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प्रतिनिधि शायरी: अख्तर शीरानी

अख्तर शीरानी

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :212
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 13595
आईएसबीएन :9788183613132

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नागरी लिपि में 'अख्तर' की अभी तक बहुत छोटे-छोटे दो-एक चयन ही सामने आए हैं

1905 में रियासत टोंक में जन्मे दाउद खान शीरानी, जो आगे चलकर 'अख्तर' शीरानी के नाम से मशहूर हुए, एक बहुत ही अमीर और प्रभावशाली पिता के पुत्र थे। देश-विभाजन से पहले ही उनके पिता हाफिज महमूद खान शीरानी लाहौर आकर बस गए और यहाँ भी उनको वही मर्तबा हासिल हुआ जो टोंक में हुआ करता था। जाहिर है कि नौजवान दाउद खां के लिए पैसे-कौड़ी की कोई समस्या नहीं थी; शायरी भी उनके लिए पैसा कमाने का जरिया नहीं, शौक थी। फिर क्या करण है कि यही दाउद खान शीरानी बीच में ही तालीम से बेजार होकर आवारागर्दी को अपना मशगला बना बैठे ? क्या करण है कि 'अख्तर' बनकर उन्होंने खुद को शराब में डुबो लिया ? वह कौन से प्रेरणा थी जिसने उनके और उनके वालिद या घरवालों के बीच कोई सम्बन्ध लगभग छोड़ा ही नहीं ? वह कौन सी कसक थी जो उनको हिंदुस्तान के कोने-कोने में लिये फिरी ? इस और ऐसे ही दूसरे अनेक सवालों के जवाब अभी भी पूरी तरह और संतोषजनक ढंग से सामने नहीं आये हैं। लेकिन इतना तय है कि 'अख्तर' शीरानी एक बहुत ही निराशाजनक सीमा तक अपने माहौल से कटे हुए थे, और उनके व्यक्तित्व की ठीक यही विशेषता उनके कृतित्व की निर्धारक शक्ति भी बनी। रहा सवाल 'अख्तर' साहब की शायरी का, तो इसमें शक नहीं कि वे बहुत कम उम्र में ही कुल-हिन्द शोहरत के शायरों में गिने जाने लगे थे और पत्र-पत्रिकाओं में उनका कलाम छपने के लिए होड़ सी लगी रहती थी। लेकिन उनकी उदासीनता का, दुनिया से बेजारी का आलम यह था कि अपने जीवनकाल में उन्होंने अपना संग्रह प्रकाशित कराने की तरफ ध्यान तक नहीं दिया; उनकी रचनाओं का संकलन उनकी मृत्यु के बाद ही हुआ। नागरी लिपि में 'अख्तर' की अभी तक बहुत छोटे-छोटे दो-एक चयन ही सामने आए हैं जो कि पाठक की प्यास को बुझाने का पारा नहीं रखते। मगर यह शिकायत प्रस्तुत संकलन को लेकर नहीं आएगी, इसका हमें विश्वास है।

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