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रंगमंच का जनतंत्र

हृषीकेश सुलभ

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :248
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 12476
आईएसबीएन :9788126717842

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रंगमंच का जनतन्त्र ऐसी रचनाओं का संकलन है, जो रंगमंच की जनतान्त्रिकता को गहराई से रेखांकित करती हैं। यह अतीत और वर्तमान की यायावरी है। इस यात्रा में समय, समाज, जीवन और रंगमंच के कई पहलू उद्घाटित होते हैं। इन रचनाओं का भूगोल काफी विस्तृत है। यहाँ संस्कृत रंगमंच की महान परम्परा से लेकर आज के रंगमंच तक की अर्थवान छवियाँ अंकित हैं। इनमें एक ओर विदूषक और सूत्रधार जैसे रूढ़ चरित्रों तथा पूर्वरंग जैसी रंगरूढ़ियों का विश्लेषण है, तो दूसरी ओर भाषा संगीतकों के उदय, पारसी रंगमंच के अवसान, आजादी के बाद की रंगचेतना आदि की विवेचनात्मक पड़ताल है। समय के अन्तरंग में उतरकर अपनी रंगसम्पदा को जानने-समझने की जिद करती ये रचनाएँ पाठकों से आत्मीय संवाद कायम करती हैं। शास्त्रीयता, पारम्परिकता, महाकाव्यात्मकता, कालविद्धता और जनपक्षधरता की खोज में हृषीकेश सुलभ कई अजाने रास्तों से भी गुजरते हैं और नए अन्तर्विरोधों की तरफ संकेत करते हैं।

समय और समाज को अभिव्यक्त करने के लिए नई रंगभाषा, रंगदृष्टि, रंगयुक्तियों आदि की खोज करते हुए वह समकालीन रंगमंच की समस्याओं-चिन्ताओं से टकराते हैं और हमारे समय का रंगविमर्श रचते हैं। अपनी बात कहने के लिए हृषीकेश सुलभ ने रंगसिद्धान्तों, रंगव्यक्तित्वों, पुस्तकों, शैलियों, रंगप्रदर्शनों आदि विविध माध्यमों का सहारा लिया है। यह विविधता ही सही अर्थों में रंगमंच का जनतन्त्र की विशिष्टता है।

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