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काव्य चिन्तन : श्री अरविन्द

मीरा श्रीवास्तव

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1988
पृष्ठ :173
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13174
आईएसबीएन :0

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पुस्तक में 'दिखता हे एक ऋषि जिसकी पूर्व और पश्चिम के साहित्यों में सहज गति है, और वह हमें उस सहस्रमुखी आकंठ उच्चार के लिए तैयार कर रहा है जो एक नई सभ्यता का मंत्र बनने जा रहा है

क्रान्तिकारी राजनेता और पूर्णयोगी अरविंद आतरिक रूप से हमेशा कवि थे। कवि शब्द आज जिस भावुकता और बहेतूवृत्ति के अतिरेक के लिए विशेषण जैसा बन गया है, उससे अरविंद के कवि को कहीं से भी जोड़ा नहीं जा सकता। जाहिर है कि उत्तरयोगी के काव्यचिंतन को समझने के लिए एकदम नये आलोक की जरूरत हे। इस आलोक से हिंदी जगत प्राय: अछूता रहा है। आधुनिक पश्चिमी समीक्षा शास्त्र की गूंज-अनुगूंज से हिंदी के कान बधिर-प्राय हो रहे हैं। इसलिए काव्यचिंतन के क्षेत्र में अपने ही देश की गंभीर वाणी को उसने अनसुना कर रखा है। श्री अरविंद के बारे में यह सत्य है कि 'वे कवि थे, पर प्रचारों नहीं।' श्री अरविंद का गहन काव्यचिंतन पहली बार हिंदी जगत में यहां संपूर्ण भाव से आकार धारण कर रहा है। विवेचन में बेहद मौलिक यह कृति आधुनिक काव्यचिंताओं के संदर्भ में कविता की उस सिसृक्षा का पता बताती है-जो जातियाँ और संस्कृतियाँ गढ़ती है। ...सर्जनात्मक की कोई दृष्टि पश्चिम के पास ऐसी नहीं है जो मनुष्य और मानवता को वर्तमान द्वन्द्व और विडम्बना से ढकेल कर आगे ले जा सके। श्री अरविंद का काव्यचिंतन आधुनिक आलोचना के क्षेत्र में अपनी रूपान्तरकारी 'दृष्टि' देकर अखण्ड मानवभूमि को अवचेतन से वाराह की तरह ऊपर उठा लाता है। 'मंत्र' की भूमि तलाशने की पहली समीक्षात्मक कोशिश यह कृति है। इस पुस्तक में 'दिखता हे एक ऋषि जिसकी पूर्व और पश्चिम के साहित्यों में सहज गति है, और वह हमें उस सहस्रमुखी आकंठ उच्चार के लिए तैयार कर रहा है जो एक नई सभ्यता का मंत्र बनने जा रहा है।'

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