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भारतीय कविताएँ 1987-88

र श केलकर

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :216
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1286
आईएसबीएन :00000

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भारतीय भाषाओं में वर्ष 1987-88 में प्रकाशित 75 विशिष्ट कविताएँ...

Bhartiya Kavitayein 1987-88

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


भारतीय कविताएँ 1987-88 सभी भाषाओं की दोनों वर्षों की पाँच-पाँच प्रतिनिधि कविताओं की महत्वपूर्ण चयनिका है।

सम्पादकीय

सृष्टि के विकास में सबसे पहला तत्व आकाश माना गया है। आकाश से ही शब्द की उत्पत्ति हुई है। यही नाद-ब्रह्म है। आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथ्वी-ये पंचमहाभूत जड़-चेतन सृष्टि के आधार-स्तम्भ हैं। आकाश तत्त्व से उद्भूत नाद या शब्द में नागरी वर्णमाला के पचास अक्षर अन्तर्निहित हैं जो नाद की ही तरह सृजनात्मक एवं विनाशात्मक शक्ति से भरपूर हैं। अतीन्द्रिय दृष्टा ऋषि-मुनियों ने शब्द की इस अनन्त अनादि शक्ति को ही मन्त्र और तन्त्र की साधना-प्रणालियों में अभिलक्षित किया है। योगशास्त्र के अनुसार भी मानव अपने-आप सम्पूर्ण ब्रह्म का ही पूर्ण पर छोटा-सा प्रतीक है। योगशास्त्र के अनुसार भी मानव अपने-आप में सम्पूर्ण ब्रह्म का ही पूर्ण पर छोटा-सा प्रतीक है। केवल शरीरस्थ षट्चक्रों में वर्णमाला के यही समस्त अक्षर अपनी सम्पूर्ण ओजस्विता एवं शक्ति के साथ विद्यमान रहते हैं। अन्तःस्थिति इसी अक्षर-सामर्थ्य से मानवीय जीवन गतिशील है। मानव ह्रदय में जब असह्य दुःख अथवा अतिशय आनन्द का उद्रेक होता है तो अनायास ही तद्भाववाचक शब्द का स्फुरण होता है। और शब्द अपने स्वभाव के अनुरूप ही श्रोता में भाव जागृत करता है। साधारण व्यक्ति के शब्द की अभिधा शक्ति ही विद्यमान रहती है। असाधारण व्यक्ति शब्द की अभिधा, लक्षणा और व्यंजना शक्ति का भी अपने भावात्मक ह्रदय तथा विवेकपूर्ण विचार से प्रयोग करता है और उसी से उद्भुत होता है, काव्य जो सृजनात्मक, भावात्मक एवं प्रभावोत्पादक-तीनों एक साथ होता है।

काव्य चाहे वह किसी भी भाषा में और किसी भी समय में क्यों न लिखा गया हो और उसका कलेवर क्यों न विभिन्न हो, पर उसमें अन्तर्निहित भाव या उसकी आत्मा सर्वत्र एक ही होती है।
समग्र भारतीय काव्य की आत्मानुभूति के लिए ही भारतीय ज्ञानपीठ ने 1983 से हर वर्ष ‘भारतीय कविता’ विद्या में भारतीय भाषाओं में उस वर्ष प्रकाशित चुनी हुई कविताओं का संकलन निकालना शुरू किया है। हमें संतोष है कि हमारे सुधी पाठकों ने इस संकलन को भी उतना ही सराहा है जितना भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित अन्य ‘भारतीय उपन्यासकार’ या भारतीय कहानीकार आदि श्रृंखलाओं को।
और अब प्रस्तुत है यह कृति ‘भारतीय कविताएँ: 1987-88’ दो वर्षों की एक साथ। इस संग्रह के सम्पादक-प्रकाशन में मेरे सहयोगी गुलाबचन्द्र जैन ने जो अथक परिश्रम किया है उसके लिए मैं उनका अत्यंत आभारी हूँ।

कविता

एक कवि ने कहा था : कविता नहीं पढ़ते जो
कविता है उन्हीं के लिए
उन्हीं के आहत दिलों काँटों से बिंधी
उँगलियों के लिए
मृत और जीवित लोगों के लिए
पथ-वीथियों में अहर्निश गूँज रहे
चीत्कार के लिए
मरुभूमि के सूर्य के लिए

मृत्यु के अर्थ और जीवन की सारहीनता के लिए
ध्वंसावशेषों के अभिशप्त
पत्थरों के लिए
युवतियों के कामार्त होंठों की
लालिमा के लिए
लौह-श्रृंखल में जकड़े हाथों के लिए
कीट-पतंगे, सीप-घोंघे, शैवाल और
सेमल के फूलों के लिए
सन्ध्याकाश में अकेले उड़ते

पंछियों के लिए
जल और अग्नि की
उद्विग्नता के लिए
पाँच सौ करोड़ रुग्ण क्षुधातुर
शिशुओं की माओं के लिए
चाँद रक्ताभ न हो जाये
इस भय से स्तब्ध
प्रत्येक मुहूर्त के लिए
सृष्टि के पहले दिन के लिए

माटी का पुतला फिर से
माटी में जा मिलेगा
इसी पुरानी बात के लिए
और....
पृथ्वी घूमती रहे-इसलिए ।

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