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आलोचना >> समकालीन कविता के आयाम

समकालीन कविता के आयाम

पी रवि

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13289
आईएसबीएन :9788180317637

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समकालीन सोच एक ओर समग्रतावादी रुख ग्रहण कर सामाजिक परिवर्तन की बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित रखती हैं तो दूसरी ओर वह व्यक्तिवादी-अस्तित्ववादी न होकर व्यक्ति की अस्मिता के प्रति पूरी तरह सजग रहती हैं

समकालीन सोच एक ओर समग्रतावादी रुख ग्रहण कर सामाजिक परिवर्तन की बातों पर अपना ध्यान केन्द्रित रखती हैं तो दूसरी ओर वह व्यक्तिवादी-अस्तित्ववादी न होकर व्यक्ति की अस्मिता के प्रति पूरी तरह सजग रहती हैं, अस्तित्व के प्रति भी। वह महान क्रांति पर नहीं, छोटी-छोटी लड़ाइयों पर आस्था रखती है। इतिहास का अन्त, विचारधारा का अन्त, कविता का अन्त-वाली बातों का विरोध भी करती है। इस तरह की बातों को वह नकारात्मक मानव विरोधी सोच कहकर टाल देती है। वैश्वीकरण, बाजारवाद, उपभोकृवाद, साम्प्रदायिकता, अंधाधुंध विकास नीति इत्यादि का विरोध करती है, साथ ही साथ सी, दलित, आदिवासी अस्मिता पर जोर देती है।
समकालीन कविता लगभग इसका अनुसरण करती आ रही है। उसके कई मायने हैं और उन मायनों में एक तत्त्व प्रमुख है, वह है उसकी मानवीय संसक्ति। समकालीन कविता मानवता की तरफदारी करके अपने इतिहास का विकास करती आ रही है, मानवता का इतिहास रच रही है। असल में वह समकालीन जीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक विमर्श ही प्रस्तुत करती है। पुराने समाज के समान आज के समाज में शोषक एवं शोषित है, लेकिन दोनों को अलग करना कठिन कार्य हो गया है। आज शोषक स्पष्ट दिखाई नहीं देता है, वह कई रूपों-भावों- गंधों-रंगों-रुचियों के रूप में समाज की प्रगति एवं तरफदारी का भ्रम फैलाकर अपना काम साधता है। समकालीन कविता इस मायिकता के प्रति मनुष्य एवं समाज को सजग करती है, प्रतिरोध करने की सख्त जरूरत पर बल भी देती है। कहीं-कहीं वह प्रतिरोध के मार्ग की ओर संकेत भी करती है।

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