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अर्थशास्त्रः मार्क्स से आगे

राममनोहर लोहिया

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :82
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13049
आईएसबीएन :9788180312120

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डॉ. लोहिया के चालीस साल के राजनीतिक जीवन में कभी उन्हें देश में सही माने में नहीं समझा गया। जब देश ने उन्हें समझा और उनके प्रति लोगों में चाह बड़ी, लोगों ने उनकी ओर आशा की निगाहों से देखना शुरू किया तो अचानक ही वे चले गये। हाँ, जाते- जाते अपना महत्व लोगों के दिलों में जमा गये।
लोहिया का महत्व! उन्हें गये इतना समय बीत गया, देश की राजनीति में कितना परिवर्तन आ गया। फिर भी आज जैसे नए सिरे से लोहिया की जरूरत महसूस की जा रही है। यह तो भावी इतिहास ही सिद्ध करेगा कि देश में आए आज के परिवर्तन में लोहिया की क्या भूमिका रही है। लगता है कि लोहिया ऐसे इतिहास-पुरुष हो गए हैं, जैसे-जैसे दिन बीतेंगे, उनका महत्व बढ़ता जाएगा।
किसी लेखक ने ठीक ही लिखा है- ''डॉ. राममनोहर लोहिया गंगा की पावन धारा थे, जहाँ कोई भी बेहिचक डुबकी लगाकर मन को और प्राण को ताजा कर सकता है।''
एक हद तक यह बड़ी वास्तविक कल्पना है। सचमुच लोहिया जी गंगा की धारा ही थे- सदा वेग से बहते रहे, बिना एक क्षण भी रुके, बिना ठहरे।
जब तक गंगा की धारा पहाड़ों में भटकती, टकराती रही, किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जब मैदानी ढाल पर आकर वह धारा तीव्र गति से बहने लगी तो उसकी तरंगों, उसकी वेगवती धारा, उसके हाहाकार की ओर लोगों ने चकित होकर देखा, पर लोगों को मालूम न था कि उसका वेग इतना तीव्र था कि समुद्र से मिलने में उसे अधिक समय न लगा। शायद उस वेगवती नदी को खुद भी समुद्र के इतने पास होने का अन्दाजा न था।
लगता है कि इतिहास-पुरुषों के साथ लोहिया का मन का बहुत गहरा रिश्ता था। ऐसे ही लोहिया के कुछ भावुक क्षण होते थे- राजनीति से दूर, पर इतिहास के गर्भ में जब वे डूबते थे, तो दूसरे ही लोहिया होते थे।
यह इस देश का, इस समाज का और आधुनिक राजनीति का दुर्भाग्य है कि वह महान चिन्तक इस संसार से इतनी जल्दी चला गया। यदि लोहिया कुछ वर्ष और जिन्दा रह जाते तो निश्चय ही सामाजिक चरित्र और समाज संगठन में कुछ नए मोड़ आ जाते।

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