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पत्थर और परछाइयाँ

मार्कण्डेय

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13241
आईएसबीएन :9788180317675

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इस एकांकी-संग्रह में आठ एकांकी हैं जिनके द्वारा मार्कंडेय की आंतरिक और बाह्य दोनों द्वंदों और चिंताओं को समझा जा सकता है

इस एकांकी-संग्रह में आठ एकांकी हैं जिनके द्वारा मार्कंडेय की आंतरिक और बाह्य दोनों द्वंदों और चिंताओं को समझा जा सकता है। इन एकांकियों में भी कहानियों की तरह सामाजिक पृष्ठभूमि में हमारा आज का जीवन और समस्याएँ हैं। बड़ी विशेषता यह है कि वह नाटक-बल्कि एकांकी-जैसी विधा को गाँव की ओर ले जाते हैं। क्योंकि मार्कंडेय यह महसूस करते थे कि ग्रामीण जीवन-सन्दर्भों में परिवर्तन की प्रक्रिया बहुत धीमी या नहीं के बराबर ही रही है इसलिए ग्राम-चेतना अपने प्राचीन अवदानों से चिपकी है। उसने अनेक कारणों से वाचिक पद्दति द्वारा ही अपनी संस्कृति को अपनी आगामी पीढ़ी तक संप्रेषित किया है। एकांकी को गाँव की और ले जाने से उनके सामने चुनौतियाँ भी बढ़ी हैं-विषय की, नाट्य-शिल्प की, भाषा की, रंग-शैली की, पात्र, कथानक सबकी। आज जो सवाल उठे हुए हैं-गाँव के, जनता के, आम आदमी और जनचेतना के, क्या ये एकांकी उन सवालों को पूरा कर पाएँगे ? लोकभाषा, लोकनाटक, लोकमंत्र, नुक्कड़ नाटक जैसी स्थतियों से भी वह गुजरना चाहते हैं हालाँकि वह हिंदी रंगमंच की स्थिति को भी अच्छी तरह समझ ही रहे थे। 1956 में पहली बार प्रकाशित 'पत्थर और परछाईयाँ' पुस्तक में छह एकांकी 'डंका बुआ' और 'रसोईघर' जोड़े गये हैं! उम्मीद है कि पाठकों के ऊपर यह एकांकी-संग्रह अलग अंतर्वस्तु और भाषा-शैली के साथ छाप छोड़ने में सफल होगा।

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