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व्यक्ति व्यंजना

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :328
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1310
आईएसबीएन :81-263-0960-1

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प्रस्तुत है 35 विशिष्ट व्यक्त व्यंजक निबन्ध....

Vyakti vyanjana

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘व्यक्ति-व्यंजना’ प्रख्यात निबन्धकार और मनीषी विचारक पं. विद्यानिवास मिश्र के तिरपन वर्षों की अवधि में लिखे व्यक्ति-वयंजक निबन्धों में से, स्वयं उन्हीं के द्वारा चुने हुए 53 श्रेष्ठतम निबन्धों का संचालन है। दूसरे शब्दों में, यह सग्रंह हिन्दी निबन्ध-साहित्य की एक बड़ी और अद्धितीय उपलब्धियों का प्रस्तुतीकरण है।

विद्यानिवास जी के ही अनुसार, व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध व्यक्ति का व्यंजक नहीं होता, वह व्यक्ति के माध्यम से व्यंजक होता है। यानि जो कुछ भी (लेखक) के अनुभव के दायरे में आता है, उसे वह लोगों तक पहुँच पानेवाली भाषा की कड़ाही में झोंक देता है। तब जो पककर निकलता है, वह व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध बनता है। कहना न होगा कि इस संग्रह के निबन्ध, निस्संदेह, इसी रचना-प्रकिया के साक्षी हैं।

 ‘व्यक्ति-व्यंजना’ के निबन्धों में लालित्यानुभूति के साथ ही कुछ ऐसा भी है जो असुन्दर और अनसँवरा है। इनमें जहां लोक के अनुभव और लोक की भाषा का ताप है, वहीं समाज से बृहत्तर और व्यापक इकाई-लोक की महिमा और गरिमा की जीवन्त अभिव्यक्ति भी है।

एक महान रचनाकार की पठनीय एवं संग्रहणीय कृति।


अपनी ओर से


लेखक की ओर से नहीं लेखक तो लिखकर कहीं गुम हो जाता है, व्यक्ति की ओर से यह निवेदित है पाठकों से, आलोचकों से नहीं। आलोचकों से तो कोई संवाद सम्भव नहीं, वे बस एकालाप ही अधिकतर करते हैं,  या अधिक-से-अधिक ‘जनान्तिके (कानाफूसी वह भी अपने गोल के लोगों से) ही भाषण करते हैं। रचना से विशेष रूप से वे कतराते हैं, हाँ व्यक्ति को जरूर गाहे बगाहे ललकारते है। सो उनसे कुछ कहना-सुनना बेमतलब है। पाठकों से निवेदन का विशेष अभिप्राय है। मेरी रचना के पाठक संख्या में ज्यादा नहीं, जो हैं वे कुछ तो पाठ्य-पुस्तक में मेरा निबन्ध पढ़कर-पढ़ाकर कृपालु हो गये हैं कुछ हैं, कुछ हैं जो निखालिस पाठक हैं, उनसे विशेष रूप से कुछ कहना है।

पहले कुछ पूछना चाहता हूँ-भाई आप मेरी रचना क्यों पढ़ते हो ? आलोचक चाहे बायें-दाये हों, निबन्ध को खारिज कर चुके हैं। उसकी शुभदृष्टि में निबन्ध रचना मुर्दा ढोना है। थोड़े से आलोचक हैं जो निबन्धों में रस पाते हैं, शायद इसलिए कि वे उस चूहादौड़ में नहीं शामिल हैं, जो सामाजिक सरोकार की तलाश में अन्धी होकर भागी जा रही है।
उनसे मैं अनुरोध करता हूँ कि अतिशय सामाजिकता, विशेष रूप से उसके अति भोंड़े प्रदर्शन का जो तूफ़ान आया है, उसमें बहुत-कुछ बह गया है, व्यक्ति भी बह गया है। कहीं हैं भी तो किसी कोटर में छिपा हुआ है। मेरी उस ‘व्यक्ति-इकाई’ को आपने कहीं देखा है ? उसी व्यक्ति को माध्यम बनाकर व्यंजना होती रही है। व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध व्यक्ति का व्यंजक नहीं है,  व्यक्ति के माध्यम के व्यंजक है, जो कुछ भी व्यक्ति के अनुभव के दायरे में आता है–ऐन्द्रिय या अतीन्द्रिय किसी भी अनुभव के, उसको लोगों तक पहुँच पानेवाली भाषा की कड़ाही में व्यक्ति झोंक देता है, ‘अज्ञेय’ वह व्यक्ति शब्द उधार लूँ, अपने को भी झोंक देता है। जो पककर निकलता है, व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध बनता  है। व्यक्ति का आग्रह का (पूर्वाग्रह हो, पूर्वाग्रह हो) उस कड़ाही में बचा नहीं रह पाता। व्यक्ति-व्यंजक निबन्ध का छोटा-सा प्रकार है ललित निबन्ध। ललित निबन्ध के लिए सौन्दर्यानुभूति या लालित्यानुभूति की पृष्ठभूमि आवश्यक है। कभी-कभी सुन्दर से अधिक असुन्दर छूता है, उसी प्रकार ललित (अर्थात् मनुष्य रचित सौष्ठव) से अधिक मनुष्य के हाथ से अनसँवरा छूता  है, अनतराशा हीरा तराशे हीरे से अधिक अर्थवान लगता है। जीवन के तीसरे-चौथे मोड़ पर समग्रता पर अधिक दृष्टि ठहरती है।

इस व्यक्ति-व्यंजना नामक संकलन में ललित या सुन्दर तिरस्कृत नहीं, पर इसमें कुछ अलग भी है। ये सभी निबन्ध व्यक्ति के ताप के भीतर से गुज़रे हैं, या यों भी कह सकते हैं, व्यक्ति लोक के अनुभव और लोक की भाषा के ताप में जला है। व्यक्ति की दृष्टि में सुन्दर या ललित लोक का सुन्दर या ललित हो जाए, यही उद्देश्य रहा है। समाज की अपेक्षा समाज के बृहत्तर और व्यापकतर इकाई लोक का मुझे ध्यान रहा है। मेरा समाजशास्त्र शायद कमज़ोर है, हाँ लोक से मेरा नाता अधिक गहरा है।

इन निबंधों के रचनाकाल के कई आयाम हैं। गाँव से क़स्बा, क़स्बे से शहर, शहर से महानगर, महानगर से विश्वनगर ये देश के आयाम हैं, किशोरावस्था, जवानी, प्रौढ़ावस्था और संध्याकाल—ये काल के आयाम हैं और विषय के आयाम तो गिना नहीं सकता। जाने कितने चेहरे, कितने गीतों की गूँज, कितने नदी-निर्झर-पहाड़, कितने-कितने प्रकार के भीतर के उद्वेलन, कितनी-कितनी किताबों की छुअन। अभी भी लगता है, बीसियों विषय मुझसे हिसाब माँग रहे हैं-तुमने क्यों अभी तक याद नहीं किया ? उन्हें समझाना मुश्किल है कि किसी को याद नहीं किया जाता, किसी की बरबस याद आ जाती है। इस संकलन में संस्करण नहीं हैं। इसमें अपनी बार-बार की मौतों की कहानी है। लिखना मरना या मरने जैसी यातना है, अपने अनुभव को उघारना मौत से बड़ी यंत्रणा है।

मैं अपनी ओर से इतना कह सकता हूँ, ये निबन्ध लोगों के हो चुके हैं। थोड़े से ही लोगों के हुए हों, उन्होंने मन ही-मन सराहा हो, समीक्षा न लिखी हो, पर ऐसा व्यक्ति कभी औचक मिला है और उसने पूछा है-पंडित जी, आपने ही अमुक निबन्ध लिखा है, मुझे वह निबन्ध अभी तक याद है, मैं अपनी मजूरी पा जाता हूँ। मेरे लिए बहुत कठिन रहा ऐसे पाठकों की पसन्द की तिरपन वर्षों के अन्तराल की तिरपन रचनाओं को चुनना। मैंने अच्छा यह समझा, जो भी त्यौहार मात्र से, अराध्य पुरुष मात्र से जुड़ा हो, यातायात से जुड़ा हो, उसे इस परिधि से बाहर कर दूँ। इन व्यक्ति-व्यंजना निबन्धों को एकसाथ पढ़ना विशेष वयःक्रम को पढ़ना आपको रुचेगा।


विद्यानिवास मिश्र

हरसिंगार


सखि स विजितो वीणावाद्यैः कयाप्यपरस्त्रिया
पणितमभवत्ताभ्यां तत्र क्षमाललितं ध्रुवम्।
कथमितरथा शेफालीषु स्खलत्कुसुमास्वपि
प्रसरति नभोमध्येऽपीन्दौ प्रियेण विलम्ब्यते।।


किसी प्रेयसी ने प्रिय की स्वागत की तैयारी की है, समय बीत गया है, उत्कण्ठा जगती जा रही है, मन में दुश्चिन्ताएँ होती हैं कहीं ऐसा तो नहीं हुआ, अन्त में सखी से अपना अन्तिम अनुमान कह सुनाती है....सखि, पर प्रिय रुकते नहीं, पर बात ऐसी आ पड़ी है कि वे मेरी चिन्ता में वीणा में एकाग्रता न ला सके होंगे, इसलिए बीन की होड़ में उस नागरी से हार गये होंगे और शायद हारने पर शर्त रही होगी रात-भर वहीं संगीत जमाने की, इसी से वह विमल गये। नहीं तो सोचो भला चाँद बीच आकाश में आ गया, और हरसिंगार के फूल ढुरने लगे, इतनी देर वे कभी लगाते ?

सो हरसिंगार के फूल की ढुरन ही धैर्य की अन्तिम सीमा है, मान की पहली उकसान है और प्रणय-वेदना की सबसे भीतरी पर्त। हरसिंहार बरसात के उत्तरार्द्ध का फूल है जब बादलों को अपना बचा-खुचा सर्वस्व  लुटा देने की चिन्ता हो जाती है, जब मघा और पूर्वा में झड़ी लगाने की होड़ लग जाती है और जब धनिया का रंग इस झड़ी से धुल जाने के लिए व्यग्र-सा हो जाता है। हरसिंगार के फूलों की झड़ी भी निशीथ के गजर के साथ ही शुरू होती है और शुरू होकर तभी थमती है जब पेड़ में एक भी वृत्त नहीं रह जाता। सबेरा होते-होते हरसिंगार शान्त और स्थिर हो जाता है, उसके नीचे की ज़मीन फूलों से फूलकर बहुत ही झीनी गन्ध से उच्छवासित हो उठती है।

हाँ, बदली की झड़ी के साथ मुरज वाद्य और चपला के नृत्य भी चलते रहते हैं, पर हरसिंगार चुपचाप बिना किसी साज-बाज के अपना पुष्पदान किया करता है, किसी चातक की पुकार की वह प्रतीक्षा नहीं करता, किसी झिल्ली की झंकार की वह याचना नहीं करता और किसी चपला के परिरम्भ की चाहना नहीं करता। वह देता चला है, जब तक कि उसके एक भी वृन्त में एक भी फूल बचा रहता है। हाँ, वह कली नहीं देता, उसके दान में अधकचरापन या अधूरापन नहीं होता। वह सर्वस्व दान करता है, पर समूचा-समूचा। वह धनिया (धन्या, प्रिया) की रो-रोकर सूखती आँखों को नीर चाहे न देता हो, पर उसके हदय की वीरान हरियाली को शुभ्र अनुराग अवश्य प्रदान करता है। हरसिंगार के फूल की पंखुड़ियाँ सफ़ेदी देती हैं, पर उनका अन्तस्तल ऐसा गहरा कुसुम्भी रंग देता है कि उसमें सफ़ेदी डूब-सी जाती है। सात्विक प्रेम की असली पहचान है हरसिंगार, ऊपर से बहुत सामान्य और मटमैला, पर भीतर गहरा मजीठी, जहाँ छू जाए वहाँ भी अपना रंग चढ़ा दे इतना भीतर-भीतर चटकीला। इसलिए हरसिंगार की ढुरन पाकर उत्कण्ठा और तीव्र हो जाती है। मान और बलवान् हो जाता है और दर्द और नशीला।

बरसात आ गयी है। बादल दग़ा दे गये हैं, पर इतना मालूम है कि दरवाज़े पर बरसों से खड़ा हरसिंगार दग़ा न देगा। बादल आते है तो आसमान रोता है और बादल नहीं आते तो भी रोता है। उसका रोना तो लगा ही रहता है सूनेपन का जिसका पुराना रोग होगा, विहँस ही कब सकेगा ? बादलों की भीड़ जुटती है, नक्षत्रों की सभा होती है और पखेरुओं की परिक्रमा होती है, पर क्या आकाश का सूनापन एक तिल भी घट पाया है ? सूनी दुनिया को कोई आज तक बसा भी सका है कि अब बसाएगा ? पर मैं आसमान नहीं हूँ, बन भी नहीं पाऊँगा, उतना धुँधला, उतना अछार, उतना सूना और उतना महान् बनने की कल्पना भी मेरे लिए दुस्सह है, मैं धरती का पिछली सन्तान हूँ, मेरा दाय इस धरती की अक्षमताओं और सीमाओं में बँधा हुआ है। मेरी सबसे बड़ी क्षमता है क्षमा, बल्कि ठीक कहूँ तो तितिक्षा। क्षमा तो दैवी वरदान है, पर मनुष्य केवल सहन करने की इच्छा रख सकता है, सो मेरी सबसे बडी शक्ति यही इच्छा है।

 इस तितिक्षा को नये-नये बादलों से क्या लेना-देना ? इसका केवल धरती की छाती पर उगे हरसिंगार से हो सकता है। सब-कुछ लुटाकर हरसिंगार चुप रहता है, वह धरती को उसके स्नेह का प्रतिदान देकर, फिर कुछ कामना नहीं रखता। आपने दान में तनिक भी तो उतावली नहीं दिखाता, जब तक उतरने को नहीं होती, जब तक चाँद उतरने को नहीं होता, जब तक झिल्ली की झंकार की गूँज धीरे-धीरे दूर होने को नहीं होती और जब तक पपीहा सोने को नहीं होता, तब तक वह धीरज नहीं खोता। बादल अधीर हो जाते हैं, बादलों में लुका-छिपी खेलनेवाला चाँद अधीर हो जाता है, सूने आकाश में खोने वाले चातक और चकोर अधीर हो जाते हैं, पर हरसिंगार अधीर नहीं होता।

जीवन के नीरव निशीथ में, विरह के अनंत अन्धकार में और निराशा की विराट निश्शब्दता के धीरज के ललौहैं फूल बरसाना उसका काम है। घनघोर श्यामल रंग के फैलाव में ललछौंही बुन्दी छिटकाना उसका काम है। श्यामरंग है। श्रृंगार का भी, मृत्यु का भी। पर श्रृंगार के आधार रति का अनुराग इसी केसरिया रंग से है। सावन की हरियारी में और भादों की अँधियारी में वसन्त की सुधि दिलाने के लिए ही हरसिंगार अपनी वसन्ती बुन्दी बरसाता है। पर हरसिंगार का संबंध मृत्यु से भी है। वह शमशानवासी हर का श्रृंगार है। श्रृंगार और मुत्यु में भी कुछ सादृश्य अवश्य है, तभी तो श्रृंगार के उपक्रम में भी बारात चलती है, दोनों बारातों में गाजे-बाजे रहते हैं। प्रेम स्वयं क्या मृत्यु नहीं है ? काम की दस दशाओं में सबसे चरम दशा है....मृति। इस मृति में ही प्रेम की पूर्णता है।


दृङ्मनःसंगसंकल्पो जागरः कृशता रतिः।
प्रलयश्च’ मृतिश्चैव हीत्यनंगदशा दश।।


और क्या सावन-भादों के तथा-कथित जीवन दाता ‘परजन्य’ विष बरसाने नहीं आते—

भ्रमिमरतिमलसहृदयतां प्रलयं मूर्छां तम शरीरसादम।
मरणं च जलदभुजगजं प्रसह्य कुरुते विषं वियोगिनीनाम्।।

जलदभुजगों का विष वियोगिनी के ऊपर क्या-क्या आपदा नहीं ढाता, चक्कर, अरुचि, आलस, निश्चेष्टा, मुर्छा, आखों के आगे अँधेरा, शरीर में अवसन्नता और अन्त में मौत भी, सभी कुछ तो कर दिखाता है उस विष का उपचार करने के लिए ही हरसिंगार की ढुरन मानो महावररंजित शशिकला का सुधास्राव है। हरसिंगार है शिव के भालेन्दु का जावकमय श्रृंगार, उसमें ऊपरी सिताभा है चन्द्रमा की, पर उसके भीतर की ललाई है भवानी की एड़ियों के महावर की। इस महावर को पाकर ही मृत्यु और विध्वंस के दैवत हर शंकर हो सके हैं और मृत्यु भी मनोरम और काम्य हो सकी है।

हरसिंगार, प्रेम की मरण दशा में अनुराग की सुधा बिन्दु छिड़का करके अपना नाम सार्थक कर देता है। प्रेम जगत में सबसे बड़ा अमंगल बना रहे, यदि उसे हरसिंगार का मंगलदान न मिले। प्रेम के दैवत अनंग को प्रेत-योनि से मुक्ति न मिले, यदि उसे रति की तपस्या का वरदान न मिले। जगत में प्यार करना इसीलिए अभिशाप हो जाता है, यदि उस प्यार को कहीं पहचान नहीं मिलती है। हरसिंगार अनपहचाने प्यार की इस दारुण अभिशप्त यन्त्रणा को परम आमोद प्रदान करना है, अकेलेपन की असीम बेकली को प्रीति की उदारता देता है और ‘पछतानि’ के शत-शत बिच्छुओं के दंश को सान्त्वना की मीठी नींद देता है।










 

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