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साहित्य-विज्ञान

गणपतिचन्द्र गुप्त

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :445
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13287
आईएसबीएन :0

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प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने साहित्य के सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विवेचन भारतीय साहित्य-शास्त्र, पाश्चात्य काव्य-शास्त्र, सौन्दर्य-शास्त्र, मनोविज्ञान एवं विज्ञान के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है

'मैंने डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त के नये ग्रन्थ ''साहित्य विज्ञान'' का अध्ययन रुचिपूर्वक किया है। यह वस्तुत: गम्भीर अध्ययन और मौलिक दृष्टि पर आधारित ठोस कार्य है। लेखक ने साहित्य के आधारभूत तत्वों की व्याख्या अत्यन्त विशद रूप में करते हुए साहित्यालोचन के क्षेत्र में अत्यन्त महत्वपूर्ण योग दिया है।.... ''
-डॉ० नगेन्द्र, डी लिट्

''प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने साहित्य के सिद्धान्तों का वैज्ञानिक विवेचन भारतीय साहित्य-शास्त्र, पाश्चात्य काव्य-शास्त्र, सौन्दर्य-शास्त्र, मनोविज्ञान एवं विज्ञान के आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है।....आज आवश्यकता इस बात की है कि विश्व-साहित्य के सामान्य निष्कर्षों का वैज्ञानिक अनुशीलन कर उसे वैज्ञानिक विधि से प्रस्तुत किया जाये। प्रसन्नता का विषय है कि प्रस्तुत ग्रन्थ इस दिशा में एक श्लाघनीय प्रयत्न है।''
-साप्ताहिक हिन्दुस्तान

''समग्रत: आलोच्य ग्रन्थ के अनुशीलन के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि विद्वान् लेखक ने सर्वथा नवीन और अब तक अछूते विषय पर ऐसा पांडित्यपूर्ण ग्रन्थ लिखकर एक ओर बंजर भूमि को तोड़ा है तो दूसरी ओर झाडू- झंखाड़ भी साफ किये हैं। ....दूसरी विशेषता है परम्परागत सिद्धान्तों के विवेचन में उन सिद्धान्तों के प्रवर्तक एवं व्याख्याकार आचार्यों की असंगतियों की ओर संकेत करके उस स्तर अंश को ग्रहण किया गया है जिसमें न अव्याप्ति है और न अतिव्याप्ति।....तीसरी बात है भाषा-शैली की। एक भी शब्द-एक भी वाक्य ऐसा नहीं जो फालतू कहा जा सके।....हिन्दी में प्रथम बार साहित्य का वैज्ञानिक विवेचन 'साहित्य-विज्ञान' के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय डॉ० गणपतिचन्द्र गुप्त को मिलेगा....।''

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