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नाटक जयशंकर प्रसाद

सत्येंद्र कुमार तनेजा

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :572
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13571
आईएसबीएन :9788171193134

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भ्रष्ट पारसी थिएटर की बढ़ती प्रतिष्ठा से सतर्क रहने के लिए ही प्रसाद ने इस स्थापना पर बल दिया कि नाटक रंगमंच के लिए न लिखे जाएँ बल्कि रंगमंच नाटक के अनुरूप हो

हिंदी प्रदेश में पारसी थिएटर की निर्बाध सफलता ने हिंदी नाटककार की सोच को अवरुद्ध और दृष्टिकोण को प्रतिक्रियामूलक बना दिया। भ्रष्ट पारसी थिएटर की बढ़ती प्रतिष्ठा से सतर्क रहने के लिए ही प्रसाद ने इस स्थापना पर बल दिया कि नाटक रंगमंच के लिए न लिखे जाएँ बल्कि रंगमंच नाटक के अनुरूप हो। उस युग की पत्र-पत्रिकाओं में बड़े पैमाने पर यह प्रचारित किया गया कि चूँकि प्रसाद का रंगमंच से वास्ता नहीं रहा, इसलिए वे ऐसी राय रखते हैं। इधर, विश्वविद्यालयों में उन्हें पर्याप्त मान्यता मिलने लगी, दूसरे शब्दों में, उनके नाटक पाठ-स्तर के लायक हैं, उनकी दृश्य संभावनाएँ अप्रासंगिक हैं। रंगमंच के कला-संस्कारों से वंचित उस युग के मूर्धन्य आलोचक प्रसाद के नाटकों के साहित्य-पक्ष का जैसा सूक्ष्म विश्लेषण कर सके, वैसे रंगमंच के प्रश्न पर न वे इतने व्यग्र लगे और न समर्थ। दरअसल प्रसाद कलासंपन्न रंगमंच के विकास में नाटक और नाटककार की अग्रणी भूमिका स्थापित करना चाहते थे। यह तो उनके साथ बड़ा अन्याय होगा अगर यह मान लिया जाए कि नाटक के प्रदर्शन के लिए वे रंगमंच की महत्ता ही नहीं समझते थे। उन दिनों काशी हिंदी रंगमंच का केंद्र बन गई थी। पारसी थिएटर की असलियत उनसे कैसे छिपी रह सकती है जिसे वे किशोरावस्था से लगातार देख-समझ रहे थे। डीएल, राय का दौर आया, प्रसाद इस तरफ झुके ही नहीं, अनुप्राणित भी हुए। इसी बीच वे भारतेंदु नाटक मंडली के सदस्य बने। रत्‍नाकर रसिक मंडल द्वारा चंद्रगुप्त ' के मंचन को उन्होंने पूरी अंतर्निष्ठा से लिया। नया आलेख तैयार किया, रिहर्सल में सक्रिय भाग लिया और इसी दबाव में कामिक कथा लिख डाली। 'इब्‍सनिज्‍़म' का यथार्थवादी दोलन उठा, असहमति के बावजूद, प्रसाद ने उसकी विशेषता को अपने ढंग से आत्मसात किया। नए नाट्‌य-शिल्प से अनुप्रेरित 'ध्रुवस्वामिनी' एक बेहतर नाट्‌य-कृति है। प्रसाद अपने नगर के प्रमुख प्रस्तुतीकरणों के प्रबुद्ध प्रेक्षक रहे है। यह भी सच है कि उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति भारतेंदु जैसी न थी पर रंगमंच के प्रति प्रसाद सदा गंभीर और ग्रहणशील रहे। इसलिए उनके विरुद्ध खड़ा किया गया यह मिथ बिलकुल निराधार है कि वे रंगमंच-विरोधी थे। नए रंग दोलन में कुछ साहसी निर्देशकों ने रंगकर्म से सांस्कृतिक अस्मिता तथा साहित्यिक अर्थवत्ता की पहचान बनानी चाही। प्रसाद के नाटक उठाए जाने लगे। ब. व. कारंत के निर्देशन में प्रस्तुत स्कंदगुप्त' के 5० प्रदर्शनों ने 'अभिनेयता' की पूरी सोच में आमूल बदलाव ला दिया। प्रसाद-प्रस्तुति की परंपरा बनने लगी। प्रसाद के तर्क सही साबित होने लगे-रंगमंच का जैसे 'अकाल' दूर होगा, मर्मज्ञ सूत्रधार' उनके नाटक प्रस्तुत करने में समर्थ होंगे। वे जीवंत और समकालीन रहें इसके लिए ज़रूरी है कि हम इन नाटकों की सीमाएं जितनी पहचानेंगे, उनकी मंचन-संभावनाएँ उतनी खुलेंगी। इससे कुछ नए पाठ बनेंगे। अगली शताब्दी में प्रवेश कर रहा हिंदी रंगमंच प्रसाद के नाटकों की अर्थबहुल अन्तर्वस्तु की मूल्यवान संभावनाओं और कर्म के उत्साह एवं कर्म के अवसाद के मर्म को पाने में गतिशील मानवीय चरित्रों की अंतर्निहित शक्ति अवश्य उजागर कर सकेगा।

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