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कृष्णकली

शिवानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12361
आईएसबीएन :9788183619189

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KrishnaKali

श्रेय मेरी लेखनी को नहीं!
सातवें सजिल्द संस्करण से
'कृष्णकली' के इस सप्तम संस्करण को अपने उन स्नेही पाठकों को सौंपते मुझे प्रसन्नता तो हो ही रही है, एक लेखकीय गहन सन्तोष की अनुभूति भी मुझे बार-बार विचलित कर रही है। मेरा यह दृढ विश्वास है कि यदि पाठकों को किसी भी कहानी या उपन्यास के पात्रों से संवेदना या सहानुभूति ही होती है, तो लेखनी की उपलब्धि को हम पूर्ण उपलब्धि नहीं मान सकते। जब पाठक किसी पात्र से एकत्व स्थापित कर लेता है, जब उसका दुख, उसका अपमान उसकी वेदना बन जाती है, तब ही लेखनी की सार्थकता को हम मान्यता दे पाते हैं। जैसा कि महान् साहित्यकार प्लौबेयर ने एक बार अपने उपन्यास की नायिका मदाम बौवेरी के लिए अपने एक मित्र को लिखा था-''वह मेरी इतनी अपनी जीवन्त बोलती-चलती प्रिय पात्रा बन गयी थी कि मैंने जब उसे सायनाइड खिलाया तो स्वयं मेरे मुँह का स्वाद कडुवा हो गया और मैं फूट-फूटकर रोने लगा।''

लेखक जब तक स्वयं नहीं रोता, वह अपने पाठकों को भी नहीं रुला सकता। जब 'कृष्णकली' लिख रही थी तब लेखनी को विशेष परिश्रम नहीं करना पड़ा, सब-कुछ स्वयं ही सहज बनता चला गया था।
जहाँ कलम हाथ में लेती उस विस्मृत मोहक व्यक्तित्व को, स्मृति बड़े अधिकारपूर्ण लाड-दुलार से खींच, सम्मुख लाकर खड़ा कर देती, जिसके विचित्र जीवन के रॉ-मैटीरियल से मैंने वह भव्य प्रतिमा गढ़ी थी। ओरछा की मुनीरजान के ही ठसकेदार व्यक्तित्व को सामान्य उलट-पुलटकर मैंने पन्ना की काया गढ़ी थी। जब लिख रही थी तो बार-बार उनके मांसल मधुर कण्ठ की गेज, कानों में गूँज उठती-

'जोबना के सब रस लै गयी भँवरा

गूँजी रे गूँजी...'

कभी कितने दादरा, लेद उनसे सीखे थे- 

'चले जइयो बेदरदा मैं रोइ मरी जाऊँ'

या

'बेला की बहार
आयो चैत को महीना


श्याम घर नइयाँ
पलट जियरा जाय हो...'

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