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कथा एक प्रान्तर की

एस. के. पोट्टेकाट

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :503
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1350
आईएसबीएन :81-263-0117-1

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‘कथा एक प्रान्तर की’ श्री शंकरनकुट्टि कुन्हीरमन पोट्टेक्काट के विख्यात मलयालम उपन्यास ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ का हिन्दी अनुवाद है...

Katha ek Pranter Ki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्रस्तुति

(प्रथम संस्करण से)
‘कथा एक प्रान्तर की’ श्री शंकरनकुट्टि कुन्हीरमन पोट्टेक्काट के विख्यात मलयालम उपन्यास ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ का हिन्दी अनुवाद है। भारतीय ज्ञानपीठ का सोलहवें वर्ष का एक लाख रूपये का साहित्य पुरस्कार श्री पोट्टेक्काट को समर्पित हुआ है; और उनकी यह कृति पुरस्कार हेतु विचार-गत कृतियों की श्रेणी में श्रेष्ठ मानी गयी है-उनकी उन दो समकक्ष कृतियों के साथ जिनके शीर्षक हैं, ‘विषकन्यका’ तथा ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ (कथा एक मोहल्ले की)।

पोट्टेक्काट का जन्म 14 मार्च, 1913 को कालीकट में हुआ। कालीकट नाम तो बाद में पड़ा जब वहाँ उद्योग धन्धों का विस्तार होना प्रारम्भ हुआ। इसका पुराना नाम अतिराणिप्पाटं था। पोट्टेक्काट ने ‘कथा एक प्रान्तर की’ में इसी अतिराणिप्पाटं की अन्तरात्मा की कथा इस पुरस्कृत उपन्यास में वर्णित की है। इसीलिए ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ का हिन्दी रूप ‘एक गाँव की कहानी’ भी कर दिया जाता है, यद्यपि ओरु (एक) देशत्तिन्ते में देश शब्द न प्रदेश के अर्थ में है, न पूरे गाँव के अर्थ में। यह गाँव के छोर पर बसी बस्ती की कथा है-वहाँ के परिवर्तन परिवेश की वहाँ के निवासियों की जिन्होंने जीवन के अनेक उतार-चढ़ाव देखे, अनेक प्रकार के सुख-दुःख सहे, अनेक प्रकार के कार्य-कलाप और पारस्परिक व्यवहार से उत्पन्न क्रिया-प्रतिक्रियाओं के, मानवीय उद्वेगों के जो भोक्ता और द्रष्टा रहे। इन पात्रों में स्वयं पोट्टेक्काट हैं कथा-नायक श्रीधरन के रूप में। गाँव के सदाचारी सात्विक निश्छल कृष्णन-मास्टर पोट्टेक्काट के पिता के ही प्रतिबिम्ब हैं। शेष पात्र भिन्न-भिन्न नामों के अन्तर्गत बस्ती के ही जीते-जागते व्यक्ति हैं। जिनके बीच पोट्टेक्काट के बचपन, लड़कपन और तरुणाई के दिन बीते। छोटा-सा प्रान्तर, एक पूरा विश्व है। एक-एक पात्र पूरा इतिहास है, एक-एक का जीवन-वृत्त एक-एक उपन्यास है। पचासों पात्र हैं, सैकड़ों घटनाएँ हैं-छोटी-छोटी घटनाएँ, चर्चाएँ, अन्तराल जो जीवन के तानों-बानों को बुनते चलते हैं।

एक गाँव। उसके पचास वर्षों का महाकाव्य। कुट्टिमालु जीवन को जिस सहजभाव और निष्ठा से जीती है और अपने परिवार के अधिष्ठान को सँभाले रहती है, वह पोट्टेक्काट की माँ ही तो है। फौज से रिटायर होकर गाँव में लौटकर आया है कुंजप्पु। इतना जिन्दादिल, क्रियाशील व्यक्ति जो अपने अनुत्तरदायी व्यवहार में भी मन को मोहता है। वह गाँव में एक नयी हवा ले आता है। एक दिवालिया और शेखीखोर व्यक्ति है कुंजिक्केलु। उसके कारनामे और उसके व्यवहार जगजाहिर हैं, किन्तु वह अपने स्वभाव की धुरी पर निर्बाध घूमता है, घुमाता भी है। एरुमा पोन्नम्मा-जैसी आवारा औरत अपने धन्धे को जिस तेजी से चलाती है, एक मानवी की शक्ति के सन्दर्भ में वह गति अविश्वसनीय लगती है। कहाँ होता उसका अन्त ? कैसे ? पटरी पार करते रेल का इंजिन उसके ऊपर से गुजर जाता है और वह कटकर टुकड़ो-टुकड़ों में बिखर जाती है। यह दृश्य स्वयं लेखक का देखा हुआ है। इसकी प्रतिक्रिया का संवेदन उसका भोगा हुआ है।

अपाहिज गोपालन कितना निरीह है ! कुछ भी तो कर-धर नहीं सकता। हम उसे जड़-बुद्धि समझते हैं। किन्तु वही जीवन के अन्तिम क्षण में आत्म-मन्थन से उपजे दर्शन का नवनीत श्रीधरन को दे जाता है, ‘‘यदि कोई ईश्वर है तो वह तो दूर कहीं भी आकाश में बैठा है। यदि उसे पुकारो तो वह सुनेगा नहीं। किन्तु एक दूसरा ईश्वर भी है-एक महान शक्ति-जो गहरे दुःख के समय तुम्हारी पुकार आसानी से सुन लेती है और तत्काल रक्षा हो सकती है। वह शक्ति तुम्हारे अन्दर है-तुम्हारी अन्तरात्मा। कुछ भी प्रारम्भ करने से पहले उस अन्तरात्मा की आवाज सुनो क्या जो कुछ भी मैं करने जा रहा हूँ वह मानवीय काम के सिद्धान्तों से समर्पित है ? क्या इस काम से मेरे ऊपर धब्बा तो नहीं आएगा ? क्या इसका परिणाम मेरे साथी मानवों के लिए अहितकारी तो नहीं होगा ? यह सब अपनी अन्तरात्मा से पूछो। वह ठीक-ठीक तुमसे कान में कह देगी। यदि आत्मा से छल करोगे तो तुम्हें पता भी नहीं लगेगा कि कब तुम्हारी नैया डूब जाएगी। इस संसार में सारे जीवधारी एक महान् गतिशील शक्ति के छोटे-छोटे परमाणु हैं। जिस शस्त्र का प्रहार तुम एक साथी मानव पर जान-बूझकर करते जा रहे हो, वह अपने लक्ष्य को आहत करे या न करे, वह कभी-न-कभी तुम्हें खोजता हुआ आएगा और छाती पर वार करेगा। तुम्हें मालूम नहीं पड़ेगा कि कब वह प्रहार हुआ। आदमी असहाय है-उस चक्रायित और निर्णायक परम सत्ता के आगे।

जीवन का यह इतना बड़ा सत्य है कि जब मैंने भी पोट्टेक्काट से पूछा कि पुरस्कार सामारोह के अवसर पर स्मारिका में प्रकाशित होने वाले उनके चित्र के साथ उनके जीवन-दर्शन को व्यक्त करने वाली कौन-सी पंक्तियाँ या उक्ति उद्धृत की जाएँ, तो उन्होंने इसी उद्धरण को सर्वाधिक सार्थक बताया।
पोट्टेक्काट का अत्यन्त कोमल पात्र है गाँव की वह बालिका, जो एक दिन आँधी-पानी के दिन श्रीधरन से मिलती है-एक कोंपल अँकुरा जाती है। पता भी नहीं उसे इस स्फुरण को क्या कहते हैं। बस श्रीधरन ने उसे अपनी छतरी दी थी कि वह बारिश से बच जाए। अगले दिन वह छतरी चुपके से लौटा भी दी गयी थी। उसके बाद न मालूम वह मिल पायी या नहीं। लेकिन मन के स्फटिक पर खिंची रेखा क्या कभी मिट सकती है ?

लगभग पैंतीस वर्ष बाद श्रीधरन जब लौटता है तो गाँव के स्थान पर एक भारी-भरकम शहर को दानव की तरह हाथ-पाँव फैलाये पाता है। उस दानव ने अतिराणिप्पाटं को निगल लिया था, और कालीकट को ला खड़ा किया था। बालिका अम्मुकुट्टि रात को चुपचाप प्रेम के गीत लिखती रहती थी-और स्वयं टी.बी. रोग से समाप्त हो गयी थी। उसके भाई ने श्रीधरन को वह कॉपी पकड़ायी थी। कलेजा धक हो गया था। तभी से मौत को श्रीधरन ने जीवन के सत्य के रूप में स्वीकार कर लिया था।

पोट्टेक्काट ने उपन्यास में हर कहीं मृत्यु से निर्भय आँखें मिलायी हैं। आँसू कब मुस्कान बनकर फूटे और मुस्कान कब आँसुओं में बह गयी-यह पता ही नहीं चलता। दोनों ही सहज हैं, सम हैं। कभी-कभी मन में प्रश्न उठता है, पोट्टेक्काट इतने क्रूर क्यों हैं कि एक पात्र को ममता से बनाते हैं और निर्ममता से विसर्जित कर देते हैं। किन्तु उत्तर अपने आप प्राप्त हो जाता है कि पोट्टेक्काट ने तो वही लिखा जो देखा-भोगा। जीवन भी तो इसी तरह बनता गुजरता रहता है। मौत कभी-कभी दबे पाँव आ जाती है और प्रायः घुला-घुलाकर मारती है। अतिराणिप्पाटं के उन सारे पात्रों में से अनेक को मौत निगल लेती है। ताड़ी बनानेवाले, छोटे दुकानदार, अखबार बेचनेवाले, सम्पादक-अध्यापक, ज्योतिषी, ठग, बटमार-सभी अदम्य उत्साह से जीवन जीते हैं, उनकी सारी छीना-झपटी, उठा-पटक, अतिराणिप्पाटं-कालीकट को क्रिया-प्रतिक्रियाओं से जीवन्त रखते हैं। वे सब समाप्त हो चुके हैं, ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ उन्हीं को समर्पित है।

पोट्टेक्काट की भ्रमण-वृत्ति तो अपरिहार्य है ही। कमाल की है उनकी स्मरण शक्ति ! पात्रों की बातचीत उनके तमाम सजीव सन्दर्भ, स्थानीय भाषा के पूरे ओज और मुहावरे के सहजगति से प्रतिध्वनि होती है।
उपन्यास में न पूरी कहानी है, न कुछ सिलसिलेवार घटनाक्रम है। पूरा गाँव देहात है, परिवेश है, वातावरण है, धरती की गन्ध और पेड़-पौधों की महक है। जैसे यही सब उपन्यास की जीवन-शक्ति बनकर पात्रों को परिचालित कर रहे हैं।
पोट्टेक्काट ने कवि के रूप में साहित्यिक जीवन प्रारम्भ किया। ‘प्रभात कान्ति’ और ‘प्रेम शिल्पी’ पहली रचनाएँ है। फिर कहानी के क्षेत्र में प्रवेश किया तो मलयालम साहित्य को रोमाण्टिक कहानियों की नयी शैली दे दी। चौबीस कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनका 13 कहानियों का एक संग्रह रूसी भाषा में अनूदित हुआ तो दो सप्ताह में एक लाख प्रतियाँ बिक गयीं। यथार्थ की छाप और शैली की सहजता ने पाठकों के मन को लुभाया।

पोट्टेक्काट के दस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। लेखन के साहस और धीरज की यह स्थिति है कि ‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ के भागों में 75 अध्याय हैं। ‘विषकन्या’ इसी प्रकार का बड़ा उपन्यास है जिसमें एक जाति और कबीले ने मलयालम के दुरूह, भयानक प्रदेश को अदभुत साहस के साथ, झाड़-झंकार हटाकर खूँखार पशुओं और बीमारियों से संघर्ष करके, मनुष्य के कृतित्व और अन्तिम विजय का साक्ष्य प्रस्तुत किया-विजय जिसकी अन्तिम बिसात क्या है, यह दर्शन का विषय बन जाता है, जिसे पोट्टेक्काट खूब समझते हैं और समझाने का प्रयास करते हैं।

‘ओरु देशत्तिन्ते कथा’ के इस हिन्दी अनुवाद ‘कथा एक प्रान्तर की’ को नियोजित करना बहुत कठिन प्रमाणित हुआ। समय कम और उपन्यास बहुत बड़ा। प्रो. पी. कृष्णन हिन्दी विभाग, श्रीनारायण कॉलेज कण्णूर (केरल) के हम आभारी हैं कि उन्होंने बहुत थोड़े समय में ही इतनी विशाल कृति का अनुवाद पूरा कर देने का जो संकल्प किया था उसे बड़ी कुशलता और तत्परता से निबाहा। इस जल्दबाजी में शैली-शिल्प की सुरक्षा नहीं हो सकती है, फिर भी इस दिशा में स्वल्पावधि को ध्यान में रखते हुए यथासम्भव प्रयत्न किया गया और अब यह कृति पाठकों को भेंट है।
यह हिन्दी रूपान्तर लेखक के कृतित्व और उनकी विशिष्टता की एक रूपरेखा है। वास्तविक सुरभि तो मूल मलयालम में ही है

दिल्ली लक्ष्मीचन्द्र जैन
18 नवम्बर, 1981

रिजर्वायर


श्री धरन ने सड़क किनारे के उस कोने की तरफ आँखें फैलाकर देखा। सफेद रंग पुता भारी-भरकम एक पेट्रोल टैंक आसमान में सिर उठाये खडा है। टैंक के फूले हुए पेट पर काले अक्षरों में अंकित है, ‘कैपेसिटी टेन थाउजैण्ड गैलन्स’।
यह वही नुक्कड़ है जहाँ अम्मुक्कुट्टि की छप्परवाली झोंपड़ी खड़ी थी, उसकी युवावस्था के आरम्भ की प्रथम प्रेमिका अम्मुक्कुट्टि !
तिकोन आकृति के उस अहाते की बाड़ के ही निकट एक बड़े बादाम का और एक मदार का पेड़ था-उनकी याद आज भी ताजा है। वे पेड़ अब कहाँ गये हैं। बाड़ की जगह अब सफेद पुती एक ऊँची पत्थर की दीवार नजर आती है। दीवार के पास लम्बे नुकीले पत्तों और छोटे लाल फूलोंवाला एक नया पौधा लगाया गया है।
पौधे का एक-एक फूल अम्मुकुट्टि के नाक के लाल मणि का स्मरण कराता है।

पैंतीस साल पहले श्रीधरन उस देश से विदा ले प्रवास पर गया था। इन पैंतीस सालों में क्या-क्या परिवर्तन हो गये ! परिवर्तनों का एक लम्बा संघर्ष ही वहाँ हुआ है।
प्रेम-कविता लिखने की प्रथम प्रेरणा उसे अम्मुक्कुट्टि ने ही दी थी। जीवित रहते नहीं, मृत्यु के बाद।
अम्मुक्कुट्टि के छोटे भाई ने यह नोटबुक उसके हाथों में थमा दी थी।
उस शाम की याद अब भी ताजा है। उस लड़के ने बताया था, ‘‘अम्मुक्कुट्टि दीदी ने यह पुस्तक आपको छिपाकर देने के लिए मुझे दी थी।’’

नोटबुक ली और कुछेक पृष्ठ उलट-पलटकर दृष्टि दौड़ायी। सब की सब कविताएँ थीं। जरा बायीं तरफ को झुके छोटे अक्षरों में जामुनी स्याही से लिखी गयी कविताएँ-गीत।
अपनी खुशी प्रकट किये बिना ही मैंने पूछा था-तेरी अम्मुक्कुट्टि दीदी किस स्कूल में काम कर रही है ?
लड़के की आँखें भर आयी थीं। बोला, अम्मुक्कुट्टि दीदी चल बसीं।
‘‘चल ब स् सस् ई !’’ हृदय पर बिजली सी गिरी।
एक सप्ताह बीत गया। राजयक्ष्मा था। लड़के ने आँखें पोंछकर कहीं दूर दृष्टि डालते हुए कहा।
उस दिन भर उसने वे कविताएँ बार-बार पढ़ी। शीर्षकहीन कविताएँ-तड़पते प्राणों के प्रणय गीत-अकृत्रिम आत्मालाप-

चारों ओर घना अन्धकार
बन्द झोंपड़ी में बैठी हूँ मैं
अकेली।
सड़क किनारे के आम से, लो
आधी रात की कोयल भी उड़ गयी !
मेरे साथ है मात्र एकान्त
जिसमें सारी दुनिया जम गयी है
ऊँघती-ऊँघती।
मेरी करुणाक्रान्त व्यथाएँ, मानो
प्रतिध्वनित हो रही हों अन्धकार में।
पूजनीय प्रिय, तेरी प्रतीक्षा में मैंने
इतनी यह रात काट दी।
तू नहीं आएगा, नहीं ही आएगा-
नीहार सिंचित दूब के बिछे
रास्ते से मन्द-मन्द।
तू नहीं आएगा, नहीं ही आएगा-
नारियल के पत्तों का मेरा द्वार खटखटाकर पुकारने के लिए मेरा नाम।
तू नहीं आएगा, नहीं ही आएगा-
मेरे जूड़े की मल्लिकाओं की सारी
सुगन्धी ही रिस गयी है।
नहीं, तू मुझे पुकारेगा नहीं ‘प्रिये’ !
प्रेम से आर्द्र मेरी संवेदनाएँ हैं व्यामोह,
मेरे मूक प्रणय की आशाएँ हैं व्यर्थ,
यह मैं जान चुकी हूँ।
फिर भी हे देव !
कभी-न-कभी तेरा प्रेम
मेरी झोंपड़ी को बना देगा स्वर्णमहल।
उस दिन आँसुओं से धोकर, पूरे
पदचिन्ह्र तेरे, कहूँगी मैं-
‘‘धन्य हुई आज
सफल हुआ जीवन,
भोर के सोनल तारे से भी हो गयी ऊँची !’’
नाथ ! चूम ले यह मेरी जीवन-लौ
ताकि निराशा न छू पाए उसे।...............................................

उस नोटबुक की एक कविता श्रीधरन के अन्तरस् में गूँज उठी।
अम्मुक्कुट्टि से पहली मुलाकात की वह शाम ! कॉलिज की पढ़ाई पूरी करके महज म्युनिसिपिल लाइब्रेरी की किताबों को अपना साथी बनाकर दिन गुजारने वाला जमाना।
रेल की पटरियों के नजदीक वाले विशाल मैदान के रास्ते से ही वह हमेशा लाइब्रेरी से घर वापस आता था। उस दिन वहाँ पहुँचने पर एकाएक बारिश आ गयी। हवा चल पड़ी-जोर से प्रचण्ड हवा, चाँदी के काँटों जैसी और फूटकर बौछार मारनेवाली वर्षा की बूँदें !

ढेर सारी किताबों को एक हाथ से छाती में दबाये हुए और दूसरे हाथ की छोटी-सी छतरी से बारिश की हवा का सामना करते हुए साड़ी पहने वह लड़की उस मैदान में धीरे-धीरे कदम रखकर आगे बढ़ रही थी। साड़ी का निचला हिस्सा बरसात से भीगने के कारण पैरों में लिपटा था। इस वजह से वह बड़ी मुश्किल से चल पा रही थी। अकस्मात् जोर की हवा आयी। वह छतरी उसके हाथ से छूटकर एक पतंग की तरह आसमान में उड़ गयी।
पुस्तकों के ढेर को दोनों हाथों से सँभालते हुए उसने ऊपर की तरफ देखा। छतरी हवा में दो एक बार नटबाजी कर दस-बीस मीटर दूर जमीन पर औंधे मुँह जा गिरी। फिर दो-तीन बार नर्तन-सी करती वह वहाँ से धीरे-से उड़कर मैदान के कोने में कोयले के ढेर में अटक गयी।

श्रीधरन ने दौड़कर कोयले के ढेर से छतरी उठा ली। शैतानी हरकतों के बीच बेचारी छतरी की चार-पांच पसलियाँ टूट गयी थीं।
अपना नया छाता उसकी तरफ बढ़ाते हुए श्रीधरन ने कहा, ‘‘इसे ले लो-बारिश से बचो।’’
वह हिचकती रही, उसको जरा शक भी हुआ। फिर श्रीधरन के चेहरे की तरफ देखा। छतरी ले ली, फिर भी शंकित हो खड़ी रही.....
‘‘कोई बात नहीं। छतरी मुझे कल दे देना !’’ श्रीधरन ने उसे एड़ी से चोटी तक एक बार देखने के बाद धीमी आवाज में कहा।
वह सिर झुकाकर हौले-हौले चली गयी।

उस लड़की को इसके पहले कभी देखा नहीं था। आम्र-पल्लव के रंग की कृशगात्री। लाल-लाल ओठ, खूबसूरत आँखें, कान में छोटा सा गोलाकार कर्णफूल नाक के छोर पर लाल पत्थर जड़ित टोरा और पैरों में नुपुर। बिलकुल एक देहाती लड़की। एक शेल्फ में आने लायक ढेर सारी पाठ्य-पुस्तकें, नोटबुक, ड्राइंग बुक उसने छाती पर ढो रखी थीं।
लगा कि कोई प्रशिक्षण-छात्रा होगी।
हवा के झटके से टूटी हुई पसलियों वाली छतरी को अपने सिर के ऊपर तान कर श्रीधरन चलने लगा। किस्मत ही समझो कि वहाँ इस घटना को देखने वाला कोई न था।
बारिश खतम होने पर छतरी को समेटकर बगल में रख लिया।
उस छतरी की मूठ-काजू के आकार की थी। उसे स्मरण आया कि काजू के फल में दिखाई देनेवाला दाग-जैसा कुछ उसने उसके गालों पर भी देखा था।

श्रीधरन घर की तरफ नहीं गया क्योंकि पिताजी छतरी देखते ही पूछते, यह औरतों की छतरी किसकी है ? यह कैसे तुम्हारे हाथ में आयी ? ऐसे ढेर सारे सवाल। पिताजी से वह कभी झूठ नहीं बोला। वे तो सच्चाई के मूर्त रूप हैं।
सीधे मुहल्ले की तरफ गया। गली के छोर पर छतरी मरम्मत करने वाला एक ऐंची आँखोंवाला मुसलमान था।
मरम्मत के बाद अगले दिन लेने का वादा करके छतरी उसके हवाले कर घर का रास्ता लिया।
दूसरे दिन सुबह नौ बजे मरम्मत हुई छतरी लेकर रेल के मैदान में उसका इन्तजार करता हुआ वह खड़ा रहा।
उसके वहाँ पहुँचने पर छतरी की अदला-बदली हुई। श्रीधरन ने सकुचाते हुए पूछा, ‘‘आपका शुभ नाम ?’’
‘‘अम्मुकुट्टि।’’
‘‘क्या प्रशिक्षण-छात्रा हो ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘कहाँ रहती हैं आप ?’’
उसने जगह का नाम बताया।
उस घर के मालिक से कोई रिश्ता होगा ?
उनकी साली हूँ।

श्रीधरन ने स्मरण किया कि जिन्दगी में उन दोनों के बीच केवल इतनी सी बातचीत हुई थी।
एक अप्रत्याशित घटना ने फिर उनकी मुलाकात में अड़चन पैदा की....महीनों बाद उसके घर के सामने से कभी-कभी निकलता था। रास्ते में भी जब कभी उसे देखा-पर, न जाने क्यों कुछ वार्तालाप करने का साहस नहीं हुआ-शरम और भय के मारे। कोई जान ले तो ?
यों धीरे-धीरे अनजाने में ही अलग हो गये। लगभग भूल-सा ही गया।....फिर तीन बरस बीत गये। तभी उसके छोटे भाई ने उसकी वह नोटबुक दी थी....
इस दुनिया में वह क्यों जनमी थी ? ढेर सारी पुस्तकों का बोझ ढोकर प्रशिक्षण स्कूल जाने के लिए और छिपे–छिपे शोकाकुल गीतों का सर्जन कर रोने के लिए ही तो !

परलोक में बसने वाली उस लड़की के लिए श्रीधरन ने कई प्रेमगीत लिखकर आग में उनकी आहुति दी है। श्रीधरन ने अनुभव किया है कि अनश्वर प्रेम का क्या अर्थ है।
परलोक की तरफ उड़ गयी उस नन्ही कोकिला के निवास-स्थान पर ही दस हजार गैलन का एक बडा रिजर्वायर (पेट्रोल टैंक) उठ खड़ा हुआ है।
महज अम्मुक्कुट्टि ही नहीं, श्रीधऱन के कैशोर्य एवं वयःसन्धि की कई तरह से मेहमानी करनेवाले कई इनसान इधर अदृश्य हो गये हैं। अर्ध शती के पहले की उस जिन्दगी की सौंध और गरमी कुछ और ही थी। जिस देश में जन्म हुआ और जहाँ की मिट्टी में पला, उस देश के प्रति और वहाँ की जिन्दगी के नाटक में बखूबी अभिनय करने के बाद मृत्यु के पर्दे के पीछे जा छिपे इनसानों के प्रति अपने एहसानों का श्रीधरन ने स्मरण किया....उनकी कथा अपनी जिन्दगी की दास्तान भी होगी....

खण्ड : एक

एक रजिस्ट्री खत


अपने बड़े भाई एवं घराने के मुखिया श्री चेनक्कोत्तु केलुक्कुट्टि के सम्मुख वरिष्ठ उत्तराधिकारी चेनक्कोत्तु कृष्णन का सादर निवेदनः
मेरी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरी शादी की बात तय करके पिछले साल आपने ही मँगनी की रस्म पूरी की थी। लेकिन उस औरत को ब्याह कर घर लाने के लिए घराने के मुखिया होने के नाते आपने अभी तक कोई कार्रवाही नहीं की। अपनी बूढ़ी माँ और छोटे बच्चों की परवरिश का भार मेरी नाक में दम कर रहा है। विवाह के लिए कम से कम पचास रुपये खर्च करने की सख्त जरूरत है। चूँकि इतनी रकम मेरे पास नहीं है अतः घराने की परम्परा के अनुसार विवाह का इन्तजाम करने का दायित्व आप पर ही है। यदि आप अपना दायित्व पूरा नहीं करेंगे तो आज से पन्द्रह दिन बाद मैं उक्त रकम किसी और से उधार लेकर जरूरी कार्यवाही करूँगा। उस स्थिति में मुझे या सहूकार को उक्त रकम देने की जिम्मेदारी आपकी होगी। इस नोटिस के जरिए मैं आपको इस बात की सूचना देता हूँ।

तारीख, 21 फरवरी, 1912
भवदीय,
ह.चेनक्कोत्तु

कृष्णन मास्टर का चेनक्कोत्तु घराना उस पुराने शहर के मशहूर चार घरानों में से एक था।
कृष्णन मास्टर के स्वर्गीय पिता कुंजप्पु ब्रिटिश सरकारी सेवा में थे-एच. एस. कस्टम में एक चपरासी। उस जमाने में वह अच्छा पेशा माना जाता था। सरकारी मोहरवाली वर्दी, नियमित मासिक वेतन, असामियों में घूस लेने की सुविधा, जहाज द्वारा आयात होने वाले सामान में से थोड़ा हड़प लेने की छूट इस पेशे के मुख्य आकर्षण थे।
कुंजप्पु एक हट्टा-कट्टा, गोरा चिट्टा नौजवान था। कुंजप्पु की कुल-महिमा और व्यक्तित्व देखकर ही गोरे साहब ने उसे कस्टम के चौकीदार की नौकरी दी थी।

शराब की लत और औरतों के चक्कर ने कुंजप्पु का व्यक्तिगत जीवन एक दम असन्तुलित कर दिया था। खूबसूरत औरतें चाहे वे कन्याएँ हों, शादी-शुदा हों, विधवा हों या बुढ़िया हों-कुंजप्पु की काम पिपासा का शिकार होती थीं। उसके कुछ बदमाश साथी भी थे। उनसे मुठभेड़ करने का हौसला उस क्षेत्र में किसी को न था।
इसी बीच घराने में पारिवारिक झगड़े सिर उठाने लगे। कुंजप्पु के मन में आशंका उठने लगी कि स्वर्गीय दादा के बेटा और बेटी तथा काकाजी का बेटा एकजुट होकर उसे, पैतृक घराने का मुखिया होने के नाते, जहर पिलाकर मारने की साजिश कर रहे हैं। इस आशंका ने कुंजप्पु के जीवन को और भी कलुषित कर दिया। घर के भीतर और बाहर दुश्मन। कुंजप्पु खूनी शैतान में बदल गया।

लेकिन घर के जानी दुश्मन भाई-बहनों द्वारा जहर पिलाने से पहले ही एक दिन सुबह कुंजप्पु की लाश एक सुनसान जगह पर अन्धे कुएँ में दिखाई दी। किसी ने खूब शराब पिलाकर बेहोश करने के बाद उसे कुएँ में गिराकर मार डाला।
कुंजप्पु की अकाल मौत के बाद चेनक्कोत्तु घराने के मुखिया का पद कुंजप्पु के बड़े भाई के बेटे केलुक्कुट्टि को मिला।
केलुक्कुट्टि की एक बदसूरत जेठी कुमारी बहन थी। नाम था कुंकी। दरअसल घराने की शासन की बागडोर कुंकी के हाथ में थी। कुंकी के कई बदमाश आशिक थे। उसके साथियों ने ही कुंजप्पु को शराब पिलाकर बेहोश करने के बाद उसे कुएँ में फेंक दिया था।
अपने पिता की मृत्यु के बाद कृष्णन मास्टर ने महसूस किया कि उनका घर दुश्मनों का अड्डा बन गया है। शान्त, नेक और ईमानदार व्यक्ति होने के नाते मास्टर ने सब कुछ बरदाश्त कर नौ बरस वहाँ काटे। इस बीच उसने शादी की और दो-तीन संतानें भी हो गयीं।

उस पैतृक घर में रहना खतरे से खाली नहीं था। उसे लगा, पिता के लिए लाया जहर बेटे को पिलाया जायगा। तीन-चार साल पहले से ही कृष्णन मास्टर ने अपने परिवार का चूल्हा अलग कर लिया था और खाना पीना भी।
कृष्णन मास्टर अपनी माँ, पत्नी और बच्चों के साथ घराने के एक अलग अहातेवाले घर में रहने लगा।

दो साल गुजर जाने पर कृष्णन मास्टर ने घराने के मुखिया केलुक्कुट्टि के नाम इस तरह का एक रजिस्ट्री नोटिस भेजा।
‘‘‘आप लगभग बारह वर्षों से हमारे घराने का कार्य भार सँभाल रहे हैं। हमारे इस संयुक्त परिवार की दो शाखाओं में से एक का सदस्य होने के नाते मैं तथा इस शाखा के अन्य सदस्य जिन सुविधाओं के अधिकारी हैं, अभी तक आपने हम सबको वंचित रखा है। घराने की सारी आय आप व आपकी शाखा के अन्य सदस्य लूट रहे हैं जमीन-कर अदा किये बिना, चल सम्पत्ति बेचकर बाग के फल-वृक्षों को तबाह करके और कुछ कार्यवाहियाँ अपनी मर्जी से रद्द करके आप हम लोगों की आँखों में धूल झोंकने की कोशिश करते आये हैं। इस तरह घराने की सम्पत्ति नष्ट होने लगी है। मेरे पिता के बीमार पड़ने के बाद आपने मुझे बहुत कष्ट दिया। कई बार मार-पीट कर घायल भी किया। आप जानते ही हैं कि एक अभ्यस्त शराबी होने के नाते आप किसी न किसी चाल से मेरी हत्या करेंगे ही। इसलिए मैंने अपना चूल्हा अलग जलाना शुरू किया। इसलिए इस नोटिस द्वारा आपको सूचित किया जाता है कि आज से चौथे दिन तक मुझे व मेरी शाखा के अन्य सदस्यों को घराने के जो लाभांश मिलते हैं, वे अदा किए जाएँ। नहीं तो आपके विरुद्ध मुकदमा दायर किया जाएगा और उससे जो नुकसान उठाना पड़ेगा उसके लिए आप जिम्मेदार होंगे। इस नोटिस के जरिए ये सब बातें सूचित की जाती हैं। इससे पहले रजिस्ट्री नोटिस भेजा गया था, वह आपको याद होगा ही।

यह रजिस्ट्री नोटिस आपके छोटे भाई चात्तुक्कोट्टि तथा आपकी शाखा के अन्तर्गत सभी सदस्यों को भी दिखाया जाना चाहिए।
घराने के बँटवारे की धमकी देनेवाला यह पत्र घराने के मुखिया केलुक्कुट्टि को जरा भी विचलित करने में कामयाब नहीं हुआ। उनकी प्रतिक्रिया सिर्फ यह थी, ‘‘उससे कह दो कि मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक ही है।’’ अपने रजिस्ट्री नोटिस के विषय में घराने के मुखिया से कृष्णन् मास्टर को यही उत्तर नाई रामन द्वारा मिला।
कृष्णन मास्टर मुकदमा दायर करने नहीं गया। सब्र से इन्तजार करता रहा। दो साल और गुजर गये। कृष्णन मास्टर की एक और सन्तान-लड़की पैदा हुई। किन्तु वह छ महीने से अधिक जिन्दा न रही। इस दुर्घटना के महीनों बाद उसकी पत्नी विष-ज्वर से पीड़ित होकर चल बसी।
बूढ़ी माँ और छोटे बीमार लड़के की देख-रेख के लिए घर में एक औरत की सख्त जरूरत थी। इसलिए कृष्णन् मास्टर ने दोबारा विवाह करने का निश्चय किया। यह जरूरी और न्यायोचित कार्य सम्पन्न करने के लिए घराने के मुखिया को बिना किसी हिचक से पूरी मदद करनी चाहिए थी। लेकिन उन्होंने जहर पिलाने की बात में जो दिलचस्पी दिखायी थी वह अपने भानजे के पुनर्विवाह के मामले में नहीं दिखायी। शायद शादी के खर्च के बारे में सोचकर। यह सब समझ लेने के कारण ही कृष्णन मास्टर ने अपनी जरूरतों और अधिकारों की याद दिलाते हुए घराने के मुखिया के नाम वह रजिस्ट्री खत भेजा था।




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