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बज्में जिन्दगी रंगे-शायरी

फिराक गोरखपुरी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :231
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1234
आईएसबीएन :81-263-1041-3

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प्रस्तुत है उर्दू शायरी...

Bazme Zindagi Range Shairi a hindi book by Firaq Gorakhpuri - बज्में जिन्दगी रंगे-शायरी - फिराक गोरखपुरी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

पचास वर्ष से अधिक की फ़िराक़ की काव्य-यात्रा से चुने हुए रत्नों के इस संकलन ‘बज़्में’-ज़िन्दगीः रंगे शायरी’ के बारे में स्वयं फ़िराक़ साहब ने कहाः‘‘...जिसने इसे पढ़ लिया, उसने मेरी शायरी का हीरा पा लिया।’’
इस संकलन में वे ग़ज़लें हैं जिन्होंने फ़िराक़ को ओर मीर और ग़ालिब का समकक्ष और दूसरी ओर ग़ज़ल के रंग और परिवेश को नया रूप देनेवाला क्रान्तिकारी कवि बनाया; वे रुबाइयाँ हैं जिन्होंने एक नारी की कमनीय काया के उभार-उतार की नाजुक-गहरी रेखाओं को, किशोरी, युवती और सुहागन के रूप दर्शन और सौन्दर्य की भारतीय छवियों को तथा
जीवन-दर्शन के सर्वोच्च शिखरों का स्पर्श करनेवाले चिन्तन को मार्मिक अभिव्यक्ति दीः और वे नज़्में हैं जो राष्ट्र के जीवन और नवजागरण के शंखनाद के साथ-साथ फ़िराक़ के जीवन-¬अनुभवों और व्यापक दृष्टिकोण की दर्पण हैं।

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित फ़िराक़ गोरखपुरी के इस अनूठे संग्रह का नये रूप और साज-सज्जा में प्रकाशित यह नवीनतम संस्करण शायरी के सुधी पाठकों को समर्पित है।

प्रस्तुति

प्रथम संस्करण से

‘बज़्मे-ज़िन्दगीः रंगे-शायरी’ का प्रकाशन उस अवसर पर हो रहा है जब 27 नवम्बर 1970 को रघुपति सहाय ‘फिराक़’ गोरखपुरी को उनकी उर्दू काव्यकृति ‘गुले नग़्मा’ के लिए पुरस्कार-समर्पण-समारोह आयोजित है।
यह पाँचवाँ समारोह है। प्रत्येक समारोह के अवसर पर भारतीय ज्ञानपीठ ने पुरस्कृत कृति का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किया है, या, यदि पुरस्कृत कृति हिन्दी की हुई तो, उनका अनुवाद अन्य भारतीय भाषाओं में तथा अँगरेज़ी में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। इस श्रृंखला में अब तक भारतीय ज्ञानपीठ, शंकर कुरुप की मलयालम काव्य-कृति ‘बाँसुरी’

(ओटक्कुष़ल्), ताराशंकर बन्द्योपाध्याय के बाँग्ला उपन्यास ‘गणदेवता’, डॉ. के. वी. पुट्टप्पा और डॉ. उमाशंकर जोशी की क्रमशः कन्नड़ और गुजराती काव्य-कृतियाँ ‘श्री रामायण दर्शनम’ एवं ‘निशीथ’ और सुमित्रानन्दन पन्त के काव्य-संकलन ‘चिदम्बरा के मलयालम, बाँग्ला, कन्नड़, गुजराती, मराठी, तेलुगु और अँगरेज़ी अनुवाद पाठकों को भेंट कर चुकी है। ‘फ़िराक़’ की पुरस्कृत कृति ‘गुले नग़्मा’ का हिन्दी रूपान्तरण यद्यपि प्रकाशित हो चुका है, किन्तु ‘फ़िराक़’ के कृतित्व का जितना बड़ा अवदान उर्दू शायरी को प्राप्त हुआ है, उसका पूरा और प्रामाणिक आकलन अपेक्षित लगा। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने ‘फ़िराक़ साहब से अनुरोध किया।

उन्होंने सहर्ष हमारा प्रस्ताव स्वीकार किया और उनके परामर्शानुसार प्रयाग विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के प्राध्यापक डॉ. जाफ़र रज़ा ने एक प्रारम्भिक संचयन (शब्दार्थ सहित) तैयार किया। डॉ., रज़ा ने जो हिन्दी काव्य के भी गम्भीर-अध्येता हैं, ‘गुले नग़्मा’ के हिन्दी रूपान्तरण की पाण्डुलिपि भी तैयार की थी, अतः उन्हें मालूम था कि हिन्दी में ‘फ़िराक़’ के काव्य-कृतित्व का प्रतिनिधित्व करनेवाले संकलन की कमी को पूरा करने के लिए नये संकलन में क्या-कुछ, और विशेष होना चाहिए। भारतीय ज्ञानपीठ को यह गर्व है कि सबसे पहले प्रचुर मात्रा में उर्दू काव्य को देवनागरी लिपि में प्रकाशित किया गया, और इस लिपि में प्रस्तुत करने का श्रेय काव्यमर्मज्ञ श्री अयोध्याप्रसाद गोयलीय को जाता है,

जो ज्ञानपीठ के मन्त्री रह चुके हैं। गोयलीयजी के द्वारा प्रस्तुत इस प्रकार संकलन ‘शेरो-शायरी’ का प्रधान सम्पादकीय जब मैंने लोकोदय ग्रन्थमाला का सम्पादक होने के नाते लिखा था तब से अब तक हिन्दी पाठकों के सामने उर्दू का काव्य सैकड़ों छोटे-बड़े संग्रहों और संकलनों के रूप में इतनी व्यापकता से आ चुका है कि हिन्दी-उर्दू का अन्तर अब न भाषा का अन्तर रहा और न लिपि का ही, क्योंकि देवनगरी लिपि ने उर्दू-काव्य के लिए भी अपने-आपको प्रतिष्ठित कर लिया है।

उर्दू और हिन्दी काव्य की आत्मा और उनकी भाषा सीमा तक एक हो सकती है और भारतीय सन्दर्भ में किस प्रकार वह एक हो गयी है, इसका प्रमाण ‘फ़िराक़’ की क्रन्तिकारी शायरी है। उस शायरी का प्रामाणिक प्रतिनिधित्व करने के लिए तथा पुरस्कार-समर्पण समारोह को विशेष सार्थकता देने के लिए इस संकलन ‘बज़्मे-ज़िन्दगीः रंगे-शायरी’ का प्रकाशन आयोजित हुआ।
डॉ. रज़ा की प्रारम्भिक पाण्डुलिपि का सम्पादन करते समय मैंने यह प्रयत्न किया है कि संकलन में ऐसी चुनी हुई नयी सामग्री भी अधिक से अधिक मात्रा में आये जो अब तक के प्रकाशनों में विशिष्ट हो; तथा सामग्री की प्रस्तुति इस प्रकार हो कि ‘फ़िराक़’ साहब ने उर्दू शायरी का जो कायाकल्प किया है वह प्रक्रिया स्वयं मुखरित हो।
पुस्तक का नामकरण ‘बज़्मे-ज़िन्दगीः रंगे-शायरी’ ‘फिराक़’ साहब के उस शेर पर आश्रित है जो उनके जीवन व्यापक परिवेश का, उनके काव्य की उपलब्धि का दर्पण हैः


‘फ़िराक़े-हमनवा-ए-मीर-ओ-ग़ालिब अब नये नग़्मे
वो बज़्मे-ज़िन्दगी बदली, वो रंगे-शायरी बदला


संकलन का प्रारम्भ ‘फ़िराक़’ की रुबाइयों के विभाजन को व्यक्त करनेवाले जिन शीर्षकों से हो रहा है- सुन्दरम्, सत्यम्, शिवम् तथा अन्य-वे वर्गीकरण की बारीक रेखाओं को नहीं, फ़िराक़’ के काव्य की आत्मा की आत्मा को ध्वनित करते हैं-उनका काव्य जो भारतीय साहित्य की मूल उद्भावनाओं को आत्मसात् करता है और भारतीय जीवन के परिवेश को, उनके यथार्थ को, उसमें व्याप्त नयी चेतनाओं और प्रेरणाओं को प्रतिबिम्बित करता है।

इस संकलन का एक अन्य महत्त्वपूर्ण अंग है, स्वयं ‘फ़िराक़’ साहब की लिखी भूमिका ‘मैं और मेरी शायरी’ जिसमें की कुछ पंक्तियाँ यूँ हैं: ‘‘यह मेरी दृढ़ और अटल राय है कि उर्दू लिपि या नागरी लिपि में इस संग्रह से पहले मेरे जितने संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, इस संग्रह का पल्ला उन सब पर भारी है। यह संग्रह मेरी कविताओं का प्रतिनिधि संग्रह है। जिसने इसे पढ़ लिया, उसने मेरी कविता का हीरा या मुख्य तत्त्व पढ़ लिया।

लक्ष्मीचन्द्र जैन


मैं और मेरी शायरी

प्रथम संस्करण से

मैं 28 अगस्त 1896 ई. को गोरखपुर में पैदा हुआ। मेरे पिता थे बाबू गोरखप्रसाद जो उस समय से लेकर 1918 तक, जब तक उनकी मृत्यु हुई, गोरखपुर और आस-पास के ज़िलों में सबसे बड़े वकीले-दीवानी थे। मैं कई लेहाज़ से एक असाधारण बालक था। घर और घरवालों से असाधारण हद तक गहरा और प्रबल प्रेम था। सहपाठियों और साथियों से भी ऐसा ही प्रेम था मुहल्ले-टोले के लोगों से अधिक-से-अधिक लगाव था। मैं इस लगाव-प्रेम की तीव्रता, गहराई, प्रबलता और लगभग हिला देनेवाले तूफानों को जन्म-भर भूल नहीं सका। इतना ही नहीं, घर की हर वस्तु-बिस्तर, घड़े, दूसरे सामान, कमरे, बरामदे, खिड़कियाँ, दरवाजे, दीवारें, खपरैल-मेरे कलेजे के टुकड़े बन गये थे।

मुहल्ले की गलियाँ, मुहल्लेवालों के घर, पेड़ और चबूतरे सभी मेरे खू़न मेरी नाड़ी, मेरे दिल की धड़कन बन गये थे। तरकारियों और फ़स्लों में दिया जानेवाला पानी, जीव-जन्तुओं को अपने बच्चों को दूध पिलाना, चिड़ियों के चहचहे और उनकी उड़ान, लोगों के दुःख-सुख की कहानी मुझे आनन्दित या दुखी करके जड़ से हिला कर रख देती थीं। लोकगीत, तुलसी-कृत रामायण के पाठ, सूर और मीरा के पद और दूसरे गीत नश्तर की तरह मेरे दिल में उतर जाते थे। माँ-बाप, अध्यापकों और साथियों से मैं कुछ नहीं कहता था, मन-ही-मन मैं सभी बातों से तड़प-तड़पकर रह जाता था।

रात को जब सोता था तो नींद जरा देर से आती थी। जहाँ मैं सोता था, उस बरामदे के सामने दूर तक मैदान था, खेत थे और बड़े-बड़े पुराने पेड़ थे। इन सब पर रात का परदा गिर पड़ता तो रात की रहस्यमयता में मैं डूब जाता था। रात का अन्धकार और उस अन्धकार की गहराई, तारों की झिलमिलाहट, रात के धुँधलके में स्थूल वस्तुओं की अपनी परछाईं-ये सब दृश्य मुझ पर छा जाते थे और मुझे एक विचित्र दशा में डाल देते थे।

मौसमों का जुलूस मुझे बहुत प्रभावित करता था। बरसात, जाड़ा और तपती हुई गरमी, सूर्योदय और सूर्यास्त, मुझे एक प्रभाव मानवीय नाटक की तरह प्रभावित करते थे। मैं पेड़ों में भी किसी प्राणी के धड़कते हुए दिल का अनुभव करता था। लहलाहाते हुए खेतों में मैं फस्लों की नहीं, जीवन की लहलाहाहट और लहर देखता था। जिन दृश्यों से मैं गुज़रता था, उन्हें छाती से लगा लेने को जी चाहता था। इन तमाम बातों को लड़कपन बीत जाने के पश्चात बरसों के बाद अपनी कविता ‘हिंडोला’ मैं मैंने व्यक्त कर दिया।

जब मैं लगभग 9-10 बरस का हो गया था मुझे स्कूल में दाख़िल कर दिया गया। स्कूल में भी और घर पर भी पढ़ाने को मुझे सौभाग्य से बहुत योग्य अध्यापक मिले। बचपन में पढ़ी जानेवाली किताबों में ही जहाँ-जहाँ शैली और भाषा का रचाव या सौन्दर्य था, वह रचाव और सौन्दर्य मेरे दिल में डूब जाता था। आवाज़ की पहचान और परख मुझमें बचपन ही से थी। मातृभाषा की शिक्षा ने खड़ी बोली का रूप धारण कर लिया था और खड़ी बोली का प्रचलित स्वाभाविक, सर्वव्यवहृत, सबसे उन्नत और विकसित रूप ऊर्दू थी। मुझे हिन्दी भी पढ़ायी गयी थी,
उर्दू के के साथ-साथ। लेकिन हिन्दी खड़ी बोली के रूप में मुझे उर्दू से कम जानदार और कम रची, कम स्वाभाविक और बिलकुल अप्रचलित नजर आयी। ये बातें तो मेरे लड़कपन की हैं। पचासों बरस बाद मुझे यह अनुभव हुआ कि स्वाभवगत खड़ी बोली के उर्दू रूप में यानी उसके स्वाभविक गद्य में वे खटके हैं, तार-सम हैं, वे खनक हैं, जो आप-से-आप उर्दू कविता के शब्द-क्रमों और छन्दों के साँचों में ढल जाते हैं। अभ्यस्त और सिद्धहस्त हाथों में ये खटके और ये तार-सम रवानी पैदा कर देते हैं, एक गति और बहाव पैदा कर देते हैं, जिसे ‘बन्दिश की चुस्ती’ कहते हैं और लाखों पंक्तियों को सुनते ही जबान पर चढ़ा देती है।
इस स्पष्ट सचाइयों के होते हुए मैं कविता-प्रेम के मुआमिले में उर्दू की तरफ़ झुक सकता था। मेरे लड़कपन में या शुरू जवानी तक, खड़ी बोली की हिन्दी कविता ने या तो जन्म नहीं लिया था या बिलकुल बचपन की हालत में थी। लेकिन अगर मुझे शुरू जवानी में या होश सँभालते छायावादी या आज के खड़ी बोली-हिन्दी-कवियों की रचनाएँ आ जाती तो वे मुझे कदापि खींच न पातीं, उनमें खड़ी बोली का चमत्कार है ही नहीं।

मैंने 1913 ई. में जुबली हाई स्कूल, गोरखपुर से हाई स्कूल पास किया। मैंने और दूसरों ने पिताजी को यह राय दी कि मुझे प्रान्त के सबसे सुप्रसिद्ध विद्यालय म्योर सेण्ट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में दाखिल कर दिया जाये। ऐसा ही हुआ और रहने के लिए मैंने हिन्दू बोर्डिग हाउस पंसद किया, जो आज महामना पं. मदनमोहन मालवीय कॉलेज कहा जाता है। मैं उम्र के 17 वें साल में था। जहाँ तक अँगरेज़ी भाषा का सम्बन्ध है, मेरी शिक्षा की नींव की ईंटें ऐसी ठीक और जँची-तुली रखी गयी थीं कि छठे दर्जे से अब तक मुझे याद है कि मैंने अँगरेज़ी लिखने के व्याकरण या शब्द-प्रयोग की कोई ग़लती नहीं की।

इस हद तक तो मुझे अँगरेज़ी भाषा आ ही गयी थी ! कॉलेज में आकर लॉजिक (न्यायशास्त्र), इतिहास और अँगरेज़ी साहित्य के गद्य-पद्य की ऐसी किताबें पढ़ने को मिलीं, जिनसे मेरे अँगरेज़ी ज्ञान को असाधारण बढ़ावा मिला और मैं अँगरेज़ी में निबन्ध इत्यादि लिखने का अभ्यास अपने अन्दर पैदा करने लगा।

अभी उर्दू-शायरी मैं केवल पढ़ता ही था, उर्दू में शायरी करता नहीं था। अभी मैं एफ.ए. में ही था कि मेरे पिताजी को, परिवार को और मुझे धोखा देकर मेरा ब्याह कर दिया गया। यह ब्याह मेरे जीवन की एकमात्र दुःखान्त और विनाशकारी दुर्घटना साबित हुआ।
इस दुर्घटना के बाद से ही मेरे शरीर, मेरे दिल, मेरे दिमाग़ मेरी आत्मा में विनाशकारी भूकम्प, ज्वालामुखियों का फटना, घृणा और क्रोध के तूफ़ान उठते रहे हैं। इनका मुक़ाबिला करते हुए, विषपान करते हुए और नफरत के अग्निकाण्ड में जलते हुए मैं अब तक जीता रहा हूँ ! मैं अपने लिए वही चाहता था, जो हिन्दू-शास्त्रों में एक सन्तोषजनक जीवन के सम्बन्ध में कहा गया है-यानी एक ऐसी अर्धांगिनी, जिसे मैं पसन्द कर सकूँ और प्यार कर सकूँ और जो मुझे भी अपना प्यार दे सके। और ऐसी ही सन्तान भी, मैं चाहता था।

अपनी सन्तान को यह जानते हुए भी कि वो मेरी सन्तान है, मैं अपनी सन्तान नहीं मान सका ! सफल और सन्तोषजनक घरेलू जीवन से बढ़कर मैं किसी और व्यवस्था को समझ नहीं सकता था और न मान सकता था। मेरी उजड़ी जिन्दगी और विषम जीवन की सफलता, विद्या-प्राप्ति जीवन के किसी क्षेत्र में ख्याति, उसका बदला नहीं हो सकती। फिर भी मैंने इसका प्रयास किया और करता रहा हूँ कि अपने वास्तविक जीवन के साहित्य, दर्शन, मानव कल्याण और समाज की उन्नति में जेहनी तौर पर दिलचस्पी लेता रहूँ।

बचपन में ही जो गम्भीरता मेरी अर्धचेतना में आ चुकी थी, वही जीवन की न टाली जानेवाली मुसीबतों में आगे आयी। मैं अध्ययन और मनन के दरवाजे़ से अपनी गला घोंटनेवाली ज़िन्दगी को छोड़कर भागने की कोशिश करता रहा हूँ। मैं अपनी कविता को जिसे असाधारण लोकप्रियता मिल चुकी है, पंकज यानी कमल वह फूल समझ रहा हूँ, जिसकी जड़े कीचड़ में हों।
ब्याह होने के बाद पूरे साल-भर मुझे नींद न आयी। न दिन को, न रात को, मैं हैरत करता हूँ कि मैं पागल क्यों नहीं हो गया या मर क्यों नहीं गया।

वरन् मुझको अपने नरकवत् जीवन का बड़ा महँगा दाम देना पड़ा। बी.ए. में मुझे संग्रहणी का असाध्य रोग हो गया, जिससे वैद्यराज स्व. श्री त्र्यम्बक शास्त्री ने मुझे बचाया। एक साल बी.ए. में पढ़ना छोड़ देना पड़ा। मुझे बहुत-से लोग एक हँसमुख और ज़िन्दादिल आदमी समझते हैं। मेरी ज़िन्दादिली वह चादर है, परदा है, जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। मेरे सुख ही नहीं मेरे दुख भी मेरे ब्याह ने मुझसे छीन लिए। पिता-माता, भाइयों-बहनों, दोस्तों-किसी की मौत पर मैं रो नहीं सका।


मैं पापिन ऐसी जली कोयला भई न राख।


अध्ययन और मनन-चिन्तन ने मुझे दुःख से मुक्त तो नहीं कर दिया लेकिन कुछ सँभाले ज़रूर रखा। बी.ए. पास करने के पहले ही मेरे पूज्य पिताजी की मृत्यु हो चुकी थी लेकिन बी.ए. के नतीजे में मैं पूरे सूबे में चौथे नम्बर पर पास हुआ और मुझे डिप्टी-कलेक्टरी और आई.सी.एस. के लिए चुन लिया गया था लेकिन घरेलू जीवन इतना उजाड़ हो चुका था कि मैंने उसे और उजाड़ बनाने में ही अपना कुशल समझा। सब बड़े ओहदों और पदों से इस्तीफ़ा देकर मैं 1920 ई. में

स्वराज्य-आन्दोलन में कूद पड़ा डेढ़ बरस के लिए जेल भी भुगता। जेल से छूटकर जब आया, तो पं. जवाहर नेहरू ने मुझे अखिल भारतीय काँग्रेस के दफ्तर में ‘अण्डर सेक्रेटरी’ की जगह दिला दी। सेक्रेटरी वो स्वयं थे। इस तरह कई वर्ष बीत गये। अपना दुःख तो बयान ही कर चुका हूँ। घर बिलकुल बे-रुपये-पैसे का हो चुका था।

कुछ जायदाद ज़रूर बची थी। मैं खुद नहीं बता सकता कि दस-बारह बरस के अरसे में मैंने अपना और एक अनाथ का पालन-पोषण कैसे किया। ख़ैर जो गुज़रना था गुज़र गया। जब पं. जवाहरलाल नेहरू यूरोप चले गये तो मैं भी काँग्रेस के अण्डर सेक्रेटरी के पद से अलग हो गया और कुछ कॉलेजों में अध्यापक की हैसियत से दो-तीन साल काम करता रहा और उसी हैसियत से प्राइवेट तौर पर आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी और प्रथम स्थान में एम.ए. पास किया।

ए.एम का नतीजा निकलते ही मेरी मातृ-संस्था इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने मुझे अँगरेज़ी का अध्यापक बे–अर्ज़ी दिए ही नियुक्त कर दिया। बी.ए. करने के 12 बरस बाद दर-ब-दर की ठोकरें खाकर मुझे यह स्थान मिला, जहाँ थोड़ा-बहुत आर्थिक चिन्ताओं से छुटकारा मिला तमाम परेशानियों के होते हुए अध्ययन, चिन्तन और विवेक का सिलसिला जारी रहा। मैं किताबों का कीड़ा कभी नहीं रहा। जितना पड़ता था, उससे कई गुना ज़्यादा सोचता-विचारता था।

युनिवर्सिटी में अध्यापक का पद ग्रहण करने के बाद मुझे चुनी हुई किताबों के अध्ययन, जीवन और जीवन की समस्याओं पर मनन-चिन्तन, अपने मानसिक जीवन की पृष्ठभूमि को भरपूर बनाने, अपनी रचना और लेखन-शैली को क्रमशः अधिक विकसित करने का अवसर मिलने लगा। अँगरेज़ी साहित्य और विश्व-साहित्य के पठन-पाठन से मेरी लेखन-शैली में प्रौढ़ता आती गयी। मुझे उर्दू कविता को अधिक रचाने और सँवारने के मौक़े हाथ आने लगे। यूँ तो युनिवर्सिटी-अध्यापक का पद ग्रहण करने से तेरह-चौदह बरस पहले ही उर्दू-काव्य का अभ्यास प्राप्त करना मैंने शुरू कर दिया था।

यहाँ एक महत्त्वपूर्ण तात्त्विक सत्य को बता देना आवश्यक समझता हूँ। मुझे, उर्दू-काव्य साहित्य में, और गद्य साहित्य में भी, अच्छी-से-अच्छी और सुन्दर-से-सुन्दर ऊँची-से-ऊँची चीज़ें मिल चुकी थीं और मिलती रहती थीं। इन बातों के होते हुए भी मुझे मजमूई हैसियत से एक असन्तोष का आभास होता रहता था। शायद इस कारण से कि मेरे अन्दर हिन्दू विचारों और हिन्दू संस्कृति की गहरी-से-गहरी, बहुमूल्य-से बहुमूल्य सचाइयाँ और अनुभूतियाँ विद्यमान थीं जो उर्दू कविता में कम ही मिलती थीं। हिन्दू संस्कृति का मिज़ाज और उस मिज़ाज की ध्वनि, उर्दू कविता में कदाचित् ही मिलती थी। अलबत्ता खड़ी बोली की शैली, उर्दू कविता में बहुत रचे ढंग से और रंगारंग तरीक़ों से उपलब्ध थी।

जीवन का काव्यात्मक और कलात्मक अनुभव प्राप्त करना और दूसरों तक इस अनुभव को पहुँचाना साहित्य का एकमात्र लक्ष्य है। हिन्दू संस्कृति और इस संस्कृति के मिज़ाज ने मुझे यह अनुभव कराया कि प्रेमी-प्रेमिका का सम्बन्ध, घरेलू जीवन, सामाजिक जीवन, प्रकृति के दृश्य, धरती, नदियाँ, सागर, पहाड़, लहलहाते खेत, बाग और जंगल, अग्नि, हवा, सूर्य, चन्द्रमा, सितारे मौसमों का जुलूस-किसी भी ईश्वर-पैग़म्बर, धार्मिक ग्रन्थ, काबा, या काशी से कहीं अधिक दिव्य पवित्र है,

भौतिकता के चमत्कार के अनुभव को ही मैं उच्च-से-उच्च आध्यात्मिकता महसूस करता था। जिसे भौतिक कहते हैं वही दिव्य भी है और उसके अतिरिक्त कोई विचार दिव्य नहीं नहीं है। लेकिन जिसे ठण्डे रूप से मैं यह बातें कह रहा हूँ अगर यही बातें इसी ढंग से मैं कविता में कहता, तो मुझे सन्तोष न होता। मैं जिस विषयों पर काव्य-रचना करना चाहता था-स्वर, ध्वनि और संकेत के सहारे उन्हें काव्यात्मक और कलात्मक बनाकर दिव्य भी बनाता था। साथ-ही-साथ ठेठ मानवता का लबोलहज़ा भी अपनी कविता में मुझे पैदा करना था। कविता में बातें कहनी पड़तीं लेकिन यह भी देखना और करना होता है किः


बात पहुँचती है कहाँ से कहाँ


ऐसा करने ही से सत्य का अधिक-से-अधिक साक्षात्कार होता है और फिर वह और अधिक रहस्यमय तथा संगीतमय बन जाता है। मुझे उस, ज़मीन को, जिसे उर्दू के बड़े-ब़ड़े कवियों ने अपने कलेजे के ख़ून से सींचकर तैयार किया था, फिर से गोड़ना और जोतना था। अपनी कविता की शैली को मुझे एक सहज सुझाव देना था। उसके साथ-ही-साथ और दिव्यता प्रदान करनी थी। जिन विषयों को मुझे वाणी देनी थी, वे अनित्य हुए भी अमृतपान कर चुके हैं और अमरत्व पा चुके हैं। दिव्यता, भौतिकता से पृथक वस्तु नहीं है। यही अनुभव अनेक पहलुओं से व्यक्त करना-मेरे लिए कविता का मुख्य लक्ष्य रहा है।

साधारण-से–साधारण विषयों को सुगम-से-सुगम भाषा और स्वाभाविक-से-स्वाभविक शैली में इतना उठा देना कि पंक्तियों की उँगलियाँ सितारों को छू लें यही उच्चतम काव्य-रचना है। मैं प्रकृति या परमाणुओं के अतिरिक्त आत्मा या परमात्मा के अलग और स्वत्रन्त्र अस्तित्व को नहीं मानता। संस्कृति काव्य में रसों का सिद्धान्त भौतिकता में निहित गुणों के अनुभव करने-कराने का ही दूसरा नाम है। देखना यही रहता है कि ये रस किन गहराइयों से निकलते हैं।, क्या वे केवल होंठ और जीभ को ही छू पाते हैं या हमारी चेतना के तालुओं को भी छू लेते हैं !

अब मैं एक ऐसी बात कहने का साहस करूँगा जो कुछ लोगों को शायद चकित कर दे। साहित्य बनता तो शब्दों से है, लेकिन ये शब्द एक नीरवता में लय-लीन हो जायें। तब शेर विस्मृत हो जाये और उससे उत्पन्न होनेवाली एक अकथनीय स्थिति पैदा हो जाये, वही स्थिति साहित्य और काव्य की सबसे बड़ी देन है। महाभारत का युद्ध तो हम कविता का सहारा लिए बिना भी लड़ सकते हैं। औद्योगिक क्रान्ति, फ्रांस की क्रान्ति, रूस की क्रान्ति, चीन की क्रान्ति को साहित्य और कविता का बहुत कम सहारा लेना पड़ा। महान्-से-महान् कार्य, जो संसार में हो रहे हैं, साहित्य के सहारे नहीं हो रहे हैं।

साहित्य किसी राजनीतिक दल का रहस्य नहीं है। यह इतिहास का स्वयंसेवक भी नहीं है। साहित्य हमारी चेतना की वह तपस्या है, वह साधना है, जिससे हमारी विश्व या आत्मचेतना दिव्य बन जाये। चेतना-प्राप्ति किसी दूसरे उद्देश्य या लक्ष्य का साधन मात्र नहीं है बल्कि वह स्वयं अपना लक्ष्य है। बर्नार्ड शॉ ने अपने एक नाटक में उस समय का चित्रण किया है, जब मनुष्य विकास और उन्नति की अन्तिम मंज़िलों तक पहुँच चुकेगा। यहाँ पहुँचकर बर्नार्ड शॉ एक सवाल उठाता है-

उस स्थिति को प्राप्त करके या उस सिद्धि को पाकर मनुष्य क्या किया करेगा ? जवाब देता है कि वह जीवन कारोबारी जीवन नहीं होगा। राजनीति, अर्थशास्त्र और दौड़-धूप के कामों से वह जीवन मुक्त होगा। यह जीवन एकमात्र विचारों और अनुभवों में निमग्न रहेगा। साहित्य हमें उस कर्म और कार्य-मुक्ति, बन्धनग्रसित जीवन से छुटकारा दिलाने में सहायक होता है। ज्ञान-ध्यान आडम्बर नहीं हैं, हम भले उन्हें ज्ञान-ध्यान से रहित होकर एक आडम्बर बना दें। अपना एक शेर मुझे याद आया।


जाओ न तुम इस बेख़बरी पर कि हमारे
हर ख़्वाब से इक अह्द की बुनियाद पड़ी है।


यहाँ ‘अह्द’ का मतलब युग है। दुनिया और मानवजाति कर्म के बन्धन ग्रहण करके आगे बढ़ती है और जायेगी और ज्यूँ-ज्यूँ आगे बढ़ती जायेगी, कर्म हलका होता जायेगा और कम-से-कम होकर रह जायेगा। विज्ञान और वैज्ञानिक अविष्कारों की उन्नति इसी ओर संकेत कर रही है। मशीनों ने इसलिए जन्म लिया है कि मनुष्य को कम-से-कम शारीरिक बल लगाये बिना ही सब कुछ मिलता रहे और जो कुछ वह चाहता है, सब कुछ होता रहे। कर्म का महत्त्व एक बीच की मंज़िल है।

मैंने अपनी रचना में यही प्रयास किया है कि हम काव्यात्मक और कलात्मक चेतना से, मनन और विवेक से ऐसे अनुभव प्राप्त कर सकें जिसके संसार से अलग किसी खुदा, ईश्वर, मज़हब पूजा-पाठ सिज्दा-दण्डवत् या साम्प्रदायिकता का कोई स्थान न हो। हिन्दू-विचार साम्प्रादायिकता विचार नहीं है। किसी विशेष जाति या सम्प्रदाय को दूसरी जातियों और सम्प्रदाय से अलग करके हिन्दू-विचारों का निमार्ण नहीं हुआ है। जब ये विचार ईश्वरवादिता से मुक्त हैं, तो सम्प्रदायवादिता में कैसे जकड़े रह सकते हैं ! मेरी कविताओं की अपील सार्वजनिक है। आज यूरोप, अमरीका और दूसरे देशों में भी भारतीय विचारधारा का गहरा अध्ययन किया जा रहा है।

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