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उपन्यास >> प्रियवर

प्रियवर

निमाई भट्टाचार्य

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13259
आईएसबीएन :9788180311444

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मैंने कभी यह नहीं सोचा कि किसी पुरुष से प्यार करूँगी या उस पर विश्वास ही करूँगी। लेकिन

मैंने कभी यह नहीं सोचा कि किसी पुरुष से प्यार करूँगी या उस पर विश्वास ही करूँगी। लेकिन मेरे जीवन में आकर तुमने सब कुछ गड़बड़ा दिया। न जाने कितने पुरुषों से मेरी जान-पहचान है। कइयों से घनिष्ठता भी है। लेकिन अधिकांश पुरुष मेरे पास आते ही न जाने क्यों हिंसक पशुओं की तरह मेरी तरफ देखने लगते हैं। मैं कोई बच्ची नहीं हूँ। मैं उनकी लोलुप दृष्टि की भाषा समझ सकती हूँ। इसके अलावा वे सब के सब न जाने कैसी दुविधा और संकोच के साथ एकदम बच्चों की तरह घुटनों के बल चलकर मेरे पास आते हैं। लेकिन तुम? तुम ऐसी नाटकीयता के साथ अप्रत्याशित ढंग से आँधी की तरह मेरे सामने आ पहुँचे कि मैं किसी तरह तुम्हें दूर न हटा सकी।
(इसी पुस्तक से)

चाचा जी मेरे पिताजी के मित्र थे। उम्र और मानसिक स्तर के लिहाज से उनसे मेरा कोई मेल नहीं था। फिर भी उनसे मेरा मित्रता का सम्बन्ध बनने में कोई बाधा नहीं आयी थी। उसके बाद उनके फ्लैट में रहते समय मुझसे उनकी घनिष्ठता बहुत बढ़ गई थी। उनसे मेरा शारीरिक सम्बन्ध भी बन चुका था, फिर भी मैंने कभी उनको दुश्चरित्र नहीं समझा। लेकिन रमला को देखते ही मैं क्षण भर में बदल गई थी। अचानक एक घटनाबहुल अध्याय को समाप्त कर मैं अपनी सहेली सुपर्णा के पास चली गई थी।
अब चाचा जी की और अपने पुराने दिनों की बातें मैं याद नहीं करती। शायद याद करना भी नहीं चाहती। उसकी जरूरत भी महसूस नहीं करती।
(इसी पुस्तक से)

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