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लोक: परम्परा, पहचान एवं प्रवाह

श्याम सुंदर दुबे

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :119
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13530
आईएसबीएन :8171198120

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लेखक ने जातीय स्मृति की पुनर्नवता पर गहराई से विचार किया है

भारतीयता को आकार देने में लोक-संस्कृति की भूमिका केंद्रीय कारक की तरह रही है। भारतीयता के जो समन्वयमूलक शाश्वत जीवन-मूल्य हैं, वे लोक-संस्कृति की ही उपज हैं। प्रकृति और मनुष्य के आंतरिक रिश्तों पर आधारित लोक-संस्कृति पर्यावरण के प्रति अधिक सक्रिय और अधिक सचेष्ट विधायिनी रचना को संभव करती है। वह अपने वैविध्य में पर्यावरण की सुरक्षा और उसकी गतिशीलता की भी प्रेरक है। लोक-संस्कृति के एक सबल पक्ष लोक-साहित्य की गहरी समझ रखनेवाले डॉ. श्यामसुंदर दुबे की यह कृति लोक-साहित्य में निहित लोक-संस्कृति की पहचान और परंपरा को विस्तार से विवेचित करती है। लोक-साहित्य के प्रमुख अंग लोकगीत, लोक-नाते, लोक-कथाओं को लेखक ने अपने विश्लेषण का आधार-विषय बनाया है। लोक की प्रसरणशीलता और लोक की भूभौतिक व्यापकता में अन्तर्निहित सामाजिक सूत्र-चेतना को इन कला-माध्यमों में तलाशते हुए लेखक ने जातीय स्मृति की पुनर्नवता पर गहराई से विचार किया है। आधुनिकता के बढ़ते दबावों से उत्पन्न खतरों की ओर भी इस कृति में ध्यानाकर्षण है। अपनी विकसित प्रोद्योगिकी और अपने तमाम आधुनिक विकास को लोक-जीवन के विभिन्न संदर्भो से सावधानीपूर्वक समरस करनेवाली कला-अवधारणा की खोज और उसके प्रयोग पर विचार करने के लिए यह कृति एक नया परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करती है। दृश्य और श्रव्य कला-माध्यमों द्वारा इधर सौन्दर्यबोध की जो नई प्रणालियाँ आविष्कृत हो रही है, इनमे एक अनुकरण-प्रधान उप्रंगी संस्कृति की और हमारे समूचे लोक को बलात खींचा जा रहा है। लेखक ने प्रस्तुत कृति में लोक की इस व्यावसायिक प्रयोजनीयता और उसके इस विकृत प्रयोग को कला-क्ष्रेत्र में अनावश्यक हस्तक्षेप माना है। यह हस्तक्षेप हमारी सांस्कृतिक पहचान पर दूरगामी घातक प्रभाव डाल सकता है। लोक के समाजशास्त्रीय मंतव्यों और लोक की मनः-सौन्दर्यात्मक छवियों को अपने कलेवर में समेटनेवाली यह कृति लोक-साहित्य की कुछ अंशों में जड़ और स्थापित होती अध्ययन-प्रणाली को तोड़ेगी और लोक के विषय में कुछ नई चिंताएं जगाएगी।

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