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धर्म एवं दर्शन >> श्रीरामचरित मानस (लंकाकाण्ड)

श्रीरामचरित मानस (लंकाकाण्ड)

योगेन्द्र प्रताप सिंह

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :191
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13327
आईएसबीएन :0

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वाल्मीकि अपनी रामायण के लंकाकांड में 'रावण वध' की समापन कथा कहते है

श्री रामचरितमानस लीलान्‍वयी काव्य है। इनकी मान्यताएं वाल्मीकि रामायण से न जुड़कर भागवत पुराण से जुड़ती हैं। वाल्मीकि अपनी रामायण के लंकाकांड में 'रावण वध' की समापन कथा कहते है, किन्तु तुलसी कृत मानस का लंकाकांड रावण का मुक्ति का आख्यान है। प्रभु के प्रति द्वे ष भी भक्ति ही है और उस अमर्ष भाव में आकंठडूबे रावण जैसे व्यक्तित्व के प्रति श्रीराम का क्रोध उनकी कृपा तथा अनुग्रह है। इसलिए तुलसीदास कृत लंकाकांड को कथा समापन के रूप में नहीं लेना चाहिए, वरन् मध्य- कालोन लीलाभक्ति की उस अवधारणा से जोड़कर देखना चाहिये, जहाँ शत्रु-मित्र, साधु-असाधु, राक्षस- मानव के बीच स्थिर दीवार को तोड़कर सभी को एक मंच पर बैठाने की तत्परता दिखाई पड़ती है। हिन्दू-अहिन्दू को एक तार से जोड़ने वाली यह भक्ति निश्चित ही भारतीय संस्कृति की विषमता के युग में एक बहुत बड़ी सम्बल थी। तुलसी अपने इस लंका- कांड में रावण वध की कथा न कह कर राम एवं रावण के बीच रागात्मक ऐक्य की स्थापना को कथा कहते हैं। रावण के भौतिक शरीर को विनष्ट करके उसकी तेजोमयी चेतना का श्रीराम के शरीर में विलयन भक्ति द्वारा स्थापित रागात्मक समन्‍वय का सबसे बड़ा साक्ष्य है।

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