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हास्य-व्यंग्य >> माननीय सभासदो

माननीय सभासदो

जवाहर चौधरी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :104
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1360
आईएसबीएन :81-263-0403-0

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प्रस्तुत है हास्य निबन्ध...

Mananeeya sabhasado

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

इसमें वर्तमान समाज और राजनीति के क्षेत्र में तेजी से गिर रहे मूल्यों की ओर इशारा करते हुए हमारी चेतना को झकझोरने का प्रयास किया गया है। तथाकथित सभ्य समाज एवं राजनीति की दुनिया में बढ़ रही अनेक प्रकार की विसंगतियों पर ये निबन्ध तीखी चोट करते हैं और सोचने-समझने की सिफारिश भी करते हैं।

एफ.आई.आर.


अगर आप शरीफ आदमी हैं तो आपके चाहने-करने से कुछ नहीं होगा। यदि सौभाग्यवश गुण्डे या नेता हो गये हैं तो आपके लिए किसी भी दरवाज़े पर जाकर ‘खुल जा सिमसिम’ कहना काफ़ी है। नरभक्षियों के बीच नागरिक होना, जीवन का नारकीय होना है। आँखें मूँद कर जुगाली करते हुए जीने की कला जब तक नहीं आती आपको भारत महान् नहीं लगेगा। आप जानते हैं कि पंचत्त्व से आपका यह टेम्परेरी शरीर लगभग स्थायित्व प्राप्त कर चुकी इस व्यवस्था में कुछ नहीं है। फिर भी पतलून की जेब में मुट्ठी ताने आप यदाकदा अपनी ख़ामोशी तोड़ने के लिए विवश हो ही जाते हैं।

हमारे आसपास का सारा वातावरण बदबू से भरा हुआ है। हमें अपनी नाक भी बन्द करना है और साँस भी इसी से लेना है। इसमें जी नहीं पाने और जीते रहने के बीच जो है उसे हम अपनी सुविधा के लिए कुछ भी नाम दे सकते हैं, जिनमें समझदारी, सहिष्णुता, उदारता, धीरज, कर्मफल जैसे शब्द भी हो सकते हैं। लेकिन वास्तव में यह रेत में गरदन घुसाने जैसा है। शिक्षा आदमी को प्रायः कायर बना देती है। मूर्खतापूर्ण साहस की मैं वकालत नहीं कर रहा हूँ किन्तु कभी-कभी उस स्तर के साहस की ही उपयोगिता दिखाई देती है। तब किसी संकल्प से बँधी मुट्ठी से शिष्ट साहस रिसने लगता है और अन्ततः रीते हाथों में क़िस्मत को रोती लकीरों के अलावा हमारे पास कुछ नहीं होता।

लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि लेखक भी लिखना बन्द कर दें। यह जानते हुए कि मात्र लेखक से समाज का कुछ बनाया-बिगाड़ा नहीं जा सकता, लिखना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि निराशाजनक वातावरण में लेखक जीवन-रक्षक आशा को बनाये रखता है।
व्यंग्य मनोरंजन के लिए पढ़ा भले ही जाय किन्तु इस उद्देश्य से लिखा नहीं जाता है। कहानी-कविताओं की तरह इसमें कोई आवरण भी नहीं है इसलिए प्रायः व्यंग्य ही के समान खड़ा ताल ठोकता, चुनौती देता प्रतीत होता है। व्यवस्था की मोटी चमड़ी सख्त और बेजान हो गयी हो तो भी व्यंग्य एक ट्रीटमेण्ट है, निस्सन्देह एकमात्र नहीं।
अधिकांश रचनाएँ किसी असहमति को लेकर मेरे करीब आती हैं और स्वतः आकार लेने लगती हैं। इनमें कुछ समय लगता है, इसलिए किसी विषय पर शीघ्रता से या त्वरित नहीं लिख पाता हूँ। इसे मेरी कमजोरी भी माना जा सकता है। लेकिन जिनते दिनों भी रचना मेरे अन्दर होती है, बहुत बेचैन किये रहती है; ऐसी बेचैनी जिससे सिर झटककर या एक गहरी नींद लेकर भी मुक्त नहीं हुआ जा सकता है।
इस संकलन में ऐसी कुछ रचनाएँ हैं जो ऊपरी तौर पर आपको हँसने-मुस्कराने को विवश करेंगी लेकिन दूसरी ओर आपके रोज़नामचे में कहीं ‘एफ.आई.आर.’ दर्ज करा रही होंगी। आप चाहें तो न्याय करें, चाहें तो स्टे दे दें।

जवाहर चौधरी

बाइ द पेलवान, आफ द पेलवान और फार द पेलवान


भारत में ग़रीबी ग़रीबों के लिए बुरी चीज़ है, लेकिन भारतीय प्रजातन्त्र के लिए सबसे अच्छी। प्रजा ग़रीब हो तो राज करने का पूरा मज़ा दूना हो जाता है। सच मानो तो ग़रीब ही असली प्रजा है। सरकारी योजनाओं और पोलपट्टी का लाभ उठाकर जो प्रजा पैसेवाली हो गयी, वो ज़्यादा चतुर हो गयी। प्रजा चतुर हो तो हर किसी की दाल नहीं गल सकती। इसलिए हमारे नेता ग़रीबी के प्रति श्रद्धा और ग़रीबों के प्रति आदर का भाव रखते हैं। हमारे देश का ग़रीब बड़ा मेहनती होता है। हमारे नेताओं ने सैद्धान्तिक रूप से मान लिया है कि इस भारत-भूमि में मेहनत करनेवाले को दो जून की रोटी के अलावा किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं है। हमारा ग़रीब दिन-भर काम करके अपने शरीर को थका डालता है। दरअसल, थके शरीर में नींद अच्छी आती है। यही कारण है कि ग़रीब प्रजा अकसर सोती रहती है। जब चुनाव घोषित हो जाते हैं तो नेता अपने पट्ठों को ढोलक लेकर गली-गली में भेजते हैं ताकि वे खूब चिल्लाकर, शोर मचाकर प्रजा को जगाएँ। कुछ दिनों के शोर के बाद प्रजा आँखें खोलती है। अनुकूल समय पर नेता प्रकट होते हैं और उनसे पूछते हैं, ‘‘प्यारी प्रजा, नींद कैसी आयी ! सपने कैसे आये ?’’
प्रजा भोली है, उसे नहीं मालूम कि ये जो हाल पूछ रहे हैं वही उसकी बेहाली का कारण है। वे बहला-फुसलाकर उसे अभी अपने साथ ले लेंगे और उसकी अस्मिता से खेलकर, किसी झाड़ी के पीछे छोड़ दिल्ली भाग जाएँगे। लेकिन वह भोली है कहती है, ‘‘हुजूर नींद तो अच्छी आती है। पर..सपनों में आपके पुराने वादे आते हैं। इस बार क्या कहते हो मालिक ?’’

‘‘इस बार हमें एक स्थिर सरकार बनाना है, हम ही हैं जो सरकार की स्थिरता बनाये रख सकते हैं। आप हमें वोट दीजिए हम आपको स्थिर सरकार देंगे। आप समझ गये होंगे कि सरकार कुछ नहीं कर या कुछ तो भी करे, पर उसका स्थिर होना बहुत ज़रूरी है।’’ नेता ने अगले सपने का सूत्र दिया।
‘‘एक बार आप ही लोगों ने कहा था कि ग़रीबी हटाओ, पर मालिक, ग़रीबी तो और बढ़ गयी है। अब अस्थिर सरकार के लिए कह रहे हो तो क्या समझें ?’’

आँख मसलते हुए उसने प्रश्न किया।
‘‘ग़रीबी भी हटी है, कार्यालय पर आओ और रंगीन टी.वी. में देखो कि पैंतीलीस साल में हमने देश में क्या-क्या किया है। तुम अपनी ग़रीबी से परेशान मत हो। हम हैं न तुम्हारे साथ, तुम्हें एक बोतल दारू, सौ का असली नोट मिलेगा। और हाँ, एक कम्बल भी देंगे, ताकि आराम से सोते रहो और अगले चुनाव में फिर हमारे काम आओ।’’ नेता ने भरपूर प्रेम के साथ आश्वासन दिया।
‘‘बड़ी मेहरबानी हजूर की, पर मेंगाई भोत बढ़ गई है माई-बाप। अब इसका कुछ करो। दिन भर मेहनत करे तो भी शाम को पेट नहीं भर पाता। ज़िन्दगी नरक हो गयी सरकार !’’ महँगाई का मारा ग़रीब दारू-कम्बल का प्रस्ताव मिलने पर भी चुप नहीं रह सका।

‘‘देखो भाई, तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है हमने। सरकारी ज़मीन पर तुमने अपना टापरा बनवा लिया, हमने उसमें एक बिजली बत्ती दे दी, एक सार्वजनिक नल लगवा दिया। तेरह रुपए में जनता-साड़ी दी थी वो भूल गए क्या ? अनाज के लिए कूपन बनवा दिया। बीमार हो जाओ तो मुफ्त का सरकारी अस्पताल है। परिवार नियोजन कराओ तो चार सौ नगद देते हैं। टी.वी. दिया है, जगह-जगह घरों में, दुकानों में टी.वी चलाते हैं, कहीं भी झाँककर देखो मजे में। चालीस साल में इतना कम है क्या ?’’ नेता ने थोड़ा ग़ुस्सा बताते हुए कहा।

ग़रीब को लगा सचमुच उसे बहुत मिल गया है। अगर इतनी मदद नहीं होती तो उसका जीना मुश्किल हो जाता। एक वोट के बदले ये लोग काफी दे देते हैं। नेता हाथ जोड़कर जा चुके तो और वह ख़ुशफ़हमी के क्षेत्र में प्रवेश कर ही रहा था कि दूसरा टोला भजन करता हुआ आ गया। पूरी भक्ति ग़रीब ‘वोटर-देवता’ के हाथ जोड़े गये। बदले में दरिद्र नारायण ने सकुचाते हुए प्रणाम किया। नेता ने पूछा, ‘‘अपने देश के बारे में कुछ जानते हो ?’’

ग़रीबी में आदमी थोड़ा दार्शनिक अवश्य हो जाता है पर ऐसे सवालों का उत्तर देने की सामर्थ्य उसमें पैदा नहीं हो पाती। इसलिए ग़रीब ने सोचते हुए कहा, ‘‘जानते हैं मालिक, बाप जिन्दा था तो अक्सर कहता था कि भारत एक ग़रीब देश है। तो हम लोग इसे अपनाई देश समझते थे। बचपना था, साब।’’
नेता को लगा कि आदमी को गलत दिशा में ले जाएगा तो समय खराब करेगा। इसलिए साफ़-साफ पूछा, ‘‘तुम जानते हो इस देश में कौन-कौन लोग रहते हैं ?’’

‘‘हाँ साब, अमीर लोग और ग़रीब लोग। दो तरे के लोग हैं’ उसने पूरे विश्वास के साथ उत्तर दिया।
‘‘ऐसे नहीं, धर्म के हिसाब से बोलो..अच्छा तुम्हारा धर्म क्या है ?..गर्व से बताओ।’’ नेता ने सीना फुलाकर पूछा।
छोटी जात के खाली पेट ग़रीब को पता नहीं था कि गर्व क्या होता है और फिर यह प्रश्न कुछ सांस्कृतिक क़िस्म का था जिसे समझना उसके बूते कतई नहीं था, बोला, ‘‘अब क्या बताएँ साब...रोज आधा पेट खाओ तो धरम का क्या मतलब रह जाता है। और धरम के बारे में तो आप पहली बार पूछ रहे हो,...गेरुआ वस्त्रवाले तो जात पूछते रहे अभी तक। हमारे हाथ का वोट तो सबको चल जाता है पर पानी किसी को नहीं चलता। इसलिए हम तो धरम भूल गये पीढ़ियों से।’’
समय कीमती था इसलिए नेता ने बिना बहस में पड़े सीधा सवाल किया, ‘‘राम का नाम लेते हो या नहीं ?’’
‘‘लेते हैं साब, वही तो एक सहारा है।’’

‘‘तो ये लो एक झण्डी और एक डण्डी, नव निर्माण करो देश का। हम पुरानी भारतीय संस्कृति के रक्षक हैं, हमारे साथ चलो।’’
ग़रीब की नियति तो आज्ञा मानना रहा है, पर आज वह डर रहा है। क्योंकि पीछे ले गये तो शोषण की पीड़ा और आगे ले गये तो फसाद का भय। ग़रीब का दोनों तरफ़ से मरन। बोला, ‘‘हुजूर यहीं खड़े रहने दो, वोट आपको ही देंगे। आप बड़े लोग, आपके साथ चलना हमारे भाग में कहाँ ! सुबे-शाम रोटी की फिकर करनी पड़ती है, बाल-बच्चेदार हैं सरकार।’’

मँझीरे बजाता, आत्मविश्वास से भरा समूह आगे बढ़ जाता है। ग़रीब राहत की साँस लेता है। वैसे आज राहत की साँस भी सब लोगों को कहाँ नसीब होती है। ग़रीब को तो बिल्कुल ही नहीं। अकेला खड़ा सोच रहा है कि किस पर विश्वास करे। ग़रीबों पर राज करने के लिए राजाओं ने आरक्षण का भुलावा दिया है। फिर वोट दें किसे आखिर। गठरी में सभी कपड़े गन्दे हैं, किसी से इज़्ज़त नहीं बच रही है। पन्द्रह महीनों की फैन्सी ड्रेस के बहाने सबका नंगापन देख लिया है। बावलों के हाथ ढोलक लग गयी तो पीट-पीटकर फोड़ डाली। अब हर कोई भारत-भाग्य-विधाता होने का पोज दे रहा है। वह भी क्या मज़बूरी है कि चार निकम्मों में से किसी एक को चुनना ही पड़ेगा। ताल ठोंकते, मूँछ मरोड़ते सज्जनों में से भले ही सबसे दुबला चुनें, पर हड्डियाँ तुड़वाने के लिए वही काफी है। प्रजातन्त्र है, हमरा अपना प्रजातन्त्र, याने बाई द पेलवान, आफ द पेलवान फार द पेलवान।


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