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गजलें और शायरी >> उड़ान

उड़ान

पुखराज मारू

प्रकाशक : राधाकृष्ण प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :120
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13656
आईएसबीएन :9788183614313

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गज़ल हिन्दुस्तानी रिवायत की हसीन-तरीन विरासत है, इसको ज़बानों के संकीर्ण दायरों में क़ैद नहीं किया जा सकता।

गज़ल हिन्दुस्तानी रिवायत की हसीन-तरीन विरासत है, इसको ज़बानों के संकीर्ण दायरों में क़ैद नहीं किया जा सकता। यह न उर्दू है, न हिन्दी - बस, गज़ल तो गज़ल होती है और उसको गश्ज़ल ही होना चाहिए वर्ना सारी मेहनत और कोशिश व्यर्थ हो जाएगी। पुखराज मारू की गश्ज़लों का दीवान देखते हुए मेरे इस ख़याल को मज़ीद तकवियत मिली। उसकी गज़लें सर-सब्जश् फलदार दरख़्तों की तरह हैं जिनमें ख़ुशज़ायका मुनफरिद और खूबसूरत महकदार फल हैं। बाज पक कर रस-भरे बन गए हैं, कुछ अधकच्चे हैं और कुछ इब्तिहाई मराहिल में। लेकिन किसी मज़मूए में बड़ी तादाद में अच्छे शेर और खूबसूरत मिसरे हों तो दाद तो देनी ही पड़ेगी। पुखराज मारू गज़ल की क्लासिकी रिवायत के रम्ज शनास हैं। उसकी बारीकियों से परिचित और शब्द पर भी उनकी पकड़ है। ख़याल भी नाजुक, खूबसूरत और दिलनवाज़ हैं। नई-नई ज़मीनें भी तराशी हैं और गज़ल के गुल-बूटे खिलाए हैं। वह इक्कीसवीं शताब्दी के बर्क रफ़्तार अहद में और बाज़ारवाद के युग में रहते हैं। किन्तु उनकी गश्ज़लों की दुनिया कदीम है, इसमें शिद्दत नहीं है। समकालीन परिस्थितियों की झलक है भी तो बहुत कम-कम। यह शायर दुनिया का और मानवता का भला प्रेम के ढाई अक्षर में ही तलाश करना चाहता है। यद्यपि इश्क से बढ़कर और क्या है जो सारी कायनात में छाया हुआ है।

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