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उपन्यास >> माँ

माँ

मैक्सिम गोर्की

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :124
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13535
आईएसबीएन :9788183613637

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क्रान्ति की लौ को उजास देनेवाली एक माँ की महागाथा

लोहे के ढेर पर से उतरकर पावेल माँ के पास आ गया। भीड़ बौखला उठी थी। हर आदमी उत्तेजित होकर चिल्ला रहा था और बहस कर रहा था। ‘‘तुम कभी भी हड़ताल नहीं करा सकते,’’ राइबिन ने पावेल के पास आकर कहा, ‘‘ये कायर और लोभी लोग हैं। तीन सौ से ज़्यादा मज़दूर तुम्हारा साथ नहीं देंगे। अभी इनमें बहुत काम करने की ज़रूरत है।’’ पावेल ख़ामोश था। भारी भीड़ उसके सामने खड़ी थी और उससे जाने कैसी-कैसी माँग कर रही थी। वह आतंकित हो उठा। उसे लगा कि उसके शब्दों का कोई भी प्रभाव शेष नहीं रह गया था। वह घर की ओर लौटा तो बेहद थका और पराजित महसूस कर रहा था। माँ और सिम्मोव उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। राइबिन उसके साथ-साथ चलते हुए कह रहा था, ‘‘तुम बहुत अच्छा बोलते हो, लेकिन मर्म को नहीं छूते। यहाँ तर्कों से काम चलनेवाला नहीं, दिलों में आग लगाने की ज़रूरत है।’’ सिम्मोव माँ से कह रहा था, ‘‘हमारा अब मर जाना ही बेहतर है, पेलागिया ! अब तो नई तरह के जवान आ गए हैं। हमारी और तुम्हारी कैसी ज़िन्दगी थी। मालिकों के सामने रेंगना और सिर पटकना। लेकिन आज देखा तुमने, डायरेक्टर से लड़कों ने किस तरह सिर उठाकर, बराबर की तरह, बात की !...अच्छा, पावेल, मैं फिर तुमसे मिलूँगा। अब इजाज़त दो।’’ वह चला गया तो राइबिन बोला, ‘‘लोग केवल शब्दों को नहीं सुनेंगे, पावेल, हमें यातना झेलनी होगी, अपने शब्दों को ख़ून में डुबोना होगा !’’ पावेल उस दिन देर तक अपने कमरे में परेशान टहलता रहा। थका, उदास, उसकी आँखें ऐसे जल रही थीं, जैसे वे किसी चीज़ की खोज में हों! माँ ने पूछा, ‘‘क्या बात है, बेटा ?’’ ‘‘सिर में दर्द है।’’ ‘‘तो लेट जाओ। मैं डॉक्टर को बुलाती हूँ।’’ ‘‘नहीं, कोई ज़रूरत नहीं है।...दरअसल मैं अभी बहुत छोटा और कमज़ोर हूँ। लोग मेरी बातों पर विश्वास नहीं करते, मेरे काम को अपना काम नहीं समझते।’’ ‘‘थोड़ा इन्तज़ार करो, बेटा,’’ माँ ने बेटे को सान्त्वना देते हुए कहा, ‘‘लोग जो आज नहीं समझते, कल समझ जाएँगे !’’ क्रान्ति की लौ को उजास देनेवाली एक माँ की महागाथा।

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