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जीवनी/आत्मकथा >> कालिदास का भारत

कालिदास का भारत

भगवतशरण उपाध्याय

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :500
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1342
आईएसबीएन :81-263-0898-2

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प्रस्तुत अध्ययन उस भारत के पट खोलता है जिसमें महाकवि ने साँस ली है...

Kalidas ka Bharat

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दो शब्द

(प्रथम संस्करण से)
कालिदास पर मेरा यह सोलह वर्षों का अध्ययन प्रस्तुत है। कालिदास का साहित्य इतना समुद्रवत् गम्भीर है कि सोलह वर्ष का श्रम उसके लिए कुछ भी नहीं। फिर भी जितना प्रयास उस साहित्य को मथने का मैं कर सकता था मैंने किया है यद्यपि उस दिशा में यह अन्तिम प्रयास नहीं है, मेरा भी नहीं।

सामाजिक दृष्टिकोण से कालिदास के अध्ययन का यह पहला प्रयत्न है। त्रुटियाँ इसमें हो सकती हैं, होंगी, और मैं विद्वान पाठकों से अपेक्षा करूँगा कि उनकी और वे मेरा ध्यान आकृष्ट करें। अपनी ओर से मैंने इसे निर्दोष बनाने में कुछ उठा नहीं रखा है। यह अध्ययन भौगोलिक सामग्री, राज्य-शास्त्र और शासन, सामाजिक जीवन, ललित कला, आर्थिक स्थिति, शिक्षा और साहित्य और धर्म तथा दर्शन आदि प्रकरणों में सम्पन्न हुआ है। पहला भाग भौगोलिक सामग्री से प्रारम्भ होकर सामाजिक जीवन के कुछ पहलू खोलने के उपरान्त से समाप्त हो जाता है। स्वतन्त्र परिशिष्ट में विचार किया गया है। फ़ादर हेरस की राय में मैंने कालिदास की तिथि सर्वथा निश्चित कर तत्सम्बन्धी समस्या हल कर दी है।

अध्ययन के लिए कालिदास की सात कृतियाँ-मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय, अभिज्ञानशाकुन्तल, ऋतुसंहार, मेघदूत, कुमारसम्भव (केवल पहले आठ सर्ग) और रघुवंश-ही प्रामाणिक मानी गयी हैं। कुन्तलेश्वरदौत्य, जो सम्भवतः कालिदास का ही है, उपलब्ध न होने से अध्ययन से परे रह गया। ग्रन्थों की प्रामाणिकता के सम्बन्ध में इतना विचार किया जा चुका है कि केवल पुनरावृत्ति के भय से इस ग्रन्थ में उस पर विचार नहीं किया गया। साधारणतः निर्णयसागर प्रेस के संस्करणों और अन्य आधुनिक पाठों का ही प्रयोग हुआ है, जिनका कृतज्ञतापूर्वक फुटनोटों और ग्रन्थ-सूची में उल्लेख कर दिया गया है। गुप्त अभिलेखों और कालिदास की सामग्री में इतना साम्य है कि उनका उल्लेख न करना अवैज्ञानिक होता, इससे प्रसंगतः गुप्त सम्राटों के अभिलेखों और मुद्रा-सम्बन्धी सामग्री का उपयोग विषय को स्पष्ट और समृद्ध करने के लिए प्रभूत किया गया है।

ग्रन्थ सर्वथा मौलिक कृति है और इसकी सामग्री सर्वथा पहली बार पृष्ठ-बद्ध हुई है। राज्य-शास्त्र और शासन, ललित कलाएँ जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, मृण्मूर्तिकला और वास्तु, आर्थिक जीवन, शिक्षा और कालिदासान्तर्गत बाह्म साहित्य-सम्बन्धी प्रकरण सर्वथा नयी सामग्री प्रस्तुत करते हैं। महाकवि की तिथि-सम्बन्धी समीक्षा में कुषाण गुप्त मृण्मूर्तियों और मूर्तिकला का पहली बार निर्णायक उपयोग हुआ है। मालविकाग्निमित्र के सिन्धु-सम्बन्धी उल्लेख से विद्वानों में युगों कथोपकथन होते रहे हैं। गार्गी संहिता के युगपुराण की नयी सामग्री की सहायता से पुष्यमित्र शुंग के साम्राज्य की सीमाएँ एक अलग परिशिष्ट में स्थापित की गयी हैं। उसी में खारवेल, दिमित, पुष्यमित्र और मिलिन्द (मेनान्दर) की समकालीनता के जटिल ऐतिहासिक प्रश्न पर भी विचार हुआ है।

जैसा ग्रन्थ के नाम-कालिदास का भारत-से प्रकट है, प्रस्तुत अध्ययन उस भारत के पट खोलता है जिसमें महाकवि ने साँस ली है, अपनी साहित्य-कला का रूपायन किया है, उसके सावधि और अतीत के भारत का जिनमें उसकी कल्पना और आदर्श-दोनों प्रकाशित हुए हैं। महाकवि की भारत-सम्बन्धी इस प्रसूति में स्वदेश का उत्कर्ष भी है, दुर्बलताएँ-अन्धविश्वास भी हैं। अतीत का वर्णन करते समय कवि स्वाभाविक ही परम्परागत सामग्री का उपयोग करता है पर उसके बीच जहाँ कहीं काल विरुद्ध दूषण (अनाक्रानिज़्म) झलक जाता है जो प्रतिभा का अनिवार्य स्खलन है वहीं इतिहासकार का ठोस भूमि मिल जाती है। जहाँ कहीं समकालीन जगत् और अतीत की परम्परा का कवि ने उल्लेख किया है,सर्वत्र यथासम्भव वह स्थल स्पष्ट कर दिया गया है।

फूटनोट आदि की निर्दिष्ट संख्याएँ मूल के बराबर मिला ली गयी हैं, पर जहाँ हजारों संख्याएं दी गयी हों कुछ का गलत हो जाना स्वाभाविक है। विज्ञ पाठक उन त्रुटियों के लिए क्षमा करेंगे।
इस ग्रन्थ की पाण्डुलिपि को प्रस्तुत रूप देने में पण्डित दशरथ पाण्डेय ने जो परिश्रम किया है, उसके लिए उनका कृतज्ञ हूँ। उसी प्रकार अपने प्रकाशक-भारतीय ज्ञानपीठ का भी आभार मानता हूँ जिसके प्रयत्न से ग्रन्थ प्रकाशित हो सका।
अन्त में फिर एक बार कालिदास के असीम वारिधि के समक्ष अपनी निस्सीम अल्पज्ञता-असारता प्रकट करता हुआ उसका उल्लेख उसी महाकवि की वाणी में करता हूँ :
क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः
तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्।।
प्रयाग,
26 अक्टूबर, 1954
भगवतशरण उपाध्याय

खण्ड-1

भौगोलिक सामग्री

अध्याय-एक

भारत और उसकी धरती

कालिदास के ग्रन्थों से उपलब्ध भौगोलिक सामग्री के अध्ययन में कुछ कठिनाइयाँ हैं। इनमें मुख्य कालिदास के भूगोल का पारस्परिक रूप है। भौगोलिक अनिश्चयता का स्वाभाविक परिणाम ऐतिहासिक अस्पष्टता है। अनिश्चित तिथिक्रम के कारण भौगोलिक सामग्री को ऐतिहासिक युग में रखना कठिन हो जाता है। यह प्रसंग कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जाएगा हूणों का हवाला महाभारत1 और रामायण2 दोनों में मिलता है। महाभारत की काया पाँचवीं सदी ईसवी3 तक बढ़ती रही है इसलिए यह कहना गलत होगा कि वह ग्रन्थ समसामयिक वृत्तान्त को प्रतिबिम्बित करता है। इस सम्बन्ध में दूसरी बाधा है देश के विविध भागों में स्थानों, पर्वतों आदि के समान नामों का होना। उदाहरणतः कालिदास द्वारा उल्लिखित4 कोसल बौद्ध सुत्तों5 में उत्तर का प्रदेश माना गया है पर उसी का उल्लेख दशकुमारचरित6 में दक्षिण-प्रदेश के रूप में हुआ है। रघुवंश उत्तरी राष्ट्र को उत्तर-कोसल कहता है, यद्यपि कोसल का प्रयोग उत्तर-कोसल के लिए भी हुआ है और केवल एक बार7 उसका प्रयोग राम की माता
-----------------------------
महाभारत, 1834-39 का कलकत्ता सं.1,6685 (हूण); 3,1991 (हूण); 6,373 (हूण)
सेण्ट पीटर्सबर्ग के अनुसार रामायण में हूणों का केवल एक बार उल्लेख हुआ है और वह बंगाल वाली प्रति में (गोरेसियों सं., पेरिस 1845,4,40,25) वहाँ ‘दण्डकूलांश्च’ के स्थान पर एक हस्तलिपि में ‘फ्ल्हहूणांश्च’ पाठ मिलता है।
स्कन्दगुप्त ने 455 ई. के लगभग पहले हूण आक्रमण को विफल कर दिया था। फ्लीटःगुप्त इन्सक्रिप्शन्स, नं.13 (सैदपुर-भीतरी); स्टाइनः ह्वाइट हून्स एण्ड किण्ड्रेड ट्राइब्स-इण्यिन ऐण्टिक्वैरी, 34, पृ.80 और आगे
रघुवंश, 9.17
मार्क कौलेन्सःदि ज्योग्रैफ़िकल डेटा ऑव् दी रघुवंश एण्ड दशकुमार-चरित पृ.6
वही
रघुवंश, 9.17
और दशरथ की रानी कौशल्या की मातृभूमि के रूप में हुआ है। इसी प्रकार निषध1 मालवा2 के दक्षिण स्थानविशेष का द्योतक है और साथ ही काबुल नदी के उत्तर और गन्धमादन के पश्चिम के एक पर्वत का भी नाम है जिसे ग्रीक कभी परोपमिसस कहते थे और आज हम हिन्दुकश3 कहते हैं। इस सम्बन्ध की तीसरा असुविधा एक ही स्थान अथवा जनता के अनेक नामों के कारण उपस्थित हो जाती हैं, जैसे मगध की राजधानी के लिए कुसुमपुर, पुष्पपुर4 और पाटलिपुत्र तीनों नाम प्रयुक्त होते हैं और बराड़ (विदर्भ) की प्रजा के लिए वैदर्भ5 और क्रथकैशिक6। कभी-कभी तो यह अशुद्धि अज्ञानवश प्रस्तुत हो गयी हैं जैसे, अयोध्या के लिए साकेत नाम का प्रयोग। रघुवंश में दोनों नाम पर्यायवाची हैं और मल्लिनाथ ने दोनों का एक होना स्वीकार किया है।7 परन्तु चूँकि दोनों नामों का प्रयोग बौद्ध साहित्य में मिलता है इससे दोनों की भिन्नता निःसन्देह सिद्ध है। साकेत महात्मा बुद्ध के समकालीन8 प्रधान नगरों में से एक है। अयोध्या (अजोज्झा) का प्रयोग बौद्ध साहित्य में जब तब ही हुआ है। संयुक्त-निकाय9 ने साकेत को गंगातट पर रखा है।

इन असुविधाओं के अतिरिक्त एक दूसरी असुविधा भूगोल में परम्परागत वर्णनों की भी है जो कालिदास के से भारतीय काव्यकारों के ग्रन्थों में भरे पड़े हैं। ग्रन्थकार के बाद ग्रन्थकार-स्थान और जनों के वर्णन में बिना उनके नामों की सत्यता पर विचार किये उनके प्राचीन नामों का प्रयोग करते जाते हैं। कभी यह विचार नहीं किया जाता कि स्थान-विशेष का नाम अदल-बदल गया है या उनकी जनता अब पहले की न रही, आदि। और इसी प्रकार पूर्वकाल की भौगोलिक कल्पनाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी कालक्रम में उतरती आती हैं और जब-तक सदियों बाद लाक्षणिक साहित्य में भी अपने लिए स्थान कर लेती हैं।10 फिर अन्वेषक इस कारण भी कठिनाइयों में पड़ जाता है कि प्राचीन भूगोल में वास्तविक और काल्पनिक में भी अन्तर नहीं डाला जाता है कि प्राचीन भूगोल में वास्तविक और काल्पनिक में भी अन्तर नहीं डाला जाता। उदाहरणतः कैलास का दूसरा नाम कुबेरशैल11 भी है जिससे वह पर्वत
------------------------ रघु.,18.1
बर्गेसः ऐण्टिक्विटीज ऑव् काठियावाड़ एण्ड कच्छ पृ.131
लेसेनः हिस्ट्री ट्रस्ड फ्राम बैक्ट्रियन एण्ड इण्डो-सीथियन क्वाइन्स इन जे.ए.एस.बी.,9 (1840) पृ.469 नोट
रघु.,6.24
वही 5.60
वही, 5.39,61;7.32
वही,5.31 (टिप्पणी)
एस.बी.ई, 11, पृ.99, 247
पालि टेक्स्ट सोसाइटी द्वारा प्रकाशित फियर का सं., 1834-1904,3, पृ.140
कौलेन्स ज्यो. डेटा. रघु., दश., पृ. 8
कुमारसम्भव, 7. 30 एकपिंगलगिरौ वही, 8.24
वास्तविक से हटकर विचित्र काल्पनिक देश में जा पहुँचता है। इसी प्रकार सिद्धों1, यक्षों2, किन्नरों3, अश्वमुखियों4, किम्पुरुषों5, और शरभों6 के-से शब्दों के प्रयोग में अपार्थिव और काल्पनिक जन-विश्वासों की प्रतिष्ठा कर कठिनाई उपस्थित कर दी गयी है।
फिर भी आगे के पृष्ठों में कालिदास के ग्रन्थों के आधार पर प्राचीन भारत का नक्शा उपस्थित करने का प्रयत्न किया जाएगा। वह प्रयत्न भौगोलिक नामों (अनेक अवसरों पर पारम्परिक) पर्वत, नदियों, पशु-पौधे और अन्य सामग्री की यथासम्भव पहचान
के रूप में होगा।
मेघदूत, पूर्व 14.45
कु.6.39; मेघ पूर्व, 1.5 (गुह्यक), 7; मेघ उत्तर, 3
कु. 8.85; मेघ उत्तर, 8
कु.1.11
वही, 6.39
मेघ. पूर्व, 54
कु., 1.1
रघु; 4.32
वही, 4.35
वही, 4.36
प्राप तालीवनश्याममुपकण्ठं महोदधे:, वही, 34
दक्षिण-तट ताड़ों1 के जंगलों से ढके थे जिससे दूर से वे सर्वथा श्याम-वर्ण के दीखते थे। दक्षिण को दौड़ता हुआ पूर्वी सागर-तट पर कालिंगों2 और पाण्ङ्यों3 की-सी अनेक वीर जातियाँ बसी थीं। कालिंग अपनी गज-सेनाओं के लिए ख्याति-लब्ध थे और पाण्ङ्य दक्षिणापथ के स्वामी थे। महोदधि के दक्षिण-पश्चिमी तट पर केरलों4 का निवास था। समूचा5 पश्चिमी तट अपरान्त कहलाता था जिसमें केरल भी शामिल था। उत्तर-पश्चिम में, अर्थात् ईरान, वक्षुनदी की घाटी में क्रमश: श्मश्रुल ईरानी घुड़सवारों6 और भीषण हूणों7 का निवास था। उनसे लगी हुई बस्ती कम्बोजों8 की थी। इन विदेशियों के स्थान और निवास की चर्चा हम अन्यत्र करेंगे। कालिदास द्वारा प्रस्तुत भारतीय मानचित्र तीन प्रधान भागों में विभक्त होगा; (1) हिमालय की विशाल पर्वतश्रेणी, (2) सिन्धु, गंगा और ब्रह्मपुत्र की घाटियों से बनी मध्यवर्ती उर्वर भूमि, और (3) भारतीय प्रायद्वीप का दक्षिणी विस्तृत पठार।

उत्तर-पश्चिम में पामीर की पेचीदी पहाड़ी-ग्रन्थि से पूर्व की ओर फैली हुई संसार की सबसे ऊँची और लम्बी पर्वत-श्रृंखला है, जिसका कालिदास ने हिमाद्रि9 और हिमालय10 नामों से उल्लेख किया है और जिसके प्राय: अस्सी शिखर संसार की सबसे ऊँची चोटियों में से हैं। इसके अनेक हिमधवल और अभ्रंलिहाग्र शिखरों का उल्लेख महाकवि ने कैलास,11 गौरीशिखर,12 गन्धमादन,13 मन्दर,14 और मेरु15 अथवा सुमेरु16 नाम से किया है। ------------------- रघु. 4.34
वही, 4.40
वही, 4.49
वही, 4.54
वही, 4.53
वही, 4.60-65
वही, 4.68
वही, 4.69
वही, 4.79
कु; 1.1
रघु, 2.35; मेघ. पूर्व.11.58; विक्रमोर्वशीय, पृ.87; पौलस्त्यतुलितस्याद्रे: रघु., 4.80; कुबेरशैल, कु.7.30, एकर्पिगलगिरि 8.24
कु. 5.7
वही, 6.46, 8.28-29, 75, 86; विक्रमो, पृ.87, 118
कु. 8.23, 59
रघु. 8.24; कु.1.2, 18; 7.79, 8.22
रघु. 5.30; कु.6.72

भारत के पर्वत

कैलास पर्वत सम्भवत: तिब्बतियों का खांग-रिन-पोचे है जो गंगोत्री से आगे मानसरोवर के प्राय: पचीस मील उत्तर और नीतिपास1 के पूर्व स्थित है।

कैलास : प्रसिद्ध गांग्री श्रृंखला से कैलास लगा हुआ है। स्ट्रैची लिखता है, ‘‘कैलास सौन्दर्य की विचित्रता में विशाल गुरला या अन्य हिमालय पर्व-शिखरों को, जिन्हें मैंने देखा है, मात कर देता है; इसकी शालीनता असाधारण है, पर्वतों का यह राजा है।’’2 क्विनलुन पर्वत को कैलास बताना गलत है।3 महाभारत4 और ब्रह्माण्डपुराण5 कुमायूँ और गढ़वाल के पर्वतों को भी कैलास की श्रृंखला का ही भाग मानते हैं, जिसका आभास कालिदास6 के वर्णन से भी मिलता है। कैलास शिव और पार्वती का वास-स्थान समझा जाता था जिसका उल्लेख कवि ने भी किया है।7 कालिदास ने कैलास को स्फटिक का बना पर्वत कहा है।8 उस महाकवि ने उस पर्वत-शिखर को निर्मल शाश्वत हिम9 से मण्डित माना है जिसमें वह कहता है, सुरनारियाँ दर्पण की भाँति अपना मुँह देखती है।10 स्पष्ट है कि कवि की उक्तियों में पुराण और परम्परा अनायास आ बैठते हैं और वह रावण द्वारा कैलास की, जोड़-जोड़ हिलाकर उस पर रहने वालों के भयान्वित हो जाने की कथा का हवाला देता है।11 कालिदास ने उसका पौराणिक नाम कुबेर-शैल12 और एकपिंगलगिरि13 से भी उल्लेख किया है। इन संज्ञाओं में कुबेर के उस पर्वत पर निवास की कथा ध्वनित है। कैलास का एक और नाम था, हेमकूट14। नन्दलाल दे की राय में हेमकूट नाम से हिमालय की वह बन्दर-पुच्छ श्रेणी भी जानी जाती थी जिसमें अलकनन्दा, गंगा और यमुना के उद्गम हैं (वराह-पुराण, अध्याय 82), परन्तु उनका विश्वास है कि कैलास और बन्दर-पुच्छ
------------- 1. बैटन : नीतिपास: जे.ए.एस.बी. 1835, पृ.314
2. एच.स्ट्रैची : वही, 1848, पृ.158
3. नन्दलाल ज्योग्रैफ़िकल डिक्शनरी ऑव् एन्शेण्ट ऐण्ड मेडिएवल इण्डिया, पृ, 83
4. वनपर्व, अध्याय 144, 156
5. अ. 51
6. विक्रमो., पृ,.87; फ्रेजर : हिमालय माउण्टेन्स, पृ.470
7. रघु, 2.30, 4.80, कु. 7.30, 8.24; मेघ. पूर्व, 52, 58, 60
8. मेघ, पूर्व, 56
9. राशीभूत: प्रतिदिनमिव त्र्यम्बकस्याट्टहास:-वही
10. कैलासस्य त्रिदशवनिता दर्पणस्य., वही, 58
11. वही, कु., 8.24
12. कु.,7.30
13. वही. 8.24
14.शाकुन्तलम् पृ.237; विक्रमों., 1.12; वही, पृ.38
की श्रेणियों की समान संज्ञा कैलास की ही थी1। कालिदास ने हेमकूट और कैलास को एक ही माना है।2
वराहपुराण3 के अनुसार गौरीशिखर गौरीशंकर ही है। श्लागिण्ट वाइट ने इसे माउण्ट एवरेस्ट4 माना है, परन्तु यह एकीकरण इसलिए दोषपूर्ण है कि एक तो नेपाल में इस नाम से वह जाना नहीं जाता और दूसरे कैप्टन5 की माप ने यह सिद्ध कर दिया है कि नेपाल का गौरीशिखर या गौरीशंकर और एवरेस्ट दोनों अलग-अलग दिखाये जाते हैं। गन्धमादन : हिन्दू भौगोलिकों के अनुसार गन्धमादन कैलास श्रृंखला का ही एक भाग है।6 कालिकापुराण7 ने इसे कैलास पर्वत के दक्षिण में रखा है। महाभारत8 और वराहपुराण9 इसी पर्वत पर बदरिकाश्रम की स्थिति मानते हैं। मार्कण्डेय10 और स्कन्दपुराणों11 के अनुसार गढ़वाल के ये पर्वत, जिनसे होकर अलकनन्दा बहती है, गन्धमादन हैं। कालिदास गन्धमादन को स्पष्टत: कैलास श्रृंखला के भीतर या उसके पास ही रखते हैं (कैलासशिखरोद्देशम)12। महाकवि के अनुसार मन्दाकिनी और जाह्नवी गन्धमादन के भीतर होकर बहती हैं।13 मन्दर : नन्दलाल दे ने पुराणों के आधार पर भागलपुर जिले की बाँका तहसील की एक पहाड़ी को मन्दर माना है14 परन्तु यह एकीकरण कालिदास के वर्णन के प्रतिकूल होने के कारण अशुद्ध है। कालिदास ने मन्दर को हिमालय में रखा है।15 स्वयं महाभारत16 नन्दलाल के पौराणिक प्रमाणों के विपरीत हिमालय-श्रृंखला के ----------------- 1. ज्यों. डिक.एन.मेड.इण्डिया, पृ.75
2. शाकु., 7
3. अध्याय 215
4. वाडेल : एमंग दि हिमालयाज, पृ.37
5. वाडेल : लासा एण्ड इट्स मिस्ट्रीज, 76
6. ज्यो.डिक.एन.मेड.इण्डिया, पृ.60; विक्रमो., पृ.87
7. अध्याय 82
8. वनपर्व, अ. 145, 157; शान्तिपर्व, अ.335
9. अ. 48
10. अ. 57
11. विष्णुखण्ड, 3.6
12. विक्रमो., पृ.87
13. ततस्तत्र मन्दाकिनीतीरे सिकतापर्वतै:; वही, तत्र हंसधवलोत्तरच्छदजाह्ववीपुलिनचारुदर्शनम्, कु.88.2
14. ज्यो. डिक., पृ.124
15. कु. 8.23, 59
16. अनुशासन पर्व, अ. 19, वन पर्व, अ.162
पर्वतों को ही मन्दर मानता है। दे लिखते हैं, ‘कुछ पुराणों में नर-नारायण के मन्दिर से संयुक्त बदरिकाश्रम की स्थिति मन्दर पर्वत पर बतायी गयी है परन्तु महाभारत (वन.अध्याय 162, 164) के अनुसार मन्दर बदरिकाश्रम के उत्तर और गन्धमादन के पूर्व पड़ता है।’’1 मन्दर के सम्बन्ध में कालिदास ने महाभारत के अनुवृत्त का अनुसरण किया है, जिससे उसकी स्थिति कैलास और गन्धमादन के समीप मानी गयी है।2 शिव, विवाहान्तर, रमण पहले मेरु पर करते हैं3 फिर मन्दर पर।4 मन्दर5 के बाद वे कैलास6 और गन्धमादन7 को अपनी क्रीड़ाभूमि बनाते हैं। मन्दर के वर्णन में कालिदास ने समुद्र-मन्थन और अमृत-प्राप्ति का भी उल्लेख किया है जिससे सिद्ध है कि कवि पुराणों के परम्परा-जाल से अपनी रक्षा न कर सका।8 यह स्पष्ट है कि यद्यपि वह मन्दर को हिमालय में ही9 रखता है फिर भी समुद्र-सम्बन्धी उसकी पौराणिक स्थिति को वह नहीं भूल पाता। मलय की ओर से बहते पवन के सम्बन्ध में धोखा नहीं हो सकता। परन्तु इससे केवल कालिदास के पौराणिक परम्परा के प्रति संकोच के सिवा और कोई अर्थ नहीं निकलता और इस कारण मन्दर को हिमालय से हटाकर दक्षिण में रखना भूल होगी; क्योंकि कवि का वर्णन, जिसमें मन्दर का उल्लेख है, दो ही श्लोकों के बाद कैलास की दिशा में होता है।10 मेरु : महाभारत11 के अनुसार मेरु12 अथवा समेरु13 गढ़वाल का रुद्रहिमालय है जहाँ गंगा का स्रोत है। यह स्थान बदरिकाश्रम के समीप ही है। मत्स्यपुराण के अनुसार सुमेरु के उत्तर में उत्तरकुरु है, दक्षिण में भारतवर्ष, पश्चिम में केतुमाला और पूर्व में फिर भारतवर्ष14। पद्यपुराण के अनुसार भी गंगा सुमेरु पर्वत से निकलकर भारतवर्ष से होती हुई समुद्र में गिरती है।15 --------------------------- 1. ज्यो.डिक, पृ.125
2. कु.8.23.24.29.59
3. वही, 22
4. वही, 23
5. वही
6. वही, 24
7. कु., 28
8. वही, 23
9. वही
10. मिलाइए 23 और 25
11. शान्तिपर्व अ. 335-336
12. रघु, 7.24; कु.1.2, 18, 7.79, 8.22
13. रघु, 5.30; कु.6.72
14. अ. 113
15. अ. 128
गढ़वाल में केदारनाथ पर्वत को आज भी

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