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शायरी के नये दौर - भाग 2

अयोध्याप्रसाद गोयलीय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :201
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1288
आईएसबीएन :81-263-0013-2

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प्रस्तुत है शायरी के नये दौर भाग-2....

Shairi ke naye daur (2)

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

समर्पण

श्रद्धेय राहुलजी,
उच्च शिखर पर स्वयं ही नहीं बैठे, अपितु तलेहटी में भटकते हुओं को भी उबारते रहते हैं। आपकी महानता, मानवता और विद्वात्ता के प्रति ‘शाइरी के नये दौर’ के समस्त दौर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक समर्पित।

विनीत
अ.प्र. गोयलीय

प्राथमिक


पुरानी और नई शाइरीका अन्तर समझने के लिए शाइरीके नये दौरके ये तीन दौर क़ायम किये जा रहे हैं-
शुरूका दौर1- नज़ीर, आनीस, दबीरका दौर 1757 से 1857 ई० तक।
बीच का दौर2-आज़ाद-हालीका दौर 1858 से 1914 ई० तक।
मौजूदा दौर3- इक़बाल, चकबस्त, जोश आदिका दौर 1915 से 1958 ई० तक।

शुरू का दौर


 ऊर्दू–इतिहास-लेखकोंने नई शाइरीका सेहरा यद्यपि ‘आज़ाद’ और ‘हाली’ के सर बाँधने का प्रयास किया है, किन्तु इन महानुभावों से 100 वर्ष पूर्व ‘नज़ीर’ अकबराबादीने निश्चित लक्ष्यतक पहुँचनेके लिए प्रशस्त मार्ग बनाकर मीलके पत्थर भी गाढ़ दिये थे। जो ऊर्दू-शाइर परमुखापेक्षी थे-हर बात के लिए अरब-ईरानका मुँह जोहते रहते थे। दिन-रात उन्हीं का अन्ध अनुसरण करते रहते थे। नज़ीरने उन शाइरोंको यह

1. नज़ीर – जन्म 1740 मृ० 1830 ई०।
अनीस- जन्म 1802 मृ० 1874 ई०।
दबीर- जन्म 1803 मृ०1875 ई०।
2 आज़ाद – जन्म 1832 मृ. 1910
हाली-जन्म 1837 मृ० 1914 ई०।
3. इक़बाल –जन्म 1875 मृ० 1937 ई०।
चकबस्त-जन्म 1882 मृ० 1926 ई०।

जोश-जन्म 1896, जीवित।
बताने का नम्र प्रयास किया कि-अपना देश भी गुण-गरिमाका आगार है। भारत-वसुन्धरा भी अपनी गोदमें असंख्य विभूतियाँ लिये हुए है। यहाँ के सुख-वैभव, गुण-गौरव और प्राकृतिक सौन्दर्य से आकर्षित होकर जिन देशों के निवासी-बीहड़ जंगलो, रक्त-पिपासु रेगिस्तानों, कण्टकाकीर्ण मार्गों और दुर्गम पर्वतोंको रौंदते हुए यहाँ आकर बसनेपर सुख-शान्तिका अनुभव करते हैं। जिस देशको जन्नत की उपमा देते हैं। अपने उसी सुजलाम्-सुफलाम् देशकी उपेक्षा करके पर-मुखापेक्षी बने रहना स्वाभिमान और देशभक्तिका परिचायक नहीं !

आपलोग कब तक तुर्की-हूर-जैसे हरजाई मासूक़के कूचेमें ख़ाक छानते फिरेगे ? क्यों आपने देशकी लाजवती, सतवन्ती कुलललनाओं के चरणोंकी ओर निहारते ? जिनके पवित्र ऑचलोंपर जन्नतकी हूरें भी सिज्दा करनेको लालायित रहती हैं।
बे-वफ़ा लैली और शीरींके जिक्रोंसे बहन-बेटियोंको राहे-वफ़ासे भटकनेका कबतक प्रयास करते रहोगे ? आइशा, फ़ातिमा-जैसी पाकदामाँ अरबी ख़तून और सीता; दमयन्ती-जैसी पतिव्रताओंका उल्लेख करते हुए क्यों जम्हाइयाँ आती हैं ?
क्या एक भी भारतीय प्रेम और चाहतमें मजनूँ और फ़रहादके समकक्ष नहीं रखा जा सकता ? सीता-राम, राधा-कृष्ण, शकुन्तला-दुष्यन्त, संयोगिता-पृथ्वीराज, नूरजहाँ-जहाँगीर, मुमताज-शाहजहाँ, हीर-राँझा और सोहनी-माहवलमें-से क्या एक भी जोड़ी उल्लेख के योग्य नही ?
जहाँ रूस्तम-ओ सोहराबकी जवाँमदोंका ज़िक्र करते हुए ज़ुबाँ नहीं थकती, वहीं बप्पारावल, बाबर, जयमल-पत्ता., शेरशाह, प्रताप, मानसिंह, शेरअफ़ग़न जयसिंह, राजसिंह और रज़ियाबेगमको भी भूले-बिसरे याद कर लिया जाए तो जबान बदमज़ा न होगी।

यह माना कि कोहे-तूर और दजलाका तसव्वुर ज़रूरी है, मगर यहाँ का अवजित हिमालय रोग-नाशिनी गंगा-जमुना भी ध्यान में रहें तो क्या हानि है ?
खजूर के पेड़ से कभी मन ऊब जाए तो यहाँ के आम, नारंगी और निबुआके पेड़ों के नीचे भी कभी-कभार बैठ जाया कीजिए, ये पेड़ कुछ-न-कुछ देंगे ही, लेंगे कुछ भी नहीं।
बुलबुलके नग़्मए-पुरदर्द सुनते-सुनते कलेजा जख़्मी हो उठे तो उसपर कोयलकी कूकका मरहम लगा लिया कीजिए, भौंरा बने हुए कली-कलीका रस चूसते-चूसते जी भर जाये तो पपीहेकी हूक सुनकर अपनी बेज़बान दुखिया बीवियों के आँसू पूँछ दिया कीजिए।

ऊँटनी पर सवार लैलीको आप जी भरकर घूरिए, मगर बागोंमें झूला-झूलतीं, कजरी और मल्हार गातीं, पनघटपै पानी भरतीं ललनाओंके नूपुरोंकी छम-छमकी आवाज़से भी कानोंको तृप्त कर लिया कीजिए।
परी-पैकरके मिस्त्री बुर्क़े, शेखको दस्तारका तो आप ज़िक्र करते ही हैं, मगर कभी-कभी बसन्ती साड़ी, राठौड़ी साफ़े औऱ मेवाड़ी पगिया पर भी करम फ़र्मा लिया कीजिए।
उक्त मनोभाव नज़ीरने मौलबियाना ढंग से प्रस्तुत न करके शाइराना-तौर-तरीक़े से व्यक्त किये। ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की नीति न अपना कर उक्त विचारों को कार्य रूप में परिणत किया। कूचए-ग़ज़लकी सैर करते हुए अपनी खुली आँखों जो देखा, सरल और ललित भाषामें नज़्म कर दिया। नज़ीर मुस्लिम-कुलोत्पन्न होते हुए सर्वधर्मसमभावी थे। हज़रत अली पर 29 बन्दकी नज़्म1 कही-

ऐ शाह ! यह नज़ीर तुम्हारा ग़ुलाम है
रखता सिवा तुम्हारे किसीसे न काम है

1.    नजीरकी इन सब लम्बी नज़्मोंका केवल एक-एक बन्द बतौर नमूना दिया जा रहा है।

आसी1 है। पुरगुनाह2 है और नातमाम3 है
दिन-रात उसका आपसे अब यह कलाम है
रख लीजो मेरी आबरू या शेरे–किरदिगार4 !

तो गुरू नानकपर 7 बन्दकी नज़्म कहते हुए फर्माया-

हैं कहते नानकशाह जिन्हें वह पूरे हैं आगाह5 गुरू
वोह कामिल रहबर6 जगमें हैं, यूं रोशन जैसे माह7  गुरू
मक़सूद,8 मुराद,9 उमीद10 सभी बरलाते11 हैं दिलख़ाह12 गुरू
नित लुत्फ़ो-करमसे13 कहते हैं हम लोगों का निर्बाह14 गुरू
इस बख़्शिशके14 इस अजमतके16 हैं बाबा नानकशाह गुरू
सब सीस नवा अरदास करो, और हरदम बोलो वाह गुरू

जन्माष्टमीका त्योहार आया तो कृष्ण-जन्मपर कहनेसे क्यों चूकते ?
31 बन्द की नज़्म लिखकर अपनी उदारता का परिचय दिया है-

कोई घुट्टी बैठी गर्म करे, कोई डाले इसपंद17 और भूसी
कोई लाई हँसली और खडुवे18 कोई कुर्ता, टोपी, मेवा, घी,
कोई देखे रूप उस बालकका कोई माथा चूमे महर19 भरी
कोई भोओंकी तारीफ़ करे, कोई आँखोंकी, कोई पलकों की

1. अपराधी, पापी, 2. गुनाहोंका भण्डार, 3. अपूर्ण, 4. ख़ुदाके शेर (हज़रत अलीकी उपाधि), 5. जानकार, ज्ञानी, 6. सच्चे पथ-प्रदर्शक, 7. चन्द्रमा, 8. इच्छा, 9. अभिलाषा, 10, आशा, 11, पूर्ण करते  हैं, 12. जिलकी अभिलाषाएँ, 13 प्रसन्नता और दयापूर्वक, 14 पालन, 15 देनेके, 16 प्रतिष्टा के, 17. एक क़िस्मके बीज, जिन्हें आगमें डालकर धूनी दी जाती है, 18. कड़े, 19.स्नेह विभोर।

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