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परिन्दे का इन्तजार सा कुछ

नीलाक्षी सिंह

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1351
आईएसबीएन :81-263-1179-7

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानियों का संग्रह....

parinde ka intzar sa kuchh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


समकालीन युवा रचनाकारों में नीलाक्षी सिंह ने अपने कहानी लेखन के माध्यम से विशिष्ट पहचान बनायी  है। वर्तमान जीवन-संघर्ष और चुनौतियों को वे कुछ इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि कहानी पढ़ चुकने पर पाठक को लगता है जैसे वह किसी सम्मोहन से होकर निकला हो।

 ‘परिन्दे का इन्तज़ार-सा कुछ’ की कहानियाँ भारतीय समाज के यथार्थ और उसमें उपस्थित संकटों, अन्तर्विरोधों तथा प्रश्नों से बार-बार टकराती हैं। साम्प्रदायिकता, भूमण्डलीकरण, पुरुष-वर्चस्व सरीखी दमनकारी सत्ताओं का प्रतिपक्ष बनकर उभरती हैं, ये कहानियाँ। वर्तमान स्थितियों के विभिन्न रूपों के साथ इनमें नयी भाषा और मुहावरा तलाशने की कोशिश है जो आज की वैश्विक स्तर की जटिलताओं अनुभूतियों से युक्त है। इस तरह कथ्य और कला की जुगलबंदी नीलाक्षी की रचना को एक दीप्ति देती है।

इस युग में निरन्तर क्षरण हो रहे जीवन मूल्यों को बचाने की कोशिश में कुछ युवा लेखक सतत प्रयत्नशील है। नीलाक्षी सिंह उसी श्रृंखला की एक कड़ी हैं-एक भरोसा।
आशा है पाठक युवा कथाकार की इस पहली कृति का भरपूर स्वागत करेंगे।

प्रतियोगी


बात शुरू होती है पाकड़पुर सदर की चिल्लागंज चौमुहानी से। एक रास्ता जगदम्बा पुल की ओर से होता हुआ सरपट भागा आता था। वहाँ-जहाँ से दो रास्ते दायें-बायें फूटते थे। उस जगह ठिठककर फिर वह रास्ता नाक की सीध में आगे बढ़ जाता था। साल रहा उन्नीस सौ चौरानबे। चौमुहानी से सटे दाहिने (यदि जगदम्बा पुल वाले सरपट रास्ते से आये तो), गाँधी बाबा के तीन बन्दरों की तर्ज पर तीन बेचनहार बैठते थे। जाड़े के दिनों में आप उन्हें देखें, तो बन्दरों वाली बात बस बात नहीं लगेगी, सत्य प्रतीत होगी। अन्तर बस आप यही ढूंढ पाएँगे इन तीनों में से बन्दर एक है बाकी दो बन्दरियाँ हुईं। तीनों में से पहला मोटा, खदबदा मफलर लपेट कर दोनों कानों को मूँदे रहेगा, तीनों में से दूसरा मतलब दूसरी, फूलदार लाल शॉल को नाक के ठीक नीचे से मुँह लपेटकर मुँह मूँदे बैठी रहेगी और तीनों में से तीसरी, काली शॉल को आँखों के ऊपर ऐसे लपेटकर ओढ़ेगी कि आँखों से उसे तो दिखाई देगा, पर वे आपको मुँदी प्रतीक होंगी।

मफलर वाले छक्कन प्रसाद। छक्कन प्रसाद के अतीत से एक विचित्र किस्सा जुड़ा था, जो उसके वर्तमान चित्र पर रोशनी डालता था। कभी छक्कन प्रसाद की मूँछें दोनों कोरों पर पहुँचकर, ऊपर की ओर बढ़ी हुआ करती थीं। डेढ़ इंच ऊपर तक वे बेबाध बढ़ गयी थीं। दसेक साल हुए, आम चुनावों का मौसम था। छक्कन प्रसाद दिल से ये चाहते थे और दिमाग से ये महसूसते थे कि पकड़पुर सदर से ‘पंजा’ ही निकले। उन्होंने स्वयं भी जुलूसों में और भाषण-सभाओं में अपनी हैसियत भर सक्रियता दिखाई। जोश था और विश्वास भी। तभी, उन्हीं के समान जोश और प्रतिकूल विश्वास वाले किसी मसखरे से चुनाव परिणाम की अचकलों को लेकर उनकी भिड़न्त हो गयी। मसखरे के नाम को तो वक्त की गर्द ने दाब दिया। लिहाजा अब उसका नाम किसी को याद नहीं। पर उसकी शर्त का काल कुछ न बिगाड़ सका। शर्त थी ही कद्दावर- ‘पंजा’ जीतता तो मसखरा सिर मुड़ाता और यदि ‘पंजा’ हारता तो छक्कन प्रसाद के एक हिस्से की आग्रगामी मूँछ पर ओले पड़ते।

मतलब छक्कन प्रसाद की एक तरफ की मूँछ तो यथावत रहती, दूसरी तरफ की मूँछ के ऊपर की ओर बढ़े हिस्से का सफाया उन्हें करना होता। छक्कन प्रसाद अड़ गये। चुनाव परिणाम आये तो लेने के देने पड़ गये। ’पंजा’ गया कबाड़ में। मूँछ गयी भाड़ में। छक्कन प्रसाद थे। उसूल के तपे हुए शर्त पूरी की। न सिर्फ तभी, बल्कि आज तक वे उसी विचित्रता को लिये, सिर उठाकर जिये चले जा रहे थे। वे जुबान से हारे जरूर, लेकिन कर्म से जीत गये। इसलिए सनाम उनका किस्सा कस्बे भर की जुबान पर लगा था, आज तक। छक्कन प्रसाद चिल्लागंज की उसी चौमुहानी पर आग उगलने वाले दो मुँहें चूल्हे के आगे पालथी मारकर बैठते थे। चूल्हे के एक मुँह पर चढ़ी रहती, एक बड़ी सफेद कड़ाही। दूसरे पर चढ़ती लोहे की काली कड़ाही। पहली वाली में डालडा खलबलाता रहता और उसमें मैदे के घोल की छोटी-छोटी भूलभूलइयाँ सिंकती रहतीं। दूसरी में चाशनी तपती रहती। पहली कड़ाही से निकाली चीजें, दूसरी में डाली जातीं और उससे निकलने के बाद वे कहलातीं जलेबियाँ। हालाँकि वहाँ आनेवाले ग्राहकों में से तैंतीस प्रतिशत, जिसमें महिलाओं और बच्चों की संख्या भारी थी, ऐसे भी थे जो उन्हें ‘जलबेली’ नाम से जानते थे।      
      
फूलदार लाल शॉल वाली जो रही, वह थी दुलारी।  दुलारी थी, छक्कन प्रासाद की पत्नी बाद में। उसके सामने वाले चूल्हे पर भी काली कड़ाही चढ़ती थी। लेकिन उसमें तीसी का तेल कड़कता और फिर खिसारी की दाल की छोटी-छोटी गोलियाँ कुरकुरी होने तक सिंकती जातीं। भरपूर लालमिर्च, अदरक और लहसुन वाली ये नमकीन चटपटी चीज, वहाँ आने वाले तमाम ग्राहकों में कचरी के नाम से विख्यात थी। दुलारी का हिसाब कच्चा और बेहद गिटपिटा सा था। लेकिन ग्राहकों के सामने वह ऐसी मजबूत तनी बैठी रहती कि उसके अक्रामक गेटअप को देखकर  ग्राहकों के लिए यह थाह लगाना असम्भव-सा था कि इसे आसानी से और कसकर ठगा जा सकता है। लोग इस मुश्किल अनुमान को अक्सर लगाना चाहते थे कि छक्कन प्रसाद और दुलारी जैसे दो दृढ़-प्रतिज्ञ और गैर-लचीले व्यक्तियों का पिछले सोलह-सत्रह साल से साथ बना है कैसे रह पाया है ! दो उँगलियाँ एक अँगूठी में रह सकती हैं ! दोनों पहले से खींची लकीर के फकीर नहीं थे इन्होंने अपने लिए लकींरे खींची पहले, तब उस पर फकीरई की। फिर भी न सिर्फ दोनों की गृहस्थी आबाद थी, बल्कि धन्धा भी आबाद था। कारण ? दुलारी को रुपये-पैसे का हिसाब चाहे जितना कच्चा हो, आपसी रिश्ते में प्यार और सम्मान के अनुपात का हिसाब उनका उतना ही पक्का था, जितना छक्कन प्रसाद का। छक्कन प्रसाद और दुलारी कभी-कभी अपने-अपने आसनों की अदला-बदली भी किया करते थे। काम की एकरसता भंग होती और स्वाद बना रहता। हालाँकि ये अन्दर की बात थी कि निहायत सेंसेटिव पलों में दुलारी इक्कीस पड़ जाती और छक्कन प्रसाद स्वेच्छा से दब जाते। दुलारी का इतिहास था ही ऐसा प्रचण्ड।

दुलारी, उम्र छत्तीस साल, की स्वर्गीया माँ भी पाकड़पुर सदर के चिल्लागंज की इसी ऐतिहासिक चौमुहानी तक तरकारियाँ बेचा करती थी। अँग्रेजी राज था। वह किंवदन्नी, लोककथा और इतिहास, तीनों सरहदों को एक साथ नाप चुका किस्सा कुछ इस प्रकार था- बिहुली देवी एक शाम तरकारियाँ सजाये इसी अड्डे पर बैठी थीं। तभी कोई गोरा साहब पहुँचा वहाँ छड़ी घुमाता। उसने छड़ी से टोकरी की तरकारियाँ उकेरनी शुरू कर दीं। वह साहब सम्भवतः टोकरी के सर्वोत्तम माल की तलाश में था। बाँकुरी बहुली देवी ने उसकी छड़ी की नोक पकड़ ली। एक साँस में सारी तरकारियों के दाम गिनाये और अपनी औकात लायक अँग्रेजी में और साहब की सँभाल लायक हिन्दुस्तानी में जोड़ा,  ‘‘टेक बे तऽऽ टेक न त गोऽ !’’ गोरा साहब हतप्रद बक्क.....ठकमकाता हुआ चला वहाँ से, बिना कुछ ‘टेके।’ दुलारी इन्हीं वीरांगना की आठवीं और अन्तिम सन्तान रही। कथा-तत्त्व के स्थान सम्बन्धी सूत्र से स्पष्ट है कि दुलारी का मायका यही कस्बा था। छक्कन प्रसाद ही आयातित चीज थे। ज्यादा दूर से नहीं,बस नदी पार के गाँव से लाये गये थे। ये पूरा क्षेत्र एक ही कस्टम यूनियन में आता था। इसलिए उनके आने पर कोई आयात शुल्क नहीं लगा था। छक्कन प्रसाद ब्याह के फौरन बाद यहाँ आकर बस चुके थे। कारण कि बाँकुरी बिहुली देवी की पहली की सातों सन्तानें मैदान छोड़कर भाग चुकी थीं। ऊपर।

छक्कन प्रसाद और दुलारी के चक्कर में बात के आरम्भ से ही काली शॉल वाली जिस तीसरी को हम चिल्लागंज चौमुहानी पर छोड़ आये हैं, उसका अपना कोई नाम न था। जमाने पहले, वह ब्याह कर यहाँ आयी थी और ब्याह के इने-गिने दिन बाद ही इसके पति के दिन पूरे हो गये थे। तभी जमाने ने एक विशेषण विशेष की व्यक्तिवाचक संज्ञा में रूपान्तरण कर दिया था और तीसरी का नाम पड़ गया- मुसमातिन। तब से क्या बच्चे, क्या सयाने सबमें यही नाम चल निकला। मुसमातिन की ननदें फौज भर थीं, देवर एक था-उसके ब्याह के एक-आध महीने  पहले का जन्मा। सास ने मुसमातिन की गोद में उसी बच्चे को डाल दिया। मुसमातिन ने उसे पोसा। फिलहाल स्थिति ये बनती थी कि वह देवर तीन पुश्तों तक अपनी जड़ें फैला चुका था। मुसमातिन उसके द्वारा और उसके बेटों के द्वारा धकियाकर घर से बाहर निकाल दी गयी थी कि उस देवर के पोते हाथ-पैर चलाने लायक तो हो चुके थे लेकिन लक्ष्य होगा कौन, ये निर्धारित करना अभी नहीं सीख पाये थे। वरना मुसमातिन तो तीन पुश्तों की सम्मिलित ताकत झेलनी पड़ जाती। तो इस मुसमातिन के पास भी चौमुहानी पर एक चूल्हा था। जिस पर चढी़ कड़ाही के खौलते तेल में बेशन की लिपटी प्याज की चपटी-चपटी बड़ियाँ तली जाती थीं-प्याज की पकौड़ियाँ, जिसे वहाँ आने वाले ग्राहकों में से नब्बे प्रतिशत ‘पिअजुआ’ कहते थे।

अलस्सुबह से ये जलेबी, कचरी और पिअजुआ मिलकर ऐसा समा बाँते कि चिल्लागंज चौमुहानी से बिना पैसा खर्च किये बचकर निकल जाना मुश्किल पड़ जाता। इन तीनों का अपने व्यवसाय में यहाँ एकाधिकार था और तीनों के तीनों प्रतियोगीविहीन थे। जो भी ग्राहक आता वह एक को खरीदकर बाकी दो की दो को खरीदकर बेचारे एक की अनदेखी न कर पाता और ये तीनों मिलकर अहिंसा से उसे लूट लेते। अब होता ये रोज वहाँ, कि दुलारी अपने बोरे के नीचे भरी हुई पुरानी काँपियाँ दबाकर बैठती थी और माँग के अनुसार छक्कन प्रसाद और मुसमातिन को पन्नों की पूर्ति कराती जाती। रैट, कैट, फैट, जोड़-गुणा की करामातों से भरे, चाशानी और तेल से सने पन्ने चारों ओर मस्ती से दिन भर उड़ा करते। कॉपी के पन्नों के इस खेल में छक्कन प्रसाद और दुलारी देवी के बाल-गोपाल-टिंकू, पिंटू, मिंटू और रिंकू की चाँदी थी। वे धड़ाका स्पीड से सादी कॉपियाँ भरते। तिसपर भी पुरौती न होती, तो छक्कन प्रसाद कबाड़ी से कॉपियाँ खरीदते और दुलारी रोज शाम मुसमातिन से पन्नों की एवज में दो रुपइया वसूलती।

टिंकू, पिंटू, मिंटू, रिंकू जब पढ़ने बैठते, तो छक्कन प्रसाद और दुलारी-दोनों के कलेजे जुडा जाते।  छक्कन प्रसाद बस सीधा कामचलाऊ हिसाब-किताब जानते थे। उनकी शैक्षणिक पृष्ठभूमि से भी एक हिस्सा जुड़ा था। उनके कैरियर का सबसे दिलचस्प और खतरनाक मोड़। छक्कन प्रसाद के बाबूजी थे पहलवान तबीयत के आदमी। गाँव की नहर से लेकर जगदलपुर थाने तक पाँच कोस दौड़ते जाते थे रोज सुबह। मिले तो, छह-सात किलो दूध एक साँस में गटक सकते थे। हाँलाकि ऐसा सुयोग उनका कभी बना नहीं। नाक पर गुस्सा चौकन्ना रहता। मतलब कुल मिलाकर ये कि कोई उनसे भिड़ना चाहता न था। छक्कन बाबू भी बचपन से मनबढ़ू थे। भर गाँव में एक ही साक्षर कलवार मास्टर बाबू थे। देश आजाद हुए बमुश्किल एक दशक बीता था। वे अपने गोतिया-नइया के बच्चों का अक्षरों के साक्षात्कार करवाकर, समाज-सुधार के किस्म का कुछ करना चाह रहे थे। पर बच्चे क्या थे, छुट्टा बनैले थे। बिना छड़ी के अक्षर लोक में प्रवेश करना तो दूर, सही से बैठ भी न पाते थे। तीसरा न चौथा ही दिन रहा होगा, उद्दण्ड छक्कन प्रसाद को काबू में करने के लिए मास्टर बाबू ने उनके सामने की जमीन पर दो मर्तबा सटासट छड़ी बजायी। तीसरी बार वेग से उठी छड़ी जमीन पर प़डती ही कि छक्कन प्रसाद ने मन्तर मारकर उसे रास्ते में ही रोक दिया। दूसरे बच्चे भी छँटे बदमाश थे, गुरूजी की छड़ी को बीच रास्ते पकड़ना उनके शौर्य के बूते का न था। मास्टर बाबू की कहानी खत्म नहीं हुई। उनको और भी बुरे दिन देखना लिखा था।

पहलवान पिता ने जब यह सुना, तो क्रोध से करिया गये। जाहिर है क्रोध का कारण यह नहीं था कि छक्कन प्रसाद ने मास्टर की छडी़ पकड़ी, बल्कि यह था कि मास्टर बाबू ने पहलवान-पुत्र पर प्रहार का प्रयास किया। सच कि झूठ पता नहीं, लेकिन कहते हैं कि पहलवान-प्रकोप से मास्टर बाबू को आगे की मास्टरी अपने ममहर जाकर करनी पड़ी। बाद में बड़े होने पर, शादी-वादी के बाद सम्भवताः, छक्कन प्रसाद ने काम के लायक हिसाब सीखा। और दुलारी देवी ! उनकी तो बड़ी मार्मिक दास्तान है। बकौल उनके, उनको पढ़ाई कभी धारती ही न थी। पहली बार उन्होंने सिलेट छुआ, तो जिसकी पीठ पर की वे पैदाइश थीं। वही, उनसे बड़ा वाला भाई चल बसा, दूसरी बार जब सिलेट देखा, तो पिता जाते रहे। बस उनके बाद जो दोनों में छत्तीस का रिश्ता हुआ तो दुलारी देवी मौखिक जोड़-घटाव भी व सीख पायीं। अब तो खैर कचरियों का रेट चवन्नी से बढ़कर अट्ठनी हो चुका था और हिसाबों का रेंज अपेक्षाकृत कम हो गया था।

पर पहले जब इनका दाम चार आने था, तब हाल ये था कि सिनेमावाला दस रुपइया दे और पौने सात का सौदा हो तो, उसे लौटाया जाएगा क्या, ये सिखाने के लिए छक्कन प्रसाद दुलारी देवी पर भिड़े रहते। लेकिन वो कोई रिस्क न लेतीं और ऐन मौके पर छक्कन प्रसाद की ओर इशारा करके ग्राहक को सख्ती से बोल देतीं, हुनके दे देम....बस ! ऐसे में बच्चे चारों पढ़ जाएँ हिसाब-किताब, ये बड़ी ख्वाहिश थी अनपड़ माँ-बाप की। हो भी ऐसी ही रहा था। सरकारी स्कूल में टिंकू, पिंटू, रिंकू, क्रम से चार कक्षाओं में पढ़ रहे थे। तीन बेटों के बाद हुई तेतरी बेटी, अन्य तेतरी बेटियों की तरह ही साक्षात लक्ष्मी माता का वरदान थी, माँ-बाप को। उसके जन्म के साल ही स्वर्गीया बिहुली देवी की झोंपड़ी, जो इकलौती जीवित वारिस होने के कारण दुलारी को मिल गयी थी, को ईंट-माटी का सहारा देकर थोड़े ढंग का ठौर बना लिया था उन्होंने। अब तो तीनों बेटे थोड़ा-बहुत पढ़-लिखकर धन्धा सँभाल लें। फिर किस बात की फिकर थी ?

सुख से दिन निकल रहे थे, आगे भी निकलेंगे.. ऐसा सोच रही थी दुलारी। छक्कन प्रसाद भी ऐसा ही सोच रहे थे। पर आज आप जो सोचते हैं, कल भी वही सोचते रहें.....वही सोचते चले जाएँ,.....जरूरी है क्या ?
एक सफेद दाढी़ वाला बूढा जादूगर था। वह अपने सामने पड़नेवालों के मन को जिस्म से अलग कर देता और उनके मन को अपनी तलहथी पर धर लेता।  तब उस मन पर सिर्फ तलहथी का वश रह जाता। मन उछलकर उधर ही गिरता, जिधर तलहथी उसे उछालकर गिराना चाहती थी। इस मायावी बूढ़े जादूगर का संसारी नाम था-बाजार। तो देश के अन्य कस्बों की तरह ही पाकड़पुर सदर की ओर भी जब बाजार ने रुख किया, तो कस्बे में हड़कम्प मच गया। वह आ रहा है...वह आ रहा है....बाजार आ गया है.....लोग बदहवास भागने लगे। इस देश के इतिहास में एक शक्तिशाली विदेशी आक्रमणकारी के आने पर पहले से बसे लोग जैसे जान-जी लेकर भागा करते थे, वैसे ही भागते जाते थे ये भी। लेकिन इस लुटेरे ने भागते लोगों का पीछा नहीं किया। ये मोहिनी मन्तर में माहिर बूढ़ा, एक जगह जम गया और इसने बीन बजानी शुरू कर दी। लोग देशी साँपों की मानिन्द, जुटे या बच्चों को सुनाई जाने वाली एक प्रसिद्ध विदेशी कथा के चूहों की मानिन्द इसका कोई मतलब नहीं। बस यही अहम है कि लोग जुटे उसके गिर्द और फिर मन को अलग करके तलहथी पर धरने और उछालने का कार्यक्रम शुरू हुआ। बूढ़े के गिर्द भीड़ लगाने वालों में बाबू छक्कन प्रसाद भी एक हुए। उनका मन भी बूढ़े की गदबदी तलहथी पर फुदक-फुदक उछलने लगा और वे सोचने लगे..वो नहीं जो अब तक सोचा करते थे....उससे अलग....बहुत अलग कुछ....सोच की प्रस्तावना इस मार्मिक बिन्दु से आरम्भ होती थी कि मैं पैदा हुआ छक्कन प्रसाद बनकर...जिये जा रहा हूँ छक्कन प्रसाद बनकर... क्या मरूँगा भी छक्कन प्रसाद बनकर ही ?

 मेरी जरूरतों.... इच्छाओं का घेरा कभी बढ़ेगा नहीं क्या ? बढ़ा भी तो क्या तब मैं अपनी आत्मा की चाह को तृप्त कर पाऊँगा.....टिंकू, पिंटू, मिंटू....सबके आगे दो-दो कड़ाही और बायीं तरफ एक कड़ाही वाली घरवालियाँ...यही भविष्य का चित्र सजेगा ? रिंकू की विशेष फिक्र न थी। वह तो कटकर अलग होने के लिए ही पैदा हुई थी। अपने हाथ की चीज वह नहीं थी लेकिन जो थे वे उनका क्या ? एक सड़क छाप हलवाई के बेटों के भाग्य, उसी की किस्मत की फोटो प्रति क्यों हो ? जब फकीरई ही करनी है, तो एक ढंग की लकीर खींची जाए। बेढ़ंगी लकीर पर धूनी रमाने से ? लेकिन एक मामूली इनसान किस्मत से होड़ सकता है क्या ? छक्कन प्रसादई ही अगर किस्मत में लिखी हो तब ! हें ? बिना कर्म किए आपके लिए सुरक्षित रखा फल भी कभी मिला है क्या ? कर्म कैसा ? क्या किया जा सकता है...? छक्कन प्रसाद रूँआसे हो गये। उन्होंने छटपटाकर चादर फेंक दी और बिस्तर पर उठ बैठे। यही महाभिनिष्क्रिमण की घड़ी थी, उन्हें लगा। उन्होंने बायीं तरफ मुड़कर देखा, दुलारी खर्राटे खींचती थी। गरदन घुमारकर उन्होंने देखा, चारों बच्चे छितराये पड़े थे। वे ज्ञान की तलाश में तत्क्षण गृहत्याग कर सकते थे, पर सिद्धार्थ की तरह उनके मार्ग की बाधा यशोधरा और राहुल का दोतरफा आकर्षण मात्र नहीं था। छक्कन प्रसाद तो पाँच प्रणियों के पंचतरफा से बिंधे पड़े थे। वे वापस बिस्तर पर पटा जरूर गये, लेकिन दिमाग उनका दौड़ता रहा...इस अठन्नी, चवन्नी...के दलदल से निकलकर मैं संसार की आकर्षण चीजों का आनन्द उठा पाऊँगा क्या ? खोजने से भगवान भी मिल जाते हैं, उन्हें तो बस जवाब चाहिये था। अदना-सा ज्ञान।

तो विक्रम संवत् दो हजार इक्यावन, वैशाख अमावस्या की रात छक्कन प्रसाद को दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई। उनके मन में उठने वाले तमाम नैराश्य भाव से सने प्रश्नों का उत्तर था ‘‘नहीं’’ और आशा झलकाते सवालों का जवाब हुआ ‘‘हाँ’’। जिन्दगी का एक नया मकसद पा चुके थे छक्कन प्रसाद और ज्ञान प्राप्ति के अगले ही दिन उन्होंने चिल्लागंज चौमुहानी पर एक स्मरण घोषणा की। घोषणा के शुरू के तीन शब्द थे- अलविदा, कचरी जलेबी ! घोषणा में आगे ये था कि वे अपनी संचित जमा पूँजी से बृहत् पैमाने पर हलवाईगिरी करेंगे और बनेंगे क्या.....समोसे लालजामुन, कचौडियाँ...पत्ते के प्लेटों में बिकने वाले पकवान। जिस संचित जमा-पूँजी का जिक्र घोषणा में आया था, उसका दो तिहाई हिस्सा उनके पिता की कमाई का था। हुआ यों था कि उनके पहलवान पिता सचमुच दुनिया में खाली हाथ आये थे। बड़ी खस्ताहाली के दिन थे। रोज कमाओ, तब खाओ वाली बात थी। धीरे-धीरे-धीरे सबकुछ पटरी पर आया। पहलवान पिता जब सयाने हुए तो जमींदार के बगीचे की देखभाल करने लगे, माली हालत ऊँची होती गयी।

 इसमें आय से ज्यादा व्यय का योग था क्योंकि रुपइया खरचने में वे अद्भुत चिल्लर जीव थे। उनके बारे में सुना जाता था कि वे अपनी मैल तो क्या, बुखार तक दूसरे को नहीं दे सकते थे, हाथ बढ़ाकर। खाली हाथ जन्मा पहलवान जब जाने लगा, तो दो गाय, एक भैंस, कुछ बकरियाँ ठीक-ठीक कामचलाऊ घर, परती जमीन और तीन बेटे छोड़ गया। छक्कन प्रसाद इनमें से एक थे। वे अपने हिस्से में पड़ी चीजें बेच आये। दुलारी ने उन पैसों को एकदम अलग रखवा दिया और अपने साथ-साथ छक्कन प्रसाद को भी उन्हें किसी ऐरे-गैर प्रयोजन हेतु न छूने की कसम खिलवा दी। हालाँकि उनकी ताजी घोषणा ऐरी-गैरी न थी, लेकिन दुलारी ने सुना तो भौंह चढ़ा लिये-कहो तो ? जब गाड़ी खिंच ही रही हो ट्यूनिंग से, तो जमा-जमाया काम छोड़कर दूसरी अनजानी चीज में हाथ धरने की बात, उसके गले तक गयी और वापस मुँह के रास्ते बाहर उगला गयी। छक्कन प्रसाद ने भाँति-भाँति से उसे प्रबोधा। अपने विचार मन्थन से मथ-मथकर प्राप्त कुछ मोती हाजिर किये लेकिन दुलारी उगले हुए को फिर से निगलने को तैयार न थी। तब बाजार नाम के बूढ़े जादूगर की तलहथी पर उकड़ू सवार प्रसाद, उछलकर साझे के धन्धे से अलग हो गये। फलतः कचरी और जलेबी व्यवसाय की पूरी गद्दी दुलारी को मिली, चौमुहानी की दायीं तरफ और छक्कन प्रसाद ने नया स्वत्रन्त्र व्यवसाय शुरू किया, चौमुहानी की बायीं तरफ। दाँव-पेंच के विरासत में प्राप्त गुण सुगबुगा उठे


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