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कहानी संग्रह >> द्वार नहीं खुले

द्वार नहीं खुले

भगवतीकुमार शर्मा

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1252
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह...

Dwar Nahi Khule

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुत संग्रह में लेखक ने मध्य, निम्न एवं निरन्तर स्तर का जीवन जी रहे, साधारण लोगों की मानसिक अनुभूतियों उनके संवेदनों भाव-वर्तुलों एवं संवाद-विसंवादों के सूक्ष्म रेखांकन में अपना अपूर्व रचना कौशल दिखाया है। विशेषकर विवाह और मृत्यु तथा उसके आस-पास के कालखण्डों में उत्पन्न समस्याओं के फलस्वरूप व्यक्ति की मानसिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं की तीव्रता को अभिव्यक्ति प्रदान की है।

प्रस्तुति

भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभाई है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कारण यही है। भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के मापदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कालजयी कृतियों का हिन्दी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्यमनीषियों का हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर परिचय कराके ज्ञानपीठ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण राष्ट्रीय दायित्व निभा रहा है। इस साहित्यिक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज्ञानपीठ विभिन्न साहित्यिक विधाओं की उत्कृष्ट कृतियाँ भी ‘भारतीय कवि’, ‘भारतीय कहानीकार’, ‘भारतीय उपन्यासकार’ आदि श्रृंखलाओं के रूप में प्रकाशित कर रहा है। प्रत्येक विधा के सभी अग्रणी लेखकों की कृतियाँ व संकलन इस योजना में सम्मिलित किये जाते हैं। हमारा अनुभव है कि किसी भी साहित्यिक (या अन्य भी) रचना का हिन्दी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के नये और नवोदित लेखकों को उनकी भाषा-परिधि के बाहर लाने में भी हम सक्रिय हैं। हमारा विश्वास है कि यह सब प्रयत्न आधुनिक भारतीय साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।

प्रस्तुत कहानी-संकलन के लेखक भगवती कुमार शर्मा गुजराती साहित्य में परम्परा और आधुनिक प्रयोगवादी कहानीकार के रूप में बहुत लोकप्रिय हैं और अपना एक सम्मानजनक स्थान बना चुके हैं। भगवतीभाई का पहला कहानी-संकलन 1953 में प्रकाशित हुआ था। तब से लेकर अब तक उन्होंने लगभग 500 कहानियाँ लिखी हैं। उनके 9 कहानी-संकलन भी अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। उनका एक संकलन ‘भगवतीकुमार शर्मानी श्रेष्ठ वार्ताओ’ 1987 में प्रकाशित हुआ था। प्रस्तुत संकलन की अधिकांश रचनाएँ उसी संकलन में चुनकर अनूदित हुई हैं। कुछेक कहानियाँ उसके बाहर की भी हैं। इन कहानियों के चयन में उनका उद्देश्य प्रचारक की अपेक्षा साधक का अधिक रहा है। एक कथाकार होने के साथ-साथ वह एक अच्छे कवि भी हैं। यही कारण है कि कविता की संवेदना उनके कथा-सृजन में भी देखी जाती है और इसलिए उनकी कहानियाँ सुघड़ और अनोखी बन गई हैं। भगवतीभाई ने एक प्रसंग में कहा भी है-‘‘मैं नक्कार खाने का आदमी नहीं हूँ। अपनी इन कहानियों में भी बाँसुरी-वादन के अपने कुछ सुर मिलाने की मेरी प्रवृति है।’’
संकलित कहानियों के सहज अनुवाद के लिए श्रीमती सरला जगमोहन के हम बहुत आभारी हैं। पाण्डुलिपि के अवलोकन एवं मुद्रणकार्य में हमारे सहयोगी डॉ. गुलाबचन्द्र ने अपने दायित्व का भलीभाँति निर्वाह किया है।
तो समर्पित है हिन्दी-जगत् के सह्रदय पाठकों को इस कहानी-संग्रह के रूप में भगवतीभाई की कुछेक सुन्दर रचनाएँ ।

प्रस्तावना

भगवतीकुमार शर्मा की कहानियाँ : परम्परा और प्रयोग का सुभग समन्वय

केन्द्रीय साहित्य अकादमी द्वारा अपने उपन्यास ‘असूर्य लोक’ के लिए और अपनी कहानियों के लिए गुजरात की साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत और ‘ऊर्ध्वमूल’ तथा अन्य कहानी-संग्रहों के लिए रणजितराम सुवर्णचन्द्रक, गोवर्धनराम माधवराम त्रिपाठी पुरस्कार प्राप्त करने वाले भगवतीकुमार शर्मा विशेष रूप से तो एक कथा-सर्जक के रूप में मशहूर हैं। परन्तु भीतर से भगवतीभाई का जीव कवि का है। इससे कोई ऐसा न समझ ले कि उनके कथासृजन में कोई कमी रह गई है। एक कथाकार के लिए आवश्यक सौजन्य और प्रज्ञान उनमें पर्याप्त मात्रा में है। परन्तु कविता की संवेदना उनके कथा-सृजन में कलापूर्ण ढंग से सम्मिलित हो जाती है, जिससे उनकी कहानियाँ सौष्ठवपूर्ण, सुघड़ और अनोखी बन जाती हैं। कथा-सृजन के सन्दर्भ में कविता कथा पर प्रच्छन्न रूप से हावी नहीं होती है, परन्तु वह उनकी समग्र कथा-प्रवृति के गतिशील स्त्रोत को प्रकट कर देती है।

भगवतीभाई ने जब कथा-सृजन का आरम्भ किया तब गुजराती साहित्य का संक्रान्ति-काल चल रहा था। विशेषतः कहानियों के क्षेत्र में आरम्भ में तो चकरा देने वाले प्रयोग होने लगे और कुछ अपवादों को छोड़कर बाद में यह केवल प्रयोगवादिता का निमित्त ही रह गया। रंजक और उपदेशक तत्वों के निर्मूलन के प्रशंसनीय उद्देशय के उपक्रम के साथ ही साहित्य की सभी सृजनात्मक विधाओं को कविता-लक्ष्यी बनाने के जुनून और प्रयोगों की भरमार हो गई जिसके फल स्वरूप उनमें दुर्बोधता, निरी एकान्तप्रियता और चैतसिक गतिविधियों के तत्त्व आ गये। इसके कुछ उत्कृष्ट परिणाम अवश्य आये, परन्तु लोकप्रियता मानो कोई अपराध हो, प्रयोगवादी सर्जकों ने अपने आपको लोगों से अलग कर लिया। जाने-अनजाने ऐसा माहौल बन गया कि सामान्य मनुष्य साहित्य से वंचित रह जाए। परिणाम यह हुआ कि साहित्य केवल मुट्ठी-भर मनुष्यों के लिए बौद्धिक व्यायाम या व्यवसाय बन गया। उस समय उद्देश्य शायद ध्यान आकर्षित करने का ही था और सृजनात्मक नवोन्मेषों के कारण ऐसा हुआ भी। लेकिन फिर तो प्रयोगवादिता एक रूढ़ि होकर रह गई।

आक्रमिकता, आग्रहों और पूर्वाग्रहों के कारण ऐसी स्थित का निर्माण हो गया कि प्रयोग के रूप में रूढ़ हो गये स्वरूपों के मूल तत्त्वों की उपेक्षा या विलोपन करने की प्रवृति का प्राधान्य रहा। इस विषय में ऐसा भ्रम फैल गया कि कथा में से घटना को लुप्त करने की प्रवृति अभिनिवेष के रूप में प्रकट होने लगी। आकृति और रूप- विधान को लेकर अनिवार्यतया मूल घटकों की उपेक्षा हुई। इसके अन्ध अनुकरण ने ऐसे प्रयोगों को जन्म दिया जो बाद में खोखले और सत्त्व-मूल्यहीन सिद्ध हुए। रूप विधान की जिस संकल्पना को महत्व देने की आवश्यकता थी, वह भी पूवग्रहों की शिकार बन गयी और इसके साथ ही एक ऐसी पीढ़ी का जन्म हुआ जो प्रयोगवादी और मित्रता से प्रेरित समीक्षाओं से सन्तुष्ट थी। कुछ अपवाद अवश्य थे, परन्तु यह पीढ़ी दिशाहीन थी। इसका एक कारण यह भी था कि सृजन के नये अभिगमों के साथ-साथ समीक्षा के प्रत्ययों में अपेक्षित परिवर्तन नहीं आया। परिणाम यह हुआ कि पूरा एक दशक प्रयोगवादिता और किसी-न-किसी वाद के अवशेषों को बनाए रखने की चिन्ता में, गतानुगतिकता और अगतिकता में बरबाद हो गया।

फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि इन प्रयोगों और प्रयोगवादिता की भरमार को लेकर हताशा का जो वातावरण पैदा हो गया, इससे साहित्य-सृजन की गति चाहे मन्द हो गई, परन्तु वह निष्प्राण या मृत-प्राय तो नहीं हु्ई, इसका कारण शायद यह है कि कुछ लेखकों ने प्रयोगों के तमाम गुण- लक्षणों को आत्मसात् किया और साथ ही परम्परा की उत्कृष्टता को भी अपनाया और वे प्रवाह के विरुद्ध न गये और न ही प्रवाह के साथ अपने को घसिटने भी दिया, परन्तु शान्त-स्वस्थ गति से, आत्मविश्वास के साथ और केवल कृति की भीतरी माँग को ध्यान में रखकर, उसे अपने अंकुश में रखकर सृजन किया। आज तो ऐसी एक पीढ़ी फिर से क्षितिज पर नजर आ रही है, जिसे काफी स्वस्थ कहा जा सकता है। ऐसे कुछ सर्जकों में भगवतीकुमार शर्मा का नाम अवश्य शामिल किया जा सकता है।

भगवतीभाई ने 1950 में कहानी-लेखन का आरम्भ किया, हालाँकि उनकी प्रथम कहानी 1953 में प्रकाशित हुई। 1991 तक उन्होंने लगभग 500 कहानियाँ लिखी हैं। इनमें से 175 कहानियाँ उनके नौ कहानी-संकलनों में ग्रन्थस्थ हो चुकी हैं। 1987 में ‘भगवतीभाई शर्मानी श्रेष्ठ वार्ताओ’ (भगवती कुमार शर्मा की श्रेष्ठ कहानियाँ) शीर्षक से जो संकलन प्रकाशित हुआ, उसमें से 16 कहानियाँ इस कहानी-संग्रह के लिए चुनी गयी हैं। शेष चार कहानियाँ (‘वयसन्धि’, ‘बूढ़े की मौत’, ‘जयमाला’ और ‘मरणानुभूति’) भी इसमें शामिल हैं जो उपर्युक्त कहानी-संग्रह के प्रकाशन के बाद लिखी गई हैं। कहानियों का चयन करने में लेखक की दृष्टि अपनी प्रयोगशील तथा प्रतिनिधि कहानियों को हिन्दी के पाठकों के सामने लाने की रही है। इन कहानियों के चयन में (और समग्र सृजन के प्रति भी) उनका अभिगम प्रचारक की अपेक्षा साधक का अधिक रहा है। उनके ही शब्दों में: ‘‘मैं नक्कारखाने का आदमी नहीं हूँ। अपनी इन कहानियों में भी बाँसुरी-वादन के अपने कुछ सुर मिलाने की मेरी प्रवृति है।’’

भगवतीभाई की अधिकतर कहानियों का केन्द्र एक ही लगे, ऐसा भी सम्भव है। लगता है एक ही केन्द्र पर से त्रिज्याओं के विस्तार में और इस प्रक्रम द्वारा रचे जाते भाव-वर्तुलों और स्पन्दनों में उनकी विशेष रूचि है। दूसरे शब्दों में, उनकी कहानियाँ सहज कैलीडॉस्कोपिक पद्धति से अलग-अलग ढंग से उभर आती हैं और एकविधता (मोनोटॉनी) का सौन्दर्य प्रकट करने का प्रयास करती हैं ।

भगवतीभाई की कहानियों के पात्रों और उनमें वर्णित परिवेश में उनके काव्यात्मक संवेदनों का विशेष स्पर्श पाया जाता है। लगता है कि रोमांटिक बनने की हद तक पहुँचने वाला काव्यावरण, जो कहानी के लिए उपकारक बन जाता है, उनकी कृति का प्रधान लक्षण है। और साथ ही पात्रों की ऋजुता, सौम्यता, उनकी कल्पना और उनके विरह, आवेश और तिरस्कार के भावों की एकविधता भ्रामक भी लग सकती है। परन्तु गहराई से देखने पर उस विविधता में सूक्ष्म भिन्न्ता और अलगाव भी दिखाई देंगे। कभी ऐसा भी लग सकता है कि उनकी कहानियों के नायक-नायिका एक ही हैं और वातावरण या परिवेश ही उन्हें अलग रख देते हैं। कभी ऐसा भी लग सकता है कि पात्रों के व्यवहार और उनके स्वभाव लेखक द्वारा आरोपित किए गए हैं। परन्तु खूबी के साथ लेखक ने हर पात्र में एकाएक नजर में न आएँ ऐसे भाव-संवेदनों द्वारा पृथकता सिद्ध कर दी है और यही तो भगवतीभाई के सृजन की विशिष्टता है।

विवाह और मृत्यु-भगवतीभाई की कहानियों के ये दो प्रमुख केन्द्र हैं। वैसे तो इन दो केन्द्रों को सारे संसार की कहानियों के केन्द्र के रूप में देखा जा सकता है परन्तु मृत्यु और विवाह को उनके प्रचलित प्रभावक रूप से हटकर, फिर भी तीव्र संवेदना के साथ केन्द्र में रखा गया है और यही कारण है कि जिस घिसे-पिटे तरीके से इन्हें साधारणतया कहानियों में लाया जाता है, इससे भिन्न हो जाते हैं। मृत्यु को उसकी भयानकता के नहीं, बल्कि सनातनता के सन्दर्भ में लिया गया है और स्पष्ट है कि वह रूप सहानूभूति की याचना का साधन नहीं बन जाता है। और विवाह भी-सामाजिक रीति-रूढ़ियों के अनुसार होने पर भी, उसके केन्द्र में रहता है मानव-संवेदनाओं को प्रकट करने वाला क्षितिज, जहाँ यन्त्रणा और मानसिक संघर्ष के ऐसे अव्यक्त खण्ड उलझे हुए पड़े हैं जो मृत्यु से भी अधिक दारूण हैं।

विवाह की घटनाओं और उसकी समस्याओं को भी लेखक ने मृत्यु की तरह ही एक अटल परिबल के रूप में अपनी कहानियों में समाविष्ट किया है। विवाह से सम्बन्धित सभी सामाजिकताएँ यहाँ मौजूद हैं। विवाह को यहाँ विधिनिर्मित मनुष्य द्वारा आरोपित घटना के रूप में लिया गया है। सम्बन्धित पात्रों का अपने विवाह पर काबू नहीं है और न ही उनमें अपना विवाह स्वयं निश्चित करने का सामर्थ्य भी है। फलस्वरूप इस परम्परागत घटना द्वारा ये पात्र, विधि या समाज जैसा चाहे, वहीं बरबस पहुँच जाते हैं-गहरी व्यथा या कुढ़न के साथ। पात्रों की कुढ़न या असहायता को तार-स्वर में अभिव्यक्त नहीं किया गया है। इसका सुर संयत है इसलिए विद्रोह के लिए उत्सुक आज की वाचाल पीढ़ी को इस अवशता को स्वीकार करना मुश्किल लग रहा है। परन्तु जहाँ संवेदना स्नेह का पर्याय बनकर रह जाए, वहाँ अधिकार या अवशता आ ही जाएगी। आज के विद्रोहात्मक समय में जिसकी कमी महसूस हो रही है, संवेदना की कड़ी भी अनिवार्य बन जाती है- विशेष रूप से मानव-स्वभाव के सन्दर्भ में।

मृत्यु और पात्र-परिवेश पर पड़ रही छाया को लेखन ने कैलीडोरकोपिक ढंग में निरूपित किया है और यह भिन्नता पात्रों और उनके मनोगत सन्दर्भ में प्रकट होती है। मृत्यु का दारूण्य या कारुण्य केन्द्र में नहीं है । केन्द्र में तो मृत्यु के कारण किसी व्यक्ति की अनुपस्थिति के सन्दर्भ में प्रकट होने वाला मनोमन्थन और व्यवहार है जो कभी मर्मान्तक तो कभी आघात-प्रत्याघात की भूमिका में तीव्रतम हो उठता है। उदाहरणतः इस संकलन की कहानी ‘प्रतीति’ में निरू की अचानक मृत्यु के कारण पति का यह विश्वास कि उसकी पत्नी की उसके पहले मृत्यु नहीं होगी, बिखर जाता है, और वह मृत्यु के बाद की जाती परम्परागत क्रिया-विधियों में व्यस्त हो जाता है, परन्तु सबके चले जाने के बाद, अकेला रह जाने पर, उसे निरू की अनुपस्थिति का तीव्रता से अनुभव होता है। इस स्थिति को सिने-मैटिक पद्धति से प्रभावक ढंग से उभारा गया है। कहीं-कहीं अतिसरलीकरण भी लगता है, फिर भी मृत्यु तथा उसके सन्दर्भ में होने वाले विधि-विधानों के विषय में लेखक की सूक्ष्म जानकारी का आभास तो इसमें मिलता ही है।

‘प्रेम-अंश’ और ‘मरणानुभूति’ में भी मृत्यु का ही निरूपण किया गया है, परन्तु दोनों का प्रभाव भिन्न है। ‘प्रेम-अंश’ में एक ओर माँ की मृत्यु के कारण संगीत की विरासत को खो देने का केतन का अनुभव और दूसरी ओर आभा द्वारा उस विरासत को अखण्ड रखने का स्नेहमय प्रयास और उसके द्वारा जगा आकर्षण केन्द्र में हैं, तो ‘मरणानुभूति’ में अपनी ‘मदर की डेथ’ पर शोक व्यक्त करने आए विद्यार्थियों के समक्ष जायसवाल साहब का उस मृत्यु की छाया से और अनुपस्थिति में माता की प्रभावक उपस्थिति से छूटने का प्रयास केन्द्र में हैं।

उपर्युक्त कहानियों में मृत्यु के तत्काल प्रभाव को लेकर पात्रों की स्थिति-गति का निरूपण किया गया है। उसमें सामाजिक न्यूनता का तत्व आ जाने से एक प्रकार का आदिमरूप, खुरदुरापन और मलिन तीक्ष्णता भी आ जाते हैं। ‘बूढ़े की मौत’ में बूढ़े भूषण की मृत्यु की आशंका को लेकर मुहल्ले के लोगों की तीव्रदाहक प्रतिक्रियाएँ कुत्तों की प्रतिक्रियाओं के सन्दर्भ में प्रकट होती हैं और तब उसमें एक नया परिमाण आता है जो आदिमता को प्रकट करता है। मनुष्य के व्यवहार की तीक्ष्ण-तीव्र भावात्मकता को प्रभावी भाषा-प्रयोग द्वारा व्यक्त किया गया है। उसी प्रकार ‘सूअर की औलाद’ में चरण की सम्भावित मत्यु के सम्बन्ध में उसकी पत्नी कुन्ता की प्रतिक्रिया के रूप में उसके आदिम आवेग और अप्रकट स्नेह से प्रेरित व्यवहार भी तेजाबी-हिंसा और साथ ही संवेदन-सभर भाषा में सहज और प्रभावी ढंग से व्यक्त किये गये हैं।

भगवतीभाई के पात्र बौद्धिक भी हैं। परन्तु संवेदना के जो पात्रों के प्रकट व्यवहार में व्यक्त होती है, सन्दर्भों को प्रकट करने के उद्देश्य से ही उनकी बौद्धिकता का आधार लिया गया है। सम्भवतः इससे अधिक चिन्तन या गहराई उसमें नहीं मिलेगी। फिर भी सभी पात्र अपने-अपने सामाजिक और शैक्षिक सन्दर्भ को लेकर भिन्न बनकर रह जाते हैं। विशेष रूप से निम्न स्तर के और ग्रामीण पात्रों के सम्बन्ध में तीक्ष्ण बौद्धिकता के बजाय लेखक तीव्र मनोभावों को छेड़ सशक्त भाषा-प्रयोग का आधार लेकर चले हैं। भाषा की ऐसी ही अभिव्यक्ति ‘बैसाख की दोपहरी में’ भी पाई जाती है, जिसमें सोमली के छिनालपन के बावजूद केशव का पतिभाव जाग उठता है और सोमली का उसके द्वारा किये गए स्वीकार के साथ उसे झुलसती दोपहरी में नर्मी का अनुभव होता है। यहाँ कोई विशेष समझदारी या तीव्र संवेदना व्यंजनात्मक स्तर पर सक्रिय नहीं है परन्तु ‘एस्केप’ किसी स्वीकार की भूमिका बन जाए, यह भी परिस्थितिजन्य भावनात्मक निर्णय द्वारा इस कहानी में सूचित किया गया है। यह परिस्थिति भी मृत्यु जैसी ही आकस्मिक है, इसलिए पाठक को भी उसमें आकस्मिकता का अनुभव होगा।

दूसरी ओर, ‘स्व से निकट..दूर’ ऐसी कहानी है जिसमें बौद्धिकता सक्रिय है और पात्र की चेतना भिन्न स्तर पर विचरती है। मरणोन्मुख पुत्री की सुश्रूषा के निमित्त व्यावसायिक व्यस्तता से मुक्ति पाकर केतनभाई कुछ हल्कापन महसूस करते कि पुत्री के स्वस्थ होने पर फिर से व्यावसायिक गतिविधियों में उलझ जाने के भय से, उसी को लेकर ‘स्व’ से दूर हो जाने के असुख की तीव्र अनुभूति से घिर जाते हैं। ‘द्वार खुले नहीं’ में बहुत स्वस्थ परन्तु भीतर से छिन्न-भिन्न हर्षदराय के शोक का कारण हैं विदुला के साथ उनका दाम्पत्य-जीवन और विदुला की अचानक मृत्यु के कारण उसकी अनुपस्थिति का भाव जो पुत्र प्रणव के विवाह के समय उन पर छा जाता है। दूर हो जाने के बाद भी मृत्यु की छाया कैसे घेर लेती है इसकी तीव्र अनुभूति इसमें होती है। ‘कृष्ण तुलसी, राम तुलसी’ में अन्धे गुरूदयाल को अपनी दौहित्री वेणु के विवाह के समय पुत्री की अनुपस्थिति अन्धत्व से भी अधिक अन्धकार में धकेल देती है। इन दोनों कहानियों में वर्तमान तो विवाह से सुशोभित है परन्तु उनमें प्रिय पात्रों को छीन ले जाने वाली मृत्यु की लकीरें खींच देता है। पात्रों को इन प्रसंगों में उलझाकर लेखक मनोभावों को व्यक्त करना चाहते हैं इसलिए दर्शन या चिन्तन नहीं, अपितु मनो-मन्थन या पात्रों का व्यवहार ही कहानी को मोड़ देने वाला महत्तम बिन्दु बन जाता है।

इस संग्रह में सम्मिलित, भगवतीभाई की कहानियों में विवाह केवल एक अवसर के रूप में न होकर, उनके माध्यम से उनकी आनुषंगिक समस्याओं का भी निरूपण हुआ है। मृत्यु की छाया जहाँ प्रभावक नहीं है, कहानियों में विवाह होने, या नहीं हो पाने के क्षण कहानियों को एक नए मोड़ पर लाकर रख देते हैं और उसके कारण हो रही प्रतिक्रियाओं से कहानी का अन्त निश्चित होता है
‘द्विमुख’ एक प्रयोग-प्रधान कहानी है जिसमें लेखक ने फैन्टसी का आधार लिया है। एक सुबह ‘क्ष’ भाई को लगता है कि मूल सिर के साथ उन्हें दूसरा सिर निकल आया है। इस अनुभव के मूल में है वैवाहिक जीवन में प्रविष्ट हो चुकी नीरसता और बासीपन और उनके सामने टिके रहने के पति-पत्नी के प्रयास। रोजमर्रे की घटनाओं में कुछ स्थूल विनोद भी लाया गया है। परन्तु उसमें ‘दशकों से बनी हुई आदतें’, कण्डीशनिंग या वज्रलेप की तरह चिपकी हुई एकविधता कारण बनते हैं।

अभी जिन कहानियों का उल्लेख किया गया है, उनमें विवाह और विवाह से सम्बन्धित समस्याएँ प्रयोग के रूप में पाठकों के सम्मुख आती हैं। परन्तु प्रयोगशीलता का आग्रह नहीं रखते हुए कुछ कहानियों में इन समस्याओं को सहज भाव से भी निरूपित किया गया है। ‘अननुभूत’ और ‘अप्रतीक्षा’ उन कहानियों में से हैं जिनमें वैवाहिक जीवन की संवेदनशीलता के अभाव को लेखक ने मनोवैज्ञानिक क्रिया-प्रतिक्रिया द्वारा व्यक्त किया है। ‘अननुभूत’ में सरलता से अनुभव की गई जिन्दगी को नामशेष करते हुए स्व-बचाव के रूप में अति रोमांटिक अति काल्पनिक प्रतिक्रियाओं का निरूपण किया गया है। दूसरी ओर अरूचिपूर्ण प्रतीक्षा से बचाव के लिए जाने-अनजाने ‘अप्रतीक्षा’ के भाव की तीव्रता को अभिव्यक्त दी गई है, जो प्रलाप-आत्मसंलाप की हद तक पहुँच जाती है। पिता के दुराग्रह के कारण जया के साथ अपना विवाह न हो सका, इससे भानुभाई पीड़ित हैं और वैवाहिक जीवन की निष्फलता ने मनुभाई को ऐसी हद तक मूढ़ बना दिया है कि अनुभूति जैसा कुछ उनके पास शेष नहीं रह गया है। ‘अननुभूत’ में काल्पनिक साहसों द्वारा समाधान ढ़ूँढने का प्रयास है तो ‘अप्रतीक्षा’ में अपने ही पुत्र के साथ फिल्म देखने गयी हुई पत्नी की प्रतीक्षा करनी ही क्यों चाहिए, ऐसे अपने मन को मनाते हुए भी पति हर तरह से पत्नी की प्रतीक्षा ही करता है। इसमें पति के ‘अहं’ का मजाक उड़ाकर लेखक ने अपने सहज स्वभाव का निर्देशन किया है।

‘परछाईं’ में अविवाहित पुत्री के एक युवक के साथ के दैहिक सम्बन्ध के बारे में जानकार गिधुभाई के मन में जागे भावों का निरूपण है। कर्कशा पत्नी के सामने गिधुभाई लघुता का अनुभव करते हैं और पुत्री के सम्बन्ध का पता लगने पर वे उसके साथ आँख नहीं मिला सकते हैं परन्तु बाद में सालों के बाद वे पत्नी के सहवास की इच्छा से कमरे में प्रवेश करते हैं और उनको सफलता मिली या नहीं उसके बारे में लेखक ने सन्दिग्ध संकेत ही दिया है। ‘दबाव’ में दाम्पत्य जीवन की सफलता के मूल में कर्कशा पत्नी विमला की भूमिका का निर्देश किया गया है जो ओच्छवलाल की मनोव्यथा का कारण बन जाता है। यहाँ तक कि अहमदाबाद के लिए रवाना होने के पहले मोरी में जाना भूल गये और बस में लघुशंका के दबाव की पीड़ा भोगनी पड़ी, इसके लिए भी वे विमला को ही दोषी मानते हैं, जिसके चारित्र्य के बारे में उनके मन में शक है। लघुशंका की तीव्रता और उग्र मनोभावों के समान्तर निरूपण द्वारा लेखक ने अनेक सूचित अर्थों का निर्देश किया है, जिससे ‘दबाव’ को एक विशिष्टता प्राप्त होती है।

चारित्र्य के विषय में ऐसे ही शक का निरूपण ‘वय-सन्धि’ में किशोर वय के अयन की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं द्वारा किया गया है। बहिन के घर में अपेक्षाकृत स्वागत न होने पर अयन पड़ोस की पिंकी में समाधान ढूँढ़ता है परन्तु जब वह अपने बॉय-फ्रैण्ड का उल्लेख करता है तो उसके बहनोई की आँखों का शकर बाज उसकी आँखों में आकर बैठ जाता है और अयन के लिए मानो वैवाहिक जीवन के उसके द्वारा अब तक नहीं देखे हुए मानवखण्डों को देखने के लिए एक खिड़की खुल जाती है।

‘जयमाला’ में सम्बन्ध की सहजता और निर्बलता है। पुत्री के विवाह के अवसर पर तिलुबहिन अपने वांछित सजुभाई से वंचित रह जाने का दर्द अनुभव करती है। सजुभाई के बजाय बिहारीलाल के साथ तिलु का विवाह हो गया था, तब से पुत्री के विवाह के समय तक तिलुबहिन के मन में व्याप्त असन्तोष उनके रोएँ-रोएँ में चुभता रहा है, इस मनोभाव का तीव्रता के साथ, परन्तु संयमित ढंग से, निरूपण किया गया है ।

जहाँ विवाह घटना या समस्या के रूप में केन्द्र में है, वहाँ भगवतीभाई की कहानियों को एक ऐसी विशिष्टता प्राप्त होती है जिससे उन कहानियों के अन्त की भिन्नता में एकता सिद्ध होती है। एक पात्र के विचार, शब्दों और व्यवहार के सन्दर्भ में अन्य पात्र या पात्रों के विचार, शब्दों और व्यवहार द्वारा कहानी का अन्त होता है। इसी प्रकार एक पात्र का विवाह पछीत में चला जाए और वहाँ मुख्य पात्र के विवाह की सफलता या असफलता या मुख्य पात्र के सन्दर्भ में स्वजन की मृत्यु और उसकी प्रतिक्रियाएँ कहानी का अन्त निश्चित करती हैं। ‘जयमाला’ में तिलुबहिन की दबी हुई कुण्ठित मनःस्थिति पुत्री के विवाह के समय प्रकट हो जाती है। ये कुण्ठाएँ कभी घटना के उद्दीपन द्वारा प्रकट होती हैं तो कभी मनोवैज्ञानिक स्तर पर समस्या के हल के रूप में सामने आती हैं। ‘बैसाख की दुपहरी में’ में केशव की स्वामीवृति का जगना या ‘परछाईं’ में पुत्री के दैहिक सम्बन्ध के बारे में जानकर गिधुभाई द्वारा पत्नी पर अधिकार स्थापित करने के हेतु दैहिक सम्बन्ध का प्रयास, या ‘मरणानुभूति’ में विद्यार्थियों की उपस्थिति में जायसवाल साहब का शराब पीना आदि में उद्दीपन द्वारा जगती प्रतिक्रियाएँ कहानियों का ऐसा अन्त लाती हैं, जो असहज लग सकता है।

इस संग्रह की कहानियों में विवाह और मृत्यु का विषय-वस्तु के रूप में आधिक्य है और साम्य है, उसका पुनरावर्तन कभी किसी विशिष्ट समाज के रीति-रिवाजों के अनुरूप आता लगता है और तब इन कहानियों के पात्र समाज के भिन्न-भिन्न स्तर के नहीं लगते हैं और उनकी प्रतिक्रियाएँ भी एक-सी लगती हैं। ‘द्वार नहीं खुले’, ‘जयमाला’, ‘कृष्ण तुलसी, राम तुलसी’ में पाए गये विवाह विषयक विधिविधान या ‘प्रतीति’, ‘प्रेम-अंश’ या ‘मरणानुभूति’ में मृत्यु की घटना या उससे सम्बन्धित पात्र में किसी विशिष्ट समाज के संस्कार हैं, ऐसा लग सकता है। परन्तु हमें लेखक की सीमा नहीं मान लेना चाहिए क्योंकि साधारण मध्यम वर्ग के या निम्न स्तर के पात्रों की सामाजिकता भी उतने ही असरकारी ढंग से ‘सुअर की औलाद’, ‘बैसाख की दोपहरी में’, ‘अननुभूत’, ‘अप्रतीक्षा’ या ‘दबाव’ जैसी कहानियों में व्यक्त हुई है।

इस तरह मृत्यु और विवाह को विषय बनाकर लिखी गई कहानियों को समग्र रूप से देखा जाए तो उसमें निरूपित घटनाओं के साम्य और भेद की भी परिणति को नजर में रखते हुए गहराई से चर्चा की जा सकती है। ‘जयमाला’ में तिलुबहिन का साजुभाई के साथ विवाह नहीं हो सका था, इस बात का उसे असन्तोष है तो साथ ही अपनी तरह दुर्वा को भी कहीं रह-रह कर मन में उठ रहे अपराधभाव को कुचलकर तो नहीं जीना पड़ेगा, ऐसी चिन्ता भी है और अवशता की स्थिति में सजुभाई के सहज स्पर्श से बरसों से भीतर दबी हुई भावुकता उछलकर बाहर आ जाती है और सजुभाई के गले में जयमाला की तरह अपनी बाँहे आरोपित कर देती है। इस तरह कहानी का अन्त लाकर लेखक ने दुर्वा की स्थिति और उसके सम्भावित परिणामों का भी खूबी के साथ संकेत किया है। ‘द्वार नहीं खुले’ में हर्षदराय को तिलुबहिन जैसा असन्तोष नहीं है, परन्तु जिस स्थल पर अपना विवाह हुआ था, वहीं आज पुत्र का भी हो रहा है, यह सोचते हुए अपनी मृतपत्नी की अनुपस्थिति का दुःख उनके लिए असह्य हो जाता है।

भगवतीभाई की कहानियों के पात्रों और उनके व्यवहार के सम्बन्ध में और भी सोचा-कहा जा सकता है। परन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवतीभाई के अधिकतर पुरूष पात्र अधेड़ या वृद्ध हैं जो अपनी वय के बोझ को भूलकर अतीत का, यौवन का तीव्रता से अनुभव कर सकते हैं। समग्र रूप से देखें तो पुरूष पात्र अधिक संवेदनशील हैं और अपने प्रतिभाव तीव्रता से व्यक्त करते हैं वैवाहिक जीवन की असफलता या प्रिय पात्र की विदाई या मृत्यु से पुरूष पात्र अधिक व्यथित होते हैं। साधारण मध्य वर्ग या निम्न स्तर के पुरूष पात्र अपनी पत्नियों से न केवल असन्तुष्ट हैं, उनके चारित्र्य के बारे में शक्की भी हैं और आत्मपीड़न का मार्ग भी अपनाते हैं। इस स्तर के पात्र केवल बाहर से ही खूँखार या आक्रामक जान पड़ते है-परन्तु भीतर से तो वे मोम जैसे हैं, लाचार हैं। ‘अननुभूत’ के भानुभाई, ‘परछाईं’ के गिधुभाई, ‘बैसाख की दोपहरी में’ का केशव, ‘दबाव’ के ओच्छवलाल, ‘सूअर की औलाद’ का चरण आदि इसके उदाहरण हैं। इनमें से अधिकतर पुरूषों ने अपनी वैवाहिक स्थिति से समझौता कर लिया है, हालाँकि इस स्थिति से असन्तुष्ट होने के कारण उनकी प्रतिक्रियाएँ, जब उनको सामाजिक सन्दर्भ मिल जाता है, तब अधिक तीव्र हो जाती हैं। फिर भी उनकी लाचारी भद्र वर्ग के पुरूषों की अपेक्षा भिन्न नहीं जान पड़ती है।

भगवतीभाई के सभी पात्र अधिकतर मध्यम वर्ग या निम्न स्तर के हैं। वैवाहिक जीवन की सफलता या अन्य किसी कारणवश वे सब झगड़ालू हैं क्योंकि विवाह की पसन्दगी उनके पक्ष में नहीं है। उनकी अपेक्षाएँ ज्यादा नहीं है। जिनके साथ में उन्हें लाकर रख दिया गया है, उनके साथ वे लड़ते-झगड़ते भी निभा लेते हैं। कोई भी स्त्री पात्र विवाह-विच्छेद की हद तक नहीं जाता है। उनका व्यवहार मनस्वी होता है सही, परन्तु उनकी प्रतिक्रियाएँ विशेष रूप से प्रभावकारी सिद्ध नहीं होती हैं। उनके मन में झुँझलाहट है। परन्तु असन्तुष्ट होने पर भी सामाजिक रूढियों के अनुसार वे अपना वैवाहिक जीवन निभा लेती हैं। उसमें से अधिकतर को अपने शक्की पतियों का रोष सहन करना पड़ता है, और जहाँ ऐसी बात नहीं होती है, वहाँ भी स्थिति जैसी भी हो, उसे निभा लेने की उनकी वृत्ति होती है और उनकी गाड़ी कैसे भी चलती रहती है। ‘जयमाला’ की तिलुबहिन, ‘परछाईं’ की कपिला, ‘अननुभूत’ का जड़ाव, ‘दबाव’ की विमला, ‘बैसाख की दोपहरी में’ की सोमली इसके उदाहरण के रूप में दिए जा सकते हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि भगवतीभाई के स्त्री पात्रों में स्वभाव और आत्मगौरव के साथ जीनेवाली कोई भी पात्र नहीं है। ‘प्रतीति’ में निरू अपनी बीमारी के समय और मृत्यु के बाद जिस तरह परिवार को अपनी ओर खींच लेती है, उससे उसका प्रभावशाली और गौरवपूर्ण व्यक्तित्व उभर जाता है। कर्कश और फूहड़ लगने वाली ‘सूअर की औलाद’ की कुन्ता में भी संवेदना की मधुरता किसी अदृष्ट झरने की तरह बहती है। यह सही है कि एकाधिकार से जीने वाली इस नारी को भी अपनी इच्छा के अनुसार विवाह करने की स्वातन्त्र्य नहीं है। इस सन्दर्भ में तिलुबहिन की कुन्ता से कोई भिन्नता नहीं है। ‘प्रेम-अंश’ की माँ और ‘मरणानुभूति’ की नीता भी ऐसे ही प्रभावशाली और आत्मगौरव के साथ जीने वाले स्त्री पात्र हैं।
मृत्यु और विवाह को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानी ‘बाँस-डोरी’ एक रूपक कथा है। विवाह के समय जिस नारियल और बाँस को शुभ बताया जाता है, वे ही अवसान के समय कैसे अपशकुन के प्रतीक बन जाते हैं, इसका बाँस और नारियल में मानवभावों के आरोपण द्वारा ह्रदयद्रावक चित्रण किया है। मृत्यु का ऐसा ही आभास ‘पुकार’ में समुद्र और दीप-मीनार के प्रतीकों का श्रुति की अनिर्णय की मनःस्थिति का निर्देश करने के लिए प्रयोग किया गया है और समुद्र तथा दीप-मीनार दिशासूचन के और इसके अभाव में मृत्यु के निमित्त कैसे बन जाते हैं, यह दर्शाया है।

घटनाओं के निरूपण और समुचित भाषा-प्रयोग में तो भगवतीभाई ने अपने कौशल का परिचय दिया ही है, इसके साथ यह भी कहना चाहिए कि काव्यात्मक वर्णन और उपमाओं का वर्णन भी उनके लिए सहज है, जिसके अनेक उदाहरण इस संग्रह में देखने को मिलेंगे। अल्पविराम का उन्होंने उचित और चित्रात्मक ढंग से प्रयोग किया है, जिससे तफसीलों की अधिकता में भी संकीर्णता आ जाती है और उनकी भरमार अनेक स्थलों और समयों को साथ में लेते हुए वेग से आगे बढ़ती है और इस गतिशीलता और चित्रात्मकता से कथा को भी तीव्र गति प्राप्त होती है। इसके विपरीत जहाँ एकविधता, नीरसता या बासीपन का सूचन अपेक्षित है, वहाँ वाक्यों को खण्डित करके (-) के प्रयोग द्वारा स्थगितता लाने का लेखक ने प्रयास किया है। वैसे सभी कहानियों में अल्पविराम का प्रयोग असरकारी सिद्ध नहीं हुआ है। कहीं यह तफसीलों का सपाट निरूपण बनकर रह जाता है तो कहीं पुनरावर्तन का दोष भी आ जाता है। कहीं-

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