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कविता संग्रह >> आखिरी संसार

आखिरी संसार

विपिन कुमार अग्रवाल

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1990
पृष्ठ :76
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13022
आईएसबीएन :0

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पढ़ने में साधारण लगने वाले इस काव्य-रचना में अभिव्यंजना के साथ-साथ रहस्यात्मकता की परत दर परत जमी हुई है।

परिवेश एवं परिस्थिति परिवर्तनशील होते हैं। बदलते हुए परिवेश के अनुसार कवि की भाषा का चुनाव करना होता है, ‘नये शब्द बटोरने’ पड़ते हैं। विपिन जी ने सही एवं उपयुक्त भाषा और सर्वथा नवीन बिम्बों के द्वारा इस चुनौती का सामना किया है। एक छोटी सी बात से, एक विस्तृत परिवेश को नापने की अन्तर्शक्ति उनकी रचनाओं में पहले से ही थी। इस रचना में और अधिक मुखर हो गई है। प्रतिदिन दिखने वाले बिम्बों के सहारे कविता आगे बढ़ती है। लगता है, एक सीमित आस-पास के परिवेश से कविता निकली है। पर अगर कविता हमको छूती है और हम उस परिवेश के बाहर भी देख रहे हैं, तो वह स्थानीय दिक् या तात्कालिक काल के परे उठ जा रही है। दूसरे विस्तृत परिवेश से जुड़ती जा रही है। अनेक अनकही गूँजों को पाठक के मन में उजागर करती जा रही है।
इसीलिए वह मन को इतना भाती है, और साथ ही साथ हमारी समझ की चुनौती देती चलती है। निराशा के भाव में भी वह समुचित व्यंग को नहीं छोड़ रही है।
पढ़ने में साधारण लगने वाले इस काव्य-रचना में अभिव्यंजना के साथ-साथ रहस्यात्मकता की परत दर परत जमी हुई है।
अब जो जितना खोज ले।

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