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आज का समय

सुनील गंगोपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :151
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1243
आईएसबीएन :81-263-0699-8

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प्रस्तुत है 12 श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...

Aaj Ka Samay

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इन कहानियों में एक अद्वितीय कथाकार का समृद्ध अनुभव-संसार और उनकी प्रखर वैचारिक प्रतिबद्धता तो मुखर है ही,समकालीन समय और समाज के बहुरंगी यथार्थ की जीवन्त अभिव्यक्तियाँ भी हैं। दरअसल मानवीय प्रेम और संवेदनाओं से सराबोर ये कहानियाँ एक आन्तरिक संलाप के लिए भी सहज ही आमन्त्रित करती हैं।

ये प्रतिनिधि कहानियाँ

अपनी रचना को किसी ने आज तक कभी सर्वश्रेष्ठ बताया ? ऐसा कोई कर सकता है भला ? हाँ किसी रचना को पूरा करने के बाद तात्कालिक रूप से शान्ति अवश्य मिलती है-लगता है कि रचना का समापन करने में तो सफलता प्राप्त कर ली। परन्तु मन में कुछ समय के अन्तराल के बाद ही अशान्ति का कीड़ा कुलबुलाकर काटने लगता है। यही चिन्ता लगी रहती है कि मैंने जैसा चाहा था, वैसा तो लिख नहीं पाया; कई ख़ामियां रह गयी हैं। अभी भी मेरा सफलता का सफ़र तय कर मुझे मुक़ाम तक पहुँचने में काफी वक़्त लगेगा। सफलता के दरवाजे़ तक पहुँचने के लिए मुझे अभी बहुत-कुछ करना है। इस अशान्तिमय पीड़ा से जन्म लेता है एक प्रकार का गहन असन्तोष। वही असन्तोष यह आदेश देता रहता है कि अगली रचना को और भी मनोयोग से, निष्ठा से लिखना होगा। फिर अगली रचना के रचे जाने की प्रक्रिया की शुरुआत हो जाती है।
यही कारण है कि किसी भी लेखक के लिए अपनी रचना को उत्कृष्ट प्रमाणित करना बड़ा कठिन हो जाता है। हाँ, चाहे उत्कृष्ट न भी लगे फिर भी अपनी किसी रचना के लिए मोह तो उपजता ही है। उसे खिंचाव भी कह सकते हैं। इस खिंचाव या मोह को सफलता की कसौटी पर तो कसा नहीं जा सकता। प्रेम या माया-मोह को तर्क से तो नहीं परखा जा सकता। यह हृदय से सम्बन्धित होते हैं।

किसी विशेष घटना को केन्द्रबिन्दु बनाकर कहानी या उपन्यास बार-बार दिमाग़ में चक्कर काटते रहते हैं। अपने ही जीवन की किसी छोटी घटना को शायद मैं अपनी लेखनी द्वारा उचित रूप से प्रस्फुटित नहीं कर सका, फिर भी उसे प्यार करने की इच्छा बलवती होती जाती है और उससे मोह भी होता जाता है। कई सालों बाद अपनी ही रचना पर जब आँखें चली जाती हैं तो मन में झटका-सा लगता है-यह क्या सच में मैंने लिखा था ? इसी समय की लापरवाही और काल्पनिक भावनाओं को नये सिरे से आविष्कृत कर, उस रचना को अलग से सँजोकर रखने की इच्छा होने लगती है।
अपनी किसी रचना को सहेजकर रखने की इच्छा को गम्भीर साहित्यिक उपक्रम की संज्ञा न देकर उसे एक प्रकार का सहज विचार कहना ही उचित होगा। उसी विचार के वशीभूत यह बारह कहानियाँ चुनी हैं। प्रत्येक कहानी का पूर्व इतिहास मेरे समक्ष स्पष्ट, अनावृत एवं प्रकाशमान है; जैसे कि मैं उन घटनावलियों के साथ-साथ प्रतिपल जिया हूँ। मन में एक बार तो यह इच्छा जाग्रत भी हुई कि भूमिका में कहानियों की पृष्ठभूमि से पाठकों को अवगत कराऊँ, सबका कथानक बारी-बारी से लिख डालूँ। लेकिन अगले ही पल यह विचार आया कि रहने दें, इतना अधिक करने की आवश्यकता क्या है ? पाठकगण स्वयं ही पढ़कर अनुभव करें तो क्या अधिक बेहतर न होगा ?
शिल्पकार का अधिकार है वह काफ़ी चीज़ों को अव्यक्त या एक प्रकार के धुँधलेपन में रखकर, पाठकों को स्वयं उनकी कल्पना के अनुसार उस पर कसीदाकारी करने दें। कुछ भागों को रचनाकार अव्यक्त या रहस्य के घेरे में क़ैद करके रखना ज़्यादा पसन्द करता है।–और किसी भी साहित्य-रचना का वास्तव में यही शिल्प-नैपुण्य या मुख्य अवलम्ब है।
सुनील गंगोपाध्याय

सपनों की दुनिया

एक पतली-सी गली के आख़िरी मोड़ पर वह घर था। टैक्सीवाला हमें बड़ी सड़क पर ही उतारकर उँगली से उसे दिखाकर चला गया। इस देश के टैक्सीवाले बिल्कुल ठीक पते पर दरवाज़े के सामने उतार देते हैं, पर पतली गली में गाड़ी नहीं घुसाते; तभी भारी सूटकेस मुझे ही लादकर ले जाना पड़ा।
दोपहरी का वक़्त था, तभी तो कहीं भी इनसान दिखलाई नहीं पड़ रहे थे, हाँ ऐसा होना तो स्वाभाविक ही था। गली के दोनों तरफ़ ऊँची दीवारें थीं बिल्कुल ही निविड़ घनी शैली की; शायद उसपार को कारख़ाना इत्यादि हो। घर के सामने आकर मैंने पते का ठीक से मिलान किया उसके बाद ही घण्टी बजायी।
थोड़ी देर बाद जिस आदमी ने दरवाज़ा खोला, उसकी उम्र चालीस के क़रीब होगी। चेहरे पर कई दिनों की बढ़ायी गयी दाढ़ी, मैली जीन्स की पैण्ट और एक बनियान, हाथों में हथौड़ी। वह बिना कुछ बोले मेरी ओर अपलक देखता रहा।
सूटकेस को रखकर मैंने बताया, ‘‘मैं इण्डिया से आया हूँ। यही एक अतिथि-गृह है—जहाँ मेरे लिए आज से एक कमरा आरक्षित करके रखा गया है।’’ तब भी वह आदमी चुपचाप मुझे घूरता रहा, तब मैंने जेब से एक चिट्ठी निकाली और उसे दिखायी।

वह चिट्ठी लेकर अन्दर चला गया। मुझे सीढ़ियों पर चलने की आवाज़ स्पष्ट रूप से सुनाई दी। एक मिनट बाद ही वह मुस्कराता हुआ चला आया। वह हथौड़ी रख आया था। पैण्ट से हाथ पोंछकर उसने मेरा सूटकेस उठा लिया और मुझे अन्दर जाने के लिए इशारा किया।
इन देशों में सभी को अपना सामान ख़ुद ही उठाना पड़ता है। और यह तो होटल भी नहीं था कि कोई बेयरा आकर सामान उठाये। मैंने आपत्ति की, ‘‘ना, ना सूटकेस मैं ही लेकर चलता हूँ।’’ पर उसने मेरी बात नहीं सुनी और जल्दी से आगे बढ़ गया।
अब तक उस आदमी ने एक बात तक नहीं की। शायद गूँगा है ! पहले मैंने कभी गूँगा साहब नहीं देखा।
लकड़ी की पतली सीढ़ियाँ, जिस पर क़ालीन भी नहीं था। मुझे उनकी हालत काफ़ी गिरती-सी लगी। मुझे कुछ बुरा लगा, क्योंकि जिन घरों में दो-एक कमरा बाहरी लोगों को किराये पर उठाया जाता है, उसका मर्यादित रख-रखाव तो ज़रूरी है। ऐसी टूटी-फूटी सीढ़ी क्यों ?
मुझे तीसरी मंज़िल तक चढ़ना पड़ा। यहाँ काफ़ी सफ़ाई लगी। शायद कुछ दिन पहले रंग-रोगन हुआ है। दरवाज़े की दीवारों के कागज़ भी बदले गये लग रहे थे। कमरे में सुन्दर-सा बिस्तरा, स्नान-गृह भी साफ़-सुथरा था। अब मेरा असन्तोष ख़ुशी में बदल गया, क्योंकि अब तो मैं कोई बुराई नहीं देख पा रहा था।
उस आदमी ने मुझे बाथ-रूम के नल खोलकर ठण्डे-गरम पानी की व्यवस्था से अवगत कराया, बत्ती जलायी-बुझायी—सब-कुछ निःशब्दता से—आमने-सामने दो कमरे, बीच मैं बैठक। एक संगमरमर की मेज़, उस पर एक चिट्ठी थी जो उस आदमी ने मुझे दी। उसमें अंग्रेज़ी में मुझको सम्बोधित करके लिखा था, ‘‘तुम्हारा कमरा तैयार कर दिया गया है। तुम्हारे बिस्तरे के पास वाली मेज़ की दराज़ में एक चाभी है, जब मर्ज़ी हो, तुम आ-जा सकते हो, उस चाभी से मुख्य द्वार खुल सकता है। तुम्हें और किसी चीज का ज़रूरत हो तो शाम को मुझे बता सकते हो।’’ नीचे एक महिला के हस्ताक्षर थे।

मैंने उस आदमी को धन्यवाद देकर कहा, ‘‘मुझे किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं है।’’
वह आदमी कन्धे उचकाकर हँसकर चला गया। मैंने सूटकेस खोलकर अपना सामान ठीक से सँजो लिया। आज से सात दिनों तक इसी कमरे में मुझे अपना संसार बसाना है। इस प्रकार के अतिथि-गृह ही मुझे होटल से अधिक प्रिय हैं। ख़र्चा भी कम होता है, इसके अलावा घर का अहसास भी रहता है। होटल सभी देशों में लगभग एक ही तरह के और बड़े ही वैचित्र्यहीन होते हैं।
अच्छी तरह से स्नान कर मैं सो गया। मुझे भूख नहीं थी। वायुयान की लम्बी यात्रा के बाद अब शरीर केवल नींद का ही प्रत्याशी था, दिमाग़ भी काम नहीं कर रहा था-तो मैं रेशम जैसे बिस्तर पर सो गया। खिड़कियों पर सफ़ेद रेशमी पर्दे लगे थे। मेरी धारणा थी कि सोते ही मुझे नींद आ जाएगी, पर ऐसा नहीं हुआ। नींद की इच्छा हो तो साथ-साथ नींद आएगी, ऐसा कोई नियम नहीं है ! थोड़ी देर करवटें बदलता रहा, फिर अचानक याद आया कि दो फ़ोन करने हैं। इस कमरे में फ़ोन नहीं था। होटल की तुलना में अतिथिगृहों में यही कमी है। अधिकतर अतिथि-गृहों में ही टेलीफ़ोन की सुविधा नहीं रहती।
गूँगा साहब के अतिरिक्त और कोई उस घर में है, लगा तो नहीं। उससे कुछ जानकारी हासिल करने का भी उपाय न था। सड़क पर निकलने पर ज़रूर टेलीफ़ोन बूथ मिल सकता है। फ्रैंकफ़ुर्ट शहर मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित भी नहीं था, मैं पहले भी जर्मनी आया था।
कपड़े पहनकर फिर से तैयार होकर, चाभी लेकर उतरते वक़्त देखा कि वह आदमी हथौड़ी से सीढ़ी की मरम्मत कर रहा था। एक जगह पर तख़्त डटा हुआ था, इस कारण मुझे फलाँगकर जाना पड़ा। उस समय उससे हँसी का आदान-प्रदान हुआ।

एक घण्टे बाद जब वापस लौटा, तब भी उसे बड़ी लगन से काम करते पाया। सीढ़ी का काफ़ी हिस्सा उसने नया कर डाला था। उसकी बनियान पसीने से भीगी हुई थी।
शाम के वक़्त गृह-स्वामिनी मेरा हालचाल पूछने आयीं। काफ़ी तन्दुरुस्त जर्मन महिला थीं, चेहरे पर हाव-भाव पर्शियनों की भाँति थे। वो काम चलाने लायक़ अँग्रेज़ी जानती थीं। पास के ट्रॉम, बस स्टॉप तथा रेस्टोरेण्ट के बारे में उन्होंने मुझे जानकारी दी। मैंने उन्हें किराये का अग्रिम पैसा दे दिया।
वह गूँगा व्यक्ति थोड़ी दूर खड़ा था। साधारणतः गूँगे लोग बहरे भी होते हैं, पर यह तो काफ़ी मन लगाकर हमारी बातें सुन रहा था। उसके गले में काफ़ी बड़ा एक लॉकेट था, जिसमें किसी की तस्वीर थी। हमारे देश में जैसे साईंबाबा या किसी और गुरू का लॉकेट लोग गले में डालते हैं, शायद वैसा ही कोई होगा। वह आदमी अपना लॉकेट एक हाथ से, हिला-डुला रहा था।
उस महिला ने कहा, ‘‘मेरे पति के संग आपका परिचय तो पहले ही हो चुका होगा, मैं सारा दिन घर पर नहीं रहती, पर फ़िलिप रहता है। आपको जिस चीज़ की भी ज़रूरत हो इससे माँग लेना।’’
तो यह गूँगा इस महिला का पति है, मैंने तो इसे मिस्त्री समझा था। जल्दी से मैंने दाहिने हाथ से उसके साथ हाथ मिलाया। उसकी हँसी में एक तरह की सरलता थी।

गृह-स्वामिनी ने अपना नाम बताया, जिसे बोलना काफ़ी कठिन था। पर उन्होंने यह भी बतलाया कि इस नाम से उन्हें कोई नहीं बुलाता। सब उन्हें नोरा कहकर बुलाते हैं। उन्होंने बताया कि, ‘‘पहले भी यहाँ भारतीय अतिथि रह चुके हैं। उन्हें यहाँ किसी तरह की असुविधा नहीं हुई। आपको भी किसी तरह की असुविधा नहीं होगी।’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘नहीं-नहीं काफ़ी ख़ासी जगह है। स्टेशन भी पास है। मुझे काफ़ी पसन्द है। यहाँ से ‘बुक-फेयर’ आने-जाने की भी काफ़ी सुविधा है।’’
नोरा ने कहा, ‘‘हम भी एक दिन ’बुक-फेयर’ देखने जाएँगे। तुम क्या हमारे लिए टिकट ला दोगे ? मेरे पति को किताबों से लगाव है, वे स्वयं भी एक कवि हैं।’’
मुझे फिर से अज़ीब लगा, क्योंकि मूक व्यक्ति कभी कविता रचना कर सकता है यह कभी नहीं सुना। हालाँकि इस संसार में कुछ भी हो सकता है—जैसे संगीत स्रष्टा बिथोवेन बहरे हो गये थे, मिल्टन अन्धे हो गये थे, पर ये सब कितने महान रचनाकार होकर संसार को चौंका गये थे।
नोरा ने बताया, ‘‘ये जर्मन भाषा में नहीं लिखते, ये मैसिडोनियन भाषा में लिखते हैं।’’
मैंने कहा, ‘‘मैसिडोनियन ?’’
अब नोरा के चौंकने की बारी थी। उसने कौतूहल जताया, ‘‘तुम उस भाषा के विषय में जानते हो ? हम जर्मन नहीं हैं, मैसिडोनियन हैं।’’
मैंने अपना ज्ञान प्रदर्शित करने के लिए पूछा, ‘‘तुम लोग कहाँ के हो ? मैसिडोनिया नाम का तो कोई देश नहीं है। वह देश टुकड़ों में बँटकर बुलगारिया यूगोस्लाविया, ग्रीस में और कुछ भाग शायद अलवेनिया में भी चला गया है, तुम लोग क्या यूगोस्लाविया से आये हो, मैं एक बार....।’’

मैं अपनी पूरी बात ख़त्म कर पाता, इससे पहले ही एक अप्रत्याशित घटना का मुझे सामना करना पड़ गया।
अब तक मैं जिसे गूँगा समझ रहा था, वह बात करने लगा। काफ़ी ग़ुस्से वाले लहज़े में उसने नोरा से कुछ पूछताछ की। जिस भाषा में वह बोल रहा था उसे समझना मेरे लिए असम्भव था।
अब तो नोरा और फ़िलिप उसी भाषा में न जाने क्या बातें करने लगे। लग रहा था जैसे झगड़ रहे हों। मैं बुद्धू की तरह खड़ा देखता रहा।
थोड़ी देर बाद नोरा मेरी ओर मुख़ातिब होकर बताने लगी, ‘‘मेरे पति तुम्हें गुप्तचर समझ रहे हैं, मैं उन्हें कितना समझाने की कोशिश कर रही हूँ कि तुम एक भारतीय हो, तुम्हारा इसमें किसी प्रकार का उद्देश्य नहीं है; इण्डियन लोग इस तरह के झगड़ों में नहीं पड़ते...।’’
‘‘अच्छा तो ये मुझे गुप्तचर समझ रहे हैं ! इसका मतलब यहाँ किसी प्रकार का षड्यन्त्र रचा जा रहा है। यह क्या बम, बन्दूक वग़ैरह तैयार करते हैं ? यह मैं कहाँ फँस गया ?’’
नोरा ने मुझे आश्वस्त किया और पति का हाथ पकड़कर ले गयी। जाते वक़्त भी दोनों में वाद-विवाद जारी था।
ज़्यादा डरा तो नहीं, पर मुझे चिन्ता अवश्य होने लगी। यह अचानक गुप्तचरवाली बात कहाँ से पैदा हुई ? विदेश में जाकर किसी तरह के झंझट में न पड़ जाऊँ ! एक आदमी बात कर सकता है तो भी गूँगा बना रहता है, मुझको यह भी काफ़ी सन्देहजनक ही लगा।
फ़िलिप का चेहरा देखकर तो उसे काफ़ी भोलाभाला समझा जा सकता है, पर वह अचानक उतना गुस्सा क्यों हो गया ? मैंने ऐसा क्या बोल दिया ?

कुछ बरस पहले मैं यूगोस्लाविया के एक छोटे से शहर में गया था-वहाँ एक अन्तर्राष्ट्रीय कवि-सम्मेलन में भाग लेने। वहाँ पर मैंने सुना था कि उस इलाक़े की भाषा मैसिडोनियन है और उस भाषा को प्रतिष्ठित करने के लिए आन्दोलन भी चल रहा था। मैंने जिस बांग्ला कविता का पाठ किया था उसी का अनुवाद मैसिडोनियन भाषा में करके सुनाया गया।
मैसिडोनिया। नाम सुनकर ही रोमांचक लगता है। ईसा के जनम से साढ़े तीन सौ बरस पहले इस छोटे से देश के राजा फ़िलिप के लड़के अलेक्ज़ेण्डर ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था। हमारे देश के इतिहास में भी अलेक्ज़ेण्डर का विशेष स्थान है; और उसकी वजह है फारस, मिस्र, बैबीलोन को पैरों तले रौंद डाला था दिग्विजयी अलेक्ज़ेण्डर ने। परन्तु वह भारत पर अधिकार नहीं कर पाया। विश्वासघातक तक्षशिला के राजा की सहायता से उसने झेलम नदी के पार महाराजा पुरु को युद्ध में परास्त तो किया था, पर उनके पौरुष-पराक्रम को देख के वे मुग्ध होकर उनके मित्र भी बन गये। भारतीय सेना की वीरता के कारण अलेक्ज़ेण्डर की सैन्य-वाहिनी भी आगे बढ़ने का साहस नहीं कर सकी। अलेक्ज़ेण्डर गंगा पार नहीं जा पाये थे।
मेरी यही धारणा थी कि हज़ारों वर्षों के इतिहास-भूगोल के नाना परिवर्तनों के कारण शायद मैसिडोनिया का नाम मानचित्र से पूरी तरह से मिट चुका है। अलेक्ज़ेण्डर की अकाल मृत्यु के पश्चात् उनके साम्राज्य के टुकड़े-टुकड़े हो गये और मैसिडोनिया नाम भी कहीं नहीं रहा। परन्तु यूगोस्लाविया जाकर ही मुझे पता चला कि मैसिडोनिया नामक देश पूरी तरह से लुप्त नहीं हो पाया। यह तीन-चार देशों में फैल गया है। वही प्राचीन भाषा अभी भी ग्रीक के साथ टक्कर लेती है।
जर्मनी में अनेक जातियों के इनसान रहते हैं। मैं एक मैसिडोनियन परिवार में अकस्मात् आ पहुँचा। पर ये लोग गुप्तचर का डर क्यों पाले हैं ? ये क्या यहाँ पर ग़ैरक़ानूनी तौर पर रहते हैं ? पर मैं भी तो यहाँ ऐसे ही अचानक नहीं आया। पुस्तक-मेले के अधिकारियों के पास होटल या अतिथि-गृहों की तालिका रहती है, वहाँ से पता पूछकर मैंने यहाँ पहले खोज़-ख़बर की थी। पुस्तक-मेले के अफ़सर तो भली-भाँति ख़ोज-ख़बर लिए बिना किसी की सिफ़ारिश नहीं कर सकते। वे अतिथि-गृहों का दौरा भी करते रहते हैं। अगर किसी प्रकार की भी धाँधलेबाज़ी होती तो वे अवश्य पकड़ लेते।
ये अगर बम-बन्दूक़ के कारोबारी हैं तो कुछ पैसों के लिए अतिथि काहे को रखते ?

सुबह नींद टूटी तो चाय की तलब होने लगी। अतिथि-गृहों में खाने की व्यवस्था नहीं रहती, खाना बाहर खाना पड़ता। पर ये सामान्यतः नाश्ता ज़रूर देते हैं। पर होटल की भाँति ज़रूर चाय नहीं देंगे। नींद टूटने के बाद चाय की प्याली में मुँह दिये बिना हम लोगों का दिन ही शुरू नहीं हो पाता।
थोड़ी देर प्रतीक्षा करके लगा कि शर्म करने से कोई फ़ायदा नहीं, नीचे जाकर माँगना चाहिए।
तीसरी मंज़िल के दूसरेवाले कमरे में और कोई नहीं आया था। दो तले में पति-पत्नी के अतिरिक्त किसी और के अस्तित्व का पता ही नहीं चला।
सीढ़ी के सामने खड़े होकर देखा कि पहली मंज़िल के एक कमरे से नींद से भरी आँखों से नोरा का पति निकल रहा है। उसने हाफ़ पैण्ट पहना था और नंगे बदन था। मुझे देखा तो वह भागकर कमरे के घुस गया...। शायद यह व्यक्ति अभी भी मुझसे नाराज है। चाहे वो नाराज हो या न हो, मेरा तो बिना चाय के नहीं चलेगा। उस महिला को कैसे बुलाऊँ ? नीचे उतरा तो देखा कि फ़िलिप कमरे से बाहर निकल रहा था और अब उसने पैण्ट-कमीज़ पहन लिया था। शायद नंगे बदन था, तभी दौड़ा था, अब काफ़ी तन्दुरुस्त और ठीक-ठाक लग रहा था।
सिर हिलाकर उसने दो बार ‘मार्निंग, मार्निंग’ कहा। इसके मायने फ़िलिप को अँग्रेज़ी भी आती है। कल मेरे सामने तो एक अक्षर भी नहीं बोला। यह भी रहस्यपूर्ण ही था मेरे लिए।
अब नोरा ड्रेसिंग गाउन पहनकर निकल आयी। सुप्रभात बोलकर मैंने उससे पूछा, क्या मुझे मेहरबानी करके एक प्याली चाय दे सकेंगी ? नाश्ता बाद में करूँगा, पहले चाय चाहिए।

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