटाने को उसे काफी भोजन मिल गया था।

‘ठे’ एक प्रहार! कुत्ता दिखाई नहीं पड़ा। गाय की लाश थोड़ी डूबकर बह गयी।
तब से सिर्फ तूफान की गर्जन, मेढक के टर्र और लहरों की आवाज ही सुनाई दे रही थी। और कुछ नहीं। सब ओर सन्नाटा! घर की रखवाली करने वाले लोगों ने फिर कुत्ते की दारुण रूलाई नहीं सुनी। सड़ी-गली लाशें जल की सतह पर इधर-उधर बह रही थीं। किसी पर बैठा कौआ मांस नोच-नोचकर आराम से खा रहा था। कोई बाधा रूकावट नहीं, चोरों को भी अपने काम में व्यवधान नहीं पड़ा। सभी ओर एकान्त!
थोड़ी देर बार वह झोंपड़ा गिर पड़ा और पानी में डूब गया। उस अनन्त जलराशि पर कुछ दिखाई नहीं पड़ता था। अपने मालिक के घर की रखवाली उस वफादार कुत्ते ने आखिरी दम तक की। वह चला गया। पर झोंपड़ा तक पानी की सतह पर खड़ा रहा, जब तक उस कुत्ते को मगर नहीं पकड़कर ले गया। अब वह झुककर पानी में पूर्णतः डूब चुका था।
पानी उतरने लगा। चेन्नन् कुत्ते की खोज करता हुआ वहाँ आया। किसी नारियल के पेड़ के नीचे कुत्ते की लाश पड़ी हुई थी। लहरें उसे धीरे-से चला रही थीं। पैर के अँगूठे से चेन्नन् ने उसे हिलाया, उसे उलटकर देखा। उसे निश्चित नहीं हो सका कि यह उसी का कुत्ता है। उसका एक कान कट गया था। खाल सड़ जाने से रंग का भी पता नहीं चल रहा था।

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