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लीला चिरन्तन

आशापूर्णा देवी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1329
आईएसबीएन :81-263-1047-2

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गृहस्थी का सब-कुछ छोड़कर अचानक संन्यास ले लेने से उपजी सामाजिक और सांसारिक तकलीफों का चित्रण

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

व्यक्ति द्वारा अपनी गृहस्थी का सब-कुछ छोड़कर अचानक संन्यास ले लेने से उपजी सामाजिक और सांसारिक तकलीफों के बहाने आसपास का बहुत-कुछ देखने-समझने की कोशिश इस उपन्यास लीला चिरन्तन में की गई है। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बांग्ला की यशस्वी कथा-लेखिका आशापूर्णा देवी ने इस विचित्र परिस्थिति को कई प्रश्नों और पात्रों के माध्यम से उपन्यास में जीवन्त किया है।

उपन्यास की नायिका कावेरी, जो आत्मविश्वास से भरी पूरी है, तमाम सामाजिक प्रश्नों से निरन्तर जूझती रहती है और उन रूढ़ियों से भी लगातार लड़ती रहती है जो उसे जटिल सीमाओं से बाँधे रखना चाहती है। उपन्यास में इस पूरी नाटकीय किन्तु विश्वसनीय परिस्थिति को कावेरी की युवा और अल्लड़ बेटी प्रस्तुत करती है, साथ ही सारे परिदृश्य को भी अपने अनुभवों के आधार पर व्यक्त करती जाती है।

कहना न होगा कि एक युवा किशोरी के देखे भोगे अनुभवों में गहरे उतरना इस ‘लीला चिरन्तन’ को रोचक और उत्तेजक संस्पर्श देता है। समकालीन मध्यवर्गीय जीवन और सामाजिक मानस की यथार्थ छवियों को प्रस्तुत करने के कारण यह उपन्यास अपने समय का जीवन्त एवं प्रामाणिक दर्पण बन गया है। बांग्ला पाठकों के बीच पहले से ही बहुचर्चित यह उपन्यास अब हिन्दी-पाठकों के लिए प्रस्तुत है।

लीला चिरन्तन


आखिरकार इस घर की वे दीवारें ढह गयीं और छत भहराकर गिर गयी। यह सब कुछ अनचाहा या अनजाना नहीं था; बल्कि एक-एक पल इस बात का डर बना हुआ था। लेकिन इसके साथ कोई हाहाकार तो मचना ही था। ठीक वैसे ही जैसे फाँसी की सजा पाए एक कैदी के लिए जज की जुबान से निकले फैसले के साथ ही, कैदी के नाते रिश्तेदारों, परिचितों और अन्तरंग मित्रों के सीने से कोई हूक-सी उठती है।

इस घर की हालत भी कुछ वैसी ही थी। काफी लम्बे समय तक खिंचने वाले इस मामले के साथ-साथ अचल पत्थरों जैसे दिन और रात को लगातार ठेलते जाना। और इस बीच ‘तयशुदा’ और ‘पहले से निश्चित’ जानकर भी आशा और निराशा की आँखमिचौनी। ऐसा भी तो हो सकता है कि फाँसी को आजीवन कारावास में बदल दिया जाए। इसे किसी तरह झेल लिया जाएगा। आखिर वह आदमी किसी तरह इस दुनिया में रहकर साँस तो ले पाएगा।

लेकिन ऐसा नहीं हुआ। एक कठिन और कठोर वाणी उच्चरित हुई। एकदम साफ और खुले तौर पर इसकी घोषणा की गयी। और जब यह सुन पड़ी तो ऐसा लगा कि सब कुछ बेबुनियाद है। लेकिन यह बेबुनियाद नहीं थी। पिछले कई दिनों से स्याह बादल जमा हो रहे थे। और खामोश हवा ठहरी हुई थी। एक तरह की उमस-सी चारों तरफ कुण्डली मारे बैठी थी। इस ठहराव को चीरती-फाड़ती वह अशुभ घड़ी आने ही वाली होगी-उसे कौन टाल सकता है भला !
लेकिन तो भी पिताजी ने कहा, "आखिरकार इतने दिनों बाद मेरी जुबान से तूफानी लावा लम्बी उमस को बहा ले जानेवाली हवा के साथ फूट निकला।"
पता नहीं क्यों, कल तक मेरी आशा एक हद तक बँधी हुई थी। हो सकता है पिताजी ऐसी भयंकर और निर्मम घोषणा नहीं करेंगे। हो सकता है वर-वधू के विदा हो जाने के बाद पिताजी कातर और करुण ढंग से घर वापस लौटेंगे और हमेशा, की तरह हमारे पास बैठेंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हालाँकि पिछली रात इस घर में कैसी रोशनी जगमगा रही थी-कैसी धूमधाम थी, कितनी चहल-पहल थी और आने-जानेवाले लोगों का ताँता लगा हुआ था। हाँ। पिछली रात ही बुआ का विवाह सम्पन्न हो गया। और पिताजी ने इस आयोजन में कोई कोर-कसर उठा न रखी थी। इस विवाह की तैयारियों में हम लोग कुछ दिनों तक जैसे यह भूल ही गये थे कि अरराकर गिरनेवाली छत हमारे सिर पर झूल रही है।
पिताजी ने बड़े बुझे हुए स्वर में कहा, "बचपन में ही, माँ के गुजर जाने के बाद छोटी बहन एक तरह से अनाथ हो गयी थी। उसकी शादी होने तक मुझे इस घर-गिरस्ती में रहना ही था।"

ऐसा लगा कि ‘इस अनाथ बहन’ के सिवा उनका किसी और से कुछ लेना देना नहीं था या और कोई दायित्व या कर्तव्य नहीं था। इसलिए विवाह के होने के बाद, जैसे ही बुआ अपने वर के साथ गठबन्धन के बाद गाड़ी में बैठकर विदा हुई, और अभी गाड़ी की धूल उड़ ही रही थी कि पिताजी ने घोषणा की, "मैंने कहा था न कि छुटकी की शादी तक मुझे रहना ही होगा। वह काम पूरा हुआ। अब मैं सबके सामने अपना संकल्प दोहरा रहा हूँ। अगली पूर्णमासी का शुभ दिन मेरे लिए संन्यास लेने का दिन है। मैं उस दिन अपने गुरु के आदेश के अनुसार संन्यास ग्रहण कर लूँगा।"
अगली पूर्णमासी को।

यानी अगले सोमवार को। कुल मिलाकर सिर्फ तीन दिनों के बाद...
पिताजी संन्यास लेंगे। जमी जमायी घर-गिरस्ती छोड़कर गुरुधाम में वास करने चले जाएँगे। इसके लिए पिताजी अपनी नौकरी भी छोड़ देंगे। अब वे गेरुआ वस्त्र धारण करेंगे।
यह अनोखी, लेकिन निश्चित घोषणा काफी दिनों से इस परिवार में ऊँचे स्वर से बोले बिना सुनायी पड़ रही थी। लेकिन इसके बावजूद घर गिरस्ती का सारा काम धाम घड़ी में घूमते रहनेवाली सूइयों की तरह चलता रहा। पिताजी सुबह उठकर चाय पीते दाढ़ी बनाते नहाते धोते, अफसरी पोशाक और रोबदाब के साथ कुरसी पर बैठते, खाने की मेज पर खाना-खाते और समय होने पर दफ्तर चले जाते। वहाँ से तय समय पर वापस घर आते और अपनी चर्या के अनुसार सारे काम निबटाते। हाँ, इस बीच उनकी बातें कम ही सुन पड़ती थीं। वे कम बोलने लगे थे। ऐसा उनके गुरु के निर्देशानुसार ही किया गया था। बेकार की बातें करना अपनी शक्ति बर्बाद करने जैसा ही है। बातें सिर्फ ऐसी ही की जानी चाहिए जिनमें कोई ‘बात’ हो ‘कथन’ हो।

इस काम में माँ उनकी सहायता करने लगी थी। माँ अब उन्हें बुला-बुलाकर या पुकारकर बातें नहीं किया करती थी। एकदम जरूरी या काम की बातें बुआ ही किया करती थी। और कभी-कभी बुआ ही साहस जुटाकर कहा करती, "भैया तुम इस कदर बदल जाओगे, ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था।"
पिताजी उसकी बातें सुनकर हौले-से मुसकराते और शायद यही कहा करते थे, "जीवन एक नदी के समान है। किसे पता है कि इसमें कब ज्वार आएगा और यह किस तरफ मुड़ जाएगी।"

हालाँकि पिताजी के खान-पान के लिए किसी तरह की लम्बी-चौड़ी तैयारी करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। पिताजी के गुरुधामवाले ‘अभीज्ञा चक्र’ या ऐसी ही किसी दीक्षा के मामले में बड़े उदार हैं। वहाँ के चक्राधिपति का कहना है, "अरे यह जीवन सौन्दर्य और आनन्द का अनुभव और उपयोग करने के लिए मिला है। मनुष्य ही सृष्टिकर्ता की श्रेष्ठ सर्जनी या सृष्टि है। पशु-पक्षी के जगत में न तो आह्वान है और ना ही विसर्जन; लेकिन ऐसा मनुष्य के जगत् में है। यह केवल मनुष्य ही है जो सौन्दर्य की साधना कर सकता है, उसकी उपासना कर सकता है। ऐसा भी नहीं कि तू विलासिता में डूब जाएगा। डूबेगा ? क्यों नहीं डूबेगा भला ? और स्वयं भगवान भी कितना बड़ा विलासी है-तूने कभी सोचकर देखा है ? उसी विलास के लिए, उपभोग के लिए उसने इस पृथ्वी में इतना रूप-रंग-रस-गन्ध और स्पर्श भरा है।...वही भोक्ता है। मनुष्य उसी का प्रतिरूप है। दूसरे सभी प्राणियों के साथ उसका यही तो अन्तर है। अन्यथा मूल स्थान के नाते सभी एक जैसे ही हैं। सभी जीव मात्र हैं....नश्वर हैं...।"

ऐसी ही कई तरह की अच्छी-अच्छी बातें वे अक्सर किया करते हैं। शब्द ही उनकी शक्ति और विभूति है। उनकी ये बातें बेमतलब की बातें नहीं। इसीलिए इन्हें अनायस और अजस्र बहते ही रहना है-किसी धारा की तरह चंचल। फव्वारे की तरह उछलते जाना है। लेकिन हमने इस तरह की बातें पहले कभी किसी दिन नहीं सुनी थीं। जो कुछ सुना था-जो कुछ सुना था वह पिताजी के हम उम्र लेकिन दूर के ममेरे भाई डॉक्टर अशीन की पत्नी के मुँह से। उसे पिताजी न तो भाभी कह पाते थे और न ‘बहूरानी’। इसलिए उसका नाम लेकर पुकारते थे। हालाँकि यह नाम उनका घरेलू या माँ-बाप द्वारा दिया गया नाम नहीं था बल्कि गुरुप्रदत्त नाम था। वे ‘अभीज्ञा चक्र’ की विशेष शिष्या थीं। गुरु ने उसे ‘परम प्रज्ञा’ या ‘प्रज्ञाभारती’ जैसा ही कोई नाम दिया था।
क्या वे संसार त्याग चुकी थीं या फिर गेरुआधारी संन्यासिनी थीं ? नहीं, अब तक नहीं ? अभी भी वे बेहद पेशेवर कमाऊ डॉक्टर की गृहस्थी में पूरी तरह रची बसी हैं। अपने पतिवाले बैंक में ‘संयुक्त खाते’ से जब भी जी में आया, चेक काटकर अपनी जरूरत पूरी कर लेती हैं। ‘अभीज्ञा चक्र’ की चन्देवाली रसीद में उनके नाम का चन्दा लगभग सबसे पहले ही जमा हो जाता है। अशीन डॉक्टर के पास दो गाड़ियाँ हैं-इनमें से एक इसी ‘प्रज्ञाभारती’ या ‘परमप्रज्ञा’ की है। वे खुद गाड़ी चलाती हैं-और इसके लिए उन्हें किसी ड्राइवर की जरूरत नहीं पड़ती-इस बात को वे बड़े रोब से अपने पति को सुनाती हैं। ये सारी बातें मैंने अपनी बुआजी से सुनी है। बुआजी अक्सर अपने ममेरे भैया और भाभी के घर जाती थीं। वे तो बुआ के भैया ही ठहरे। और बुआ उसे भाभी कहकर ही बुलाती। वे कहतीं, ‘तुम अपना चक्र’ और ‘चक्रान्त’ अपने पास ही रखो। मैं तो भाई जो ठीक लगेगा, वही कहूँगी।"

बुआ की वही ‘भाभी’ हमारे इस घर में दो-चार बार तो आ ही चुकी थीं। नहीं, उन्होंने तब तक गेरुआ परिधान धारण नहीं किया था लेकिन ज्यादातर मौकों पर वे गेरुआ रंग से मिलती-जुलती लाल रेशमी साड़ी पहने रहतीं। और इससे मेल खाता हुआ लाल रेशमी ब्लाउज। खिला हुआ रंग, तराशा हुआ बदन। उनका चेहरा कैसा है-यह अलग से याद करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इसकी वजह यह थी कि उनके रोबदाबवाले चेहरे पर एक अजीब-सी गम्भीरता थी और उनकी आँखों की पुतलियाँ रह-रहकर किसी स्वप्नलोक में तिरने लगती थीं। गर्दन तक कटे-छँटे और शैम्पू किये गये रूखे बालों के बीच उनका चेहरा और भी मोहक नजर आता। उनके गले में कोई सोने की या मटर दानेवाली माला नहीं होती थी, बल्कि ढेर सारी मालाएँ झूलती रहती थीं। उनमें रुद्राक्ष होता, स्फटिक होता, गुरिया होती और मंगलसूत्र की तरह ढेर सारी पूतियों की छोटी-छोटी मालाएँ होतीं और इन सबके साथ लम्बी-सी मुक्ता माला होती थी जो उनकी नाभि तक झूलती रहती। यह नकली मोतियों की माला ही होगी-क्योंकि असली मोतियों की इतनी लम्बी माला का जुगाड़ कर पाना अशीन डॉक्टर जैसे लोगों के लिए मुश्किल ही होता। और आजकल ‘इमीटेशन’ वाली चीजें पहनने में काहे की लाज शरम। यह तो पहले के जमाने में था। ‘केमिकल जेवरात’ नकली मोती की माला या नकली हीरे की अँगूठी पहनना शान के खिलाफ समझा जाता था। लेकिन पहले से कुछ ‘निन्दनीय’ समझा जाता था-आजकल वही ‘प्रशंसनीय’ माना जाने लगा है।
बुआ की उस भाभी की कलाई में कभी मोतियों का कंगन होता तो कभी ढेर सारे चमचमाते सोने के बाले। लेकिन एक ही कलाई पर। दूसरी कलाई पर कोई नायाब-सी विदेशी घड़ी। हो सकता है यह गुरुदेव के किसी विदेशी चेले से भेंट में मिली हो।

बुआ की उस भाभी की कमाई में कभी मोतियों से गुँथा कंगन होता तो कभी ढेर सोने के भारी-भरकम बाले। लेकिन वे सब उनकी एक ही कलाई पर झिलमिलाते रहते। हमारी बुआ यह देखकर कुछ अधीर हो जातीं और पूछतीं, यह क्या कर रही हो ? क्या तुम मेरे भैया का अनिष्ट करना चाह रही हो ?"

भैया की पत्नी अलौकिक हँसी हँसते हुए जवाब देतीं..."अगर तुम इस बात की गारण्टी दे सको कि मेरे दो-चार दर्जन चूड़ियाँ और कंगन पहन लेने भर से ही तुम्हारे भैया कोई अमर पद पा लेंगे तो मैं वह भी करने को तैयार हूँ।"
यह सब पहले की ही बातें हैं। इसके बाद इस तरह के सवाल नहीं रहेंगे। भाभी भी आगामी पूर्णमासी को घर गृहस्थी त्यागकर ‘संन्यास’ ग्रहण करेंगी। पूर्णमासी वाले दिन शायद पाप का नाश करने वाले दिन होते हैं। यानी यह बात साफ थी कि पिताजी और यह परम प्रज्ञा एक ही लग्न में संन्यास ले रहे थे। षय्गन।


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