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सीधी रेखा

गंगाधर गाडगिल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1991
पृष्ठ :252
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1333
आईएसबीएन :00000

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प्रस्तुत है सीधी रेखा...

Sidhi Rekha

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आधुनिक मराठी साहित्य में गंगाधर गाडगिल का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। वे पाँचवें दशक से आरंभ होने वाले कहानी कि क्षेत्र में नये युग के प्रवर्तक माने जाते हैं। उन्होंने कहानी के पारम्परिक सांचे को नकार कर उसे नयी संवेदनशीलता और कलात्मकता यथार्थवत्ता प्रदान की है। इस नयी संवेदनशीलता के उदय के साथ सहज ही में जो अन्य संदर्भ आ जुड़े हैं, वे हैं—महायुद्ध के परिणामस्वरूप सर्वग्रासी विनाश और उससे उपजे जीवन-मूल्य, औद्योगीकरण, यंत्र-संस्कृति, नये आर्थिक-सामाजिक अन्तर्विरोध, महानगरीकरण आदि आदि। इन सबके फलस्वरूप गाडगिल की कहानियों में हमें मिलता है जीवन के यथार्थ का व्यामिश्रण, अन्तर्विरोधों का नया भान, मनुष्य के हिस्से में आई पराश्रयता, अश्रद्धा, अविश्वास और अनाथ होने की वेदना।

गाडगिल की कहानियों में पात्र स्वयंभू (हीरो इमेज के) न होकर मात्र कथाघटक होते हैं। वे प्रायः अवचेतन मन की सहज प्रवृत्तियों एवं वासनाओं से प्रेरित दैनन्दिनी जीवन की गाड़ी खींच रहे ‘साधारण मनुष्य’ होते हैं। कथाकार जब कभी उनकी मानसिक संकीर्णाताओं और सीमाओं का विनोद-शैली में उपहास भी करता है, पर वह उपहास वास्तव में मनुष्य के प्रति न होकर ‘मनुष्यता’ का अवमूल्यन करने वाली पारिवारिक सामाजिक व्यवस्था के प्रति होता है।

प्रस्तुत कृति में गाडगिलजी की ऐसी ही बीस कहानियां संकलित हैं। आशा है हिन्दी पाठक इनके माध्यम से मराठी कहानी के परिवर्तित प्रवाह को भलीभांति समझ सकेगा।

द्वितीय संस्करण के उपलक्ष्य में

हिन्दी सहित्य प्रेमियों ने मेरे ‘सीधी-रेखा’ शीर्षक कहानी-संग्रह का हार्दिक स्वागत किया। मैं उनके प्रति कृतज्ञ हूँ। विभिन्न पत्रिकाओं ने आस्थापूर्वक उस पर ग़ौर किया है और सिर्फ़ उसके अभिमत ही नहीं, उसकी समीक्षाएं भी प्रकाशित की हैं। इन समीक्षकों ने मेरे कहानीगत चरित्र-चित्रण, मनोविश्लेषण तथा उनमें अंकित सामाजिक जीवन के प्रतिबिम्ब तथा उनकी विविधता को दर्ज किया है। उन्होंने कहा है कि इन कहानियों के रेशों में, परिवेश में व्याप्त भारतीय नारी की घुटन, कुण्ठा, यातना, सन्ताप का तनाव, शोषण, पग-पग पर जाने वाली उसकी उपेक्षा, लांछना, प्रताड़ना तथा अपमान का दर्शन दिल दहलाने वाला है। वह भारतीय सामाजिक जीवन के ज्वलन्त संत्रास को, दंश को तीखे और प्रखर रूप में उजागर करता है। उन्होंने इस बात पर भी ग़ौर किया है कि भारतीय समाज में जो एक महत्त्वपूर्ण संक्रमण हो रहा है, उसमें स्थित्यन्तर हो रहा है, उसके कुछ अंगविशेषों का यथार्थ दर्शन मेरी कहानी में होता है। मराठी पाठकों की तरह हिन्दी पाठकों को भी मेरी बाल-मनोविज्ञान पर आधारित कहानियाँ अच्छी लगी हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि मेरी कहानी में इन बातों का चित्रण होता है कि किस तरह कहानी विधा बहुरूपिणी हो सकती है और किस तरह विविध आशय व्यक्त कर सकती है, किस तरह वह विविध भाव-भंगिमाओं से पूर्ण हो सकती है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हिन्दी-कहानी-जगत् की तुलना में मेरी कहानी के विषय, कथ्य, आयाम, रूप अलग है। ऐसा होना स्वाभाविक है और अपरिहार्य भी। माहौल, भावनात्मक तापमान, रचना, निवेदन शैली आदि के सन्दर्भ में उनका अलग होना सहज स्वाभाविक ही है। लेकिन मुझे हार्दिक प्रसन्नता है कि अपने इस अनोखे ढंग के कारण मेरी कहानियाँ हिन्दी समीक्षकों को अजनबी नहीं लगीं, उनकी अनुभूति उन्हें सहज स्वाभाविक ही प्रतीत हुई।
केवल समीक्षकों ने ही नहीं, हिन्दी पाठकों ने भी इस कहानी-संग्रह का स्वागत किया है। यही वजह है कि फरवरी-मार्च 1990 में प्रकाशित इस कहानी-संग्रह का प्रथम संस्करण एक वर्ष के अन्दर ही समाप्त हो चुका है और अब द्वितीय संस्करण का स्वागत भी हिन्दी पाठक उसी गरमज़ोशी, उत्साह तथा आत्मीयता के साथ करेंगे।

यह मेरा अहोभाग्य है कि हिन्दी रसिक पाठक वृन्दों से परिचित होने के लिए मुझे भारतीय ज्ञानपीठ जैसी जानी-मानी मान्यवर संस्था का लाभ हो गया। इसी संस्था द्वारा मेरा हिन्दी साहित्य से गठबन्धन हो गया है। कहानियों का चयन, उनके अनुवाद और पुस्तक सम्पादन के प्रबन्ध के सिलसिले में इस संस्था ने मुझे पूरी आज़ादी दी थी। न मुझ पर कोई पाबन्दी थी, न कोई रोकटोक। मेरी ही प्रार्थना के अनुसार इस पुस्तक का आकार भी तनिक बढ़ाया गया। एक लेखक को एक प्रकाशक से इससे अच्छा व्यवहार भला और कहाँ से मिल सकता है ?

अपने इस सन्तोषजनक और सुखद अनुभूति का सेहरा मैं भारतीय ज्ञानपीठ के साथ-साथ इस संस्था के प्रकाशन संचालक बिशन टंडन जी के सिर पर भी बाँधना चाहता हूँ। टंडन जी ‘परिमल’ प्रयाग के संस्थापक सदस्य थे। आगे चलकर शासन सेवा में बड़ी-बड़ी जिम्मेदारियाँ निभाते-निभाते उन्होंने अपने साहित्य प्रेम को इतनी-सी भी आँच नहीं आने दी बल्कि वह तो और भी प्रगाढ़ एवं प्रगल्भ हो गया। ज़ाहिर है, सेवा निवृत्ति के पश्चात् अब उन्होंने साहित्य प्रकाशन कार्यार्थ ही स्वयं को समर्पित किया है। अपनी प्रगल्भ कला-मर्मज्ञता, भारतीय ज्ञानपीठ के साथ ही मैं बिशन टंडन जी का भी व्यक्तिगत रूप से मनःपूर्वक आभारी हूँ।
गंगाधार गाडगिल

प्रस्तुति


भारतीय ज्ञानपीठ ने सदा भारतीय साहित्य में एक सेतु की सक्रिय भूमिका निभायी है। ज्ञानपीठ पुरस्कार की असाधारण सफलता का मुख्य कराण यही है। भारतीय भाषाओं में से चुने हुए किसी एक शीर्षस्थ साहित्यकार को प्रतिवर्ष दिये जाने वाले पुरस्कार का अनूठापन इसमें है कि यह भारतीय साहित्य के मापदण्ड स्थापित करता है। ज्ञानपीठ इन चुने हुए साहित्यकारों की कालजयी कृतियों का हिन्दी (और कभी-कभी अन्य भाषाओं में भी) अनुवाद पुरस्कार की स्थापना के समय से ही साहित्यानुरागियों को समर्पित करता आ रहा है। इसके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के अन्य साहित्य मनीषियों का हिन्दी अनुवाद के माध्यम से उनकी भाषायी सीमाओं के बाहर परिचय कराते ज्ञानपीठ एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय उत्तरदायित्व निभा रहा है। इस साहित्यिक अनुष्ठान को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज्ञानपीठ ने अब विभिन्न साहित्यिक विधाओं की उत्कृष्ट कृतियों को श्रृंखलाबद्ध रूप से प्रकाशित करने का कार्यक्रम सुनियोजित किया है।

 प्रत्येक विधा के सभी अग्रणी लेखकों की कृतियाँ व संकलन इस योजना में सम्मिलित करने का विचार है। हमारा अनुभव है किसी  भी साहित्यिक (या अन्य भी) रचना का हिन्दी में अनुवाद हो जाने पर उसका अन्य भाषाओं में अनुवाद सुविधाजनक हो जाता है। कविता और कहानी की इन श्रृंखलाओं के बाद शीघ्र ही अन्य श्रृंखलाएँ साहित्य-जगत को प्रस्तुत करने के लिए हम प्रयत्नशील हैं। इन श्रृंखलाओं की उपयोगिता को दृष्टि में रखते हुए कुछ पूर्व-प्रकाशित पुस्तकों को भी इसमें सम्मिलित किया गया है और आगे भी ऐसा विचार है। इनके अतिरिक्त विभिन्न भाषाओं के नये नवोदित लेखकों की उनकी भाषा परिधि के बाहर लाने में भी हम सक्रिय हैं। देश के सभी भागों के साहित्यकारों ने हमारे प्रयत्नों का जिस प्रकार स्वागत किया है और सहयोग का आश्वासन दिया है उससे हम अभिभूत हैं। हमारा विश्वास है कि यह सब प्रयत्न आधुनिक भारतीय साहित्य की मूल संवेदना उजागर करने में सार्थक होंगे।

इस कार्य में ज्ञानपीठ के सभी अधिकारियों से समय-समय पर मुझे जो परामर्श और सहयोग मिलता रहा है उसके लिए बिना आभार व्यक्त किये नहीं रह सकता। समय-बद्ध प्रकाशन की व्यवस्था भाग-दौड़ व अन्य काम-काज का भार उठाया है नेमिचन्द्र जैन, चक्रेश जैन, दिनेश कुमार भटनागर व सुधा पाण्डेय ने। अपने इन सहयोगियों का मैं अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। उनके अकथ परिश्रम के बिना यह कार्य कब पूरा होता, यह कहना कठिन है।
इस पुस्तक की इतनी सुरुचिपूर्ण साज-सज्जा के लिए हम कलाकार पुष्पकणा मुखर्जी के और आवरण पर दी गयी कलाकृति के लिए महानिदेशक पर्यटन, भारत सरकार के आभारी हैं।
बिशन टण्डन, निदेशक

सम्पादकीय मनोगत


मराठी के श्रेष्ठ लेखक प्रा. गंगाधर गाडगिल की चुनी हुई बीस कहानियों के हिन्दी अनुवाद का यह संग्रह पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करते हुए मुझे अतीव हर्ष हो रहा है। प्रा.गाडगिलजी ने मराठी साहित्य में नये साहित्य के एक प्रवर्तक के रूप में जो भूमिका निभायी है और कहानी, यात्रा-वर्णन, उपन्यास और विनोदी लेखन में जो योगदान किया है उसका महत्त्व मराठी साहित्य के लिए तो है ही, लेकिन उनके साहित्य में जो देशकालातीत मानवीय तत्त्व है उसका अंशतः परिचय हिन्दी के माध्यम से भारतीय पाठकों को होगा तो उनके कृतित्व में सार्थकता का एक और आयाम जुड़ेगा। इस कार्य में हाथ बँटाने का अवसर मुझे मिला, यह मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ।

इस सम्पादन कार्य को सम्पन्न करते समय यह दृष्टि रखी गयी है कि श्री गाडगिल के बहु-आयामी कृतित्व का परिचय हिन्दी पाठकों को मिले। इस दृष्टि से श्री गंगाधर गाडगिल की कहानी पर महत्त्वपूर्ण प्रबन्ध प्रस्तुत करनेवाली डॉ. सुधा जोशी ने कहानी-संग्रह की मूल्यवान भूमिका लिखकर संकलन की उपयोगिता और मूल्यवत्ता को बढ़ाया है। सम्पादक के नाते मैं डॉ. सुधा जोशी की आभारी हूँ। डॉ. चन्द्रकान्त बान्दिवडेकर ने प्रा. गाडगिल की भेंटवार्ता प्रस्तुत कर इस संग्रह की गरिमा बढ़ायी है। इस सम्पादन-कार्य में कहानियों के अनुवाद का दायित्व स्वीकार कर श्री प्रकाश भातम्ब्रेकर, डॉ. विनोद गोदरे एवं डॉ. चन्द्रकान्त बान्दिवडेकर ने जो सहयोग दिया है उसके लिए मैं इन सबकी आभारी हूँ।

कहानियों के चुनाव में प्रा. गंगाधर गाडगिल से हुए विचार-विमर्श से भी संग्रह की मूल्यवत्ता में वृद्धि हुई है। उन्होंने अमूल्य समय देकर हमारी योजना को अधिक प्रमाणिक बना देने में जो मदद की उसके लिए मैं उनकी कृतज्ञ हूँ।

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