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आलोचना >> हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता

हिन्दी साहित्य का इतिहास पुनर्लेखन की आवश्यकता

पुखराज मारू

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :247
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13486
आईएसबीएन :9788183616089

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साहित्य समाज का दर्पण है।'

साहित्य समाज का दर्पण है।' आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का यह आप्त वाक्य साहित्येतिहास लेखन की आवश्यकता और प्रभविष्णुता को भी रेखांकित करता है। समसामयिकता यदि साहित्य में प्रतिध्वनित होती है तो इतिहास-लेखन उसकी प्रामाणिकता का दस्तावेज होता है। वैज्ञानिक दृष्टि और अधुनातन चिन्तन के लिए यह जरूरी है कि हमें अपने समाज और इतिहास की ठीक-ठीक जानकारी हो। अपने सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और साहित्यिक परिवर्तन सदैव हमारे सामने एक चित्र की तरह आते-जाते रहें तो हमारे निर्णय, निष्कर्ष और प्रयास, संकल्प और प्रस्तावनाएँ सकारात्मक होंगी। साहित्य का इतिहास हमारी सामाजिक मूल्यवता और नैतिक अर्थवत्ता को रेखांकित करता है। साहित्य की समृद्धि, नैतिकता, मर्यादा, सिद्धान्त, सत्य और ईमान की स्वत : प्रतिष्ठा करती चलती है। हमारे अतीत का शपथ-पत्र विगत साहित्येतिहासकारों के परिश्रम के फलस्वरूप हमारे समक्ष है। आनेवाली पीढ़ियों के स्वत्वाधिकारों की रक्षा के लिए यह अत्यन्त आवश्यक और अपरिहार्य है कि साहित्येतिहास लेखन की निरन्तरता तथा क्रमबद्धता बनी रहे। सामाजिक परिवर्तनों तथा राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक ऊहापोह के प्रामाणिक दस्तावेज आनेवाली पीढ़ियों के अधिकार हैं, अत: साहित्य इतिहास के लेखन की अनिवार्यता के साथ- साथ यह भी आवश्यक है कि उसका तथ्यपरक विश्लेषण भी यथा-अवसर किया जाता रहे। साहित्य और संस्कृति हमारी सर्वाधिक मूल्यवान धरोहरें हैं। श्रोत्रिय और चाक्षुष संचरित आक्रमणों के इस दौर में यह और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है कि हम अपने साहित्यिक इतिहास-लेखन को एक गुरुतर दायित्व मानते हुए इसे क्रमिक और निरन्तर रूपबद्धता प्रदान करें। इसे वह रूपाकार दें जो उसकी सार्वभौमिक प्रामाणिकता और मानवीय संलग्नता को एक साथ उपस्थित करने में सहायता करे।

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