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हिन्दी : कुछ नयी चुनौतियाँ

कैलाशनाथ पाण्डेय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :377
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13121
आईएसबीएन :9788180318153

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आज जरूरत है, हमें यह सोचने की, कि स्वतंत्रता संग्राम की सांस्कृतिक, भू-राजनैतिक और आर्थिक स्तर पर तेज आवर्त्त वाली भाषा हिन्दी का स्वरूप कैसे बचा रह सके?

सुप्रसिद्ध कथाकार, ललित निबंधकार डॉ० विवेकीराय अपनी एक सुप्रसिद्ध पुस्तक में लिखते हैं कि - ' 'डॉ० कैलाश नाथ पाण्डेय का लेखन गंभीर विषयों का स्पर्श करता है। आप मूलत: भाषा-वैज्ञानिक हैं। '' जाहिर है, कोई भी भाषा-वैज्ञानिक किसी भी भाषा पर निरपेक्ष दृष्टि से विचार करता है। डॉ० पाण्डेय ने भी इस पुस्तक में वही किया है। इनका मानना है कि बाजार के दबाव के कारण कुछ समय के लिए हिन्दी भले ही फलकजद हो जाय, किन्तु तमाम तरह के अन्तर्विरोधों के बावजूद आज भी यह इस देश के बहुत बड़े जन समुदाय की लचीली और उदार भाषा है। विस्तारवादी अंग्रेजी की अफीम फांक उसमें ऊभने-चूभने वाले भले ही हिन्दी को खालिस देसी और निठल्ली-पिछड़ी, गँवारू- अवैज्ञानिक भाषा घोषित करने की मुनादी करें, पर यह सच है कि अपनी ताकत के बल पर इसने नई बन रही दुनियाँ में अपनी पुख्ता और मुकम्मल जगह बना ली है। सच तो यह है कि हिन्दी ही नहीं, प्रत्येक भारतीय भाषा को आज अमेरिका की भूमंडलीय शक्ति और ब्रिटेन की साम्राज्यवादी तथा पूँजीवादी व्यवस्था की पोषक, संवेदना-रहित अंग्रेजी से जूझना पड़ रहा है। इस आयातित विदेशी भाषा के साथ कई तरह के कूर और अनैतिक संबन्धों के अंधड़ भी इस देश में आ गए हैं। यही समय-समय पर हिन्दी से ताल ठोंक उसे चुनौती देते रहते हैं। अत: ऐसी स्थिति में आज जरूरत है, हमें यह सोचने की, कि स्वतंत्रता संग्राम की सांस्कृतिक, भू-राजनैतिक और आर्थिक स्तर पर तेज आवर्त्त वाली भाषा हिन्दी का स्वरूप कैसे बचा रह सके?

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