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अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या

रामस्वरूप चतुर्वेदी

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1377
आईएसबीएन :81-263-0112-0

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प्रस्तुत है अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या...

Agyeya Aur Aadhunik Rachna Ki Samasya a hindi book by Ram Swaroop Chaturvedi - अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या -रामस्वरूप चतुर्वेदी

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘अज्ञेय’ आधुनिक हिन्दी साहित्य के केन्द्रीय रचना-व्यक्तित्व हैं। प्रख्यात आलोचक डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी द्वारा लिखित ‘अज्ञेय और आधुनिक रचना की समस्या’ ‘अज्ञेय’ के कृतित्व का समग्रता में और सभी महत्त्वपूर्ण सन्दर्भों में विवेचन करती है। 1968 में इस आलोचना पुस्तक के प्रकाशन के बाद ‘अज्ञेय’ दो दशकों तक रचना-कर्म में सक्रिय रहे। तब उनकी यह आलोचना भी साथ-साथ विकसित होती रही। यों रचना और आलोचना का अभूतपूर्व सहकार यहाँ द्रष्टव्य है। लेखक के विस्तृत रचना-संसार को कुछ और विस्तार देती है यह आलोचना, और उस रचना की गहरी अर्थ-क्षमता को उत्तरोत्तर संवर्धित करती है। ‘अज्ञेय’ की आधुनिक रचना और डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी की अर्थ में सर्जनशील आधुनिक आलोचना का एक साथ निदर्शन इस आलोचना कृति में सम्भव हुआ है।

भूमिका

यह पुस्तक अज्ञेय के साहित्य का एक आरम्भिक अध्ययन प्रस्तुत करती है। कहाँ तक विवेच्य लेखक के कृतित्व को वह समृद्ध कर पाती है या कि विकृत करती है, यह कह सकने की स्थिति में स्वभावतः मैं नहीं हूँ। किसी भी अच्छी समीक्षा का केन्द्रीय गुण यही होगा कि वह मूल रचना के अनुभूत, अननुभूत या अर्द्धअनुभूत आयामों को पुनःसृजित तथा प्रकट करे। इस दृष्टि से आज के पाठक के लिए ‘हैमलेट’ का अर्थ है शेक्सपियर + (धन) ब्रैडले, और ‘रामचरितमानस’ का अर्थ है तुलसीदास +(धन) रामचन्द्र शुक्ल। यहाँ मैंने केवल प्रमुख समीक्षकों के नाम लिये हैं, प्रतीकात्मक रूप में। पर किसी भी कृति में (और यही उसके जीवन्त होने का सबसे खरा प्रमाण है) आस्वादन और मूल्यांकन की सक्रिय परम्परा निहित होती चलती है। इस व्यापक और जटिल प्रक्रिया का एक अंग अपेक्षया स्वचेतन भाव से उपस्थित कर रहा हूँ, पर स्वचेतनता से अब निस्तार कहाँ है ? एक ही उपाय है कि लेखन में उसका भी उपयोग कर लिया जाय।

तृतीय संस्करण

प्रस्तुत संस्करण अज्ञेय की मृत्यु के बाद प्रकाशित हो रहा है। यहाँ उनके उत्तर काव्य पर एक नया अध्याय जोड़ा गया है, तथा कुछ पिछली सामग्री को अद्यतन बनाया गया है। मूल कृति पूर्ववत् है।

चतुर्थ संस्करण

अन्तिम अंश ‘पर्यालोचन’ इस संस्करण में जोड़ा गया है कि लम्बी अवधि में लिखे अज्ञेय-साहित्य और उसके साथ-साथ क्रमशः गतिशील आलोचना-क्रम को उचित परिप्रेक्ष्य मिल सके। एक उपयोगी परिशिष्ट भी बढ़ा दिया गया है।

3 सितम्बर, 1999

रामस्वरूप चतुर्वेदी


कलाकार जितना ही सम्पूर्ण होगा, उतना ही उसके भीतर भोगनेवाले प्राणी और रचनेवाली मनीषा का पृथक्त्व स्पष्ट होगा।

इलियट का रूपान्तर अज्ञेय द्वारा (‘त्रिशंकु’)


जितनी स्फीति इयत्ता मेरी झलकाती है
उतना ही मैं प्रेत हूँ
जितना रूपाकार-सारमय दीख रहा हूँ
रेत हूँ।
फोड़-फोड़कर जितने को तेरी प्रतिभा
मेरे अनजाने, अनपहचाने
अपने ही मनमाने
अंकुर उपजाती है-
बस उतना ही मैं खेत हूँ

अज्ञेय (‘आँगन के पार द्वार’)

अज्ञेय : ग़ैररोमैण्टिक कविता की सम्भावना


कविता कला या कि सर्जनात्मकता की परिभाषा अपने आप में एक अन्तर्विरोधी स्थिति है। कला अथवा सर्जनात्मकता में जो कुछ विशिष्ट है-और वही तो कला या सर्जनात्मकता का मूल तत्त्व है-उसे सामान्य परिभाषा में बाँधना या पूर्वोक्त कर सकना, एक ऐसा निरर्थक प्रयास है जिससे हमारे अनुभव में अब कोई वृद्धि नहीं हो सकती, यह आधुनिक विचारकों और साहित्य-चिन्तकों ने काफ़ी दूर तक समझ लिया है। हाँ, कविता क्या-क्या नहीं है, इसे रचनाकार अपने सृजन के द्वारा एक के बाद एक जैसे प्रमाणित करते गये हैं, और इससे कविता के रूप को कुछ और समझ सकने में जरूर सहायता मिलती है। निराला ने सहस्राब्दियों से चली आने वाली परम्परा को तोड़कर व्यवहार में साबित किया कि कविता छन्द नहीं है, और अज्ञेय को पढ़ने पर क्लासिकल पद्धति से भिन्न तरह से शायद पहली बार-भले ही क्षीण रूप में-लगता है कि कविता में भावावेग या रोमैण्टिक मनःस्थिति का होना अनिवार्य नहीं। यह श्रेय इन दोनों कवियों का है कि आधुनिक हिन्दी कविता क्रमशः अधिक खरी, स्वायत्त और कविता होती गयी है।

अज्ञेय की कविता ग़ैररोमैण्टिक है यह कहना शायद बहुत ठीक न हो। पर अज्ञेय में ग़ैररोमैण्टिक कविता की सम्भावना विवृत्त होती अवश्य दिखाई देती है। इस दृष्टि से रूप-विधान के स्तर पर होने के कारण निराला का प्रयोग अधिक स्पष्ट और आसानी से पहचाना जा सकने वाला है। अज्ञेय का यत्न संवेदना के स्तर पर है, इसीलिए बहुत सम्पूर्ण या साहसिक नहीं दिखाई पड़ता। निराला ने भाषा में अन्तर्निहित लय को कविता का कम से कम आवश्यक तत्त्व मानकर रचना की, अज्ञेय ने भावना के साथ-साथ विचार को भी कला के सर्जनात्मक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का यत्न किया है। निराला में विद्रोह था वह अज्ञेय में प्रयोग के रूप में दिखाई देता है। प्रयोग की पृष्ठभूमि में विद्रोह हो, और विद्रोह की अगली कड़ी प्रयोग हो, यह उचित ही है।

निराला की तरह अज्ञेय ने भी समकालीनों के बीच अनुभावन की समस्या उत्पन्न की है। छन्द को कविता मानने वाले आलोचकों ने निराला को अपने भरसक कवि नहीं माना था। अज्ञेय के अनुभावन में कठिनाइयाँ दो प्रकार की रहीं। रस के अन्तर्गत सब कुछ समेटने का उपक्रम करने वाले आलोचक के सामने समस्या यह थी कि विचार, बौद्धिकता या कि जीवन-दृष्टि की प्रधानता को रस की स्थिति में समाविष्ट करने का कोई उपाय नहीं। दूसरी ओर परवर्ती छायावादी काव्य की रोमैण्टिक दृष्टि से भी अज्ञेय का वैशिष्ट्य पकड़ा नहीं जा सकता। इस तरह अज्ञेय को लेकर पुराने तथा नये (या कि इतने पुराने नहीं) दोनों वर्गों के समीक्षकों को अनुभावन का सूत्र नहीं मिल सका। यही कारण है कि जिससे बहुत दिनों तक अज्ञेय को सहज रूप में नहीं, एक विशेष प्रकार के आतंक के कारण कवि माना जाता रहा है-एक स्थिति जहाँ फिर निराला का स्मरण अनायास हो आता है।

अज्ञेय की सफल कविताएँ अधिकतर वे हैं जिनमें रोमैण्टिक दृष्टि या भावावेग की स्थिति नहीं है, या बहुत कम और संतुलित रूप में हैं। मुख्यतः ऐसी ही रचनाओं के आधार पर अज्ञेय के कवित्व का परीक्षण होना चाहिए। यों रोमैण्टिक भाव-बोध के उदय के पीछे विज्ञान की दृष्टि का हलका ही सही कुछ योग हो सकता है।

आधुनिक हिन्दी कविता का इतिहास एक स्तर पर रोमैण्टिसिज़्म के स्थापन और विघटन का इतिहास है। श्रीधर पाठक से लेकर अज्ञेय और परवर्ती नयी कविता तक रोमैण्टिकसिज़्म का उतार-चढ़ाव कई रूपों में मिलता है। स्वच्छन्दतावाद, छायावाद, प्रयोगवाद नयी कविता-आधुनिक कविता के इन विविध उत्थानों में रोमैण्टिसिज़्म का उदय, स्थापना, संघर्ष और विघटन देखा जा सकता है। रोमैण्टिसिज़्म से असन्तोष का मुख्य कारण यह है कि उसमें मनुष्य का अपना वास्तविक रूप बहुत कुछ आवृत्त बना रहता है। उसमें अतीत का सम्मोहन है या वन वैभव के प्रति आसक्ति है, या प्रेम-सौंदर्य अथवा कि देश-भक्ति का भावावेग है। दूसरे शब्दों में कहें कि रोमैण्टिसिज़्म (या कि जीवन को भव्य रूप में चित्रित करने वाला क्लैसिसिज़्म भी) मनुष्य के विशेष क्षणों का काव्य है। उन विशिष्ट और साधारण क्षणों के बाद भी मनुष्य के जीवन और उसकी अनुभूति की कोई संगति है, यह जानने की वृत्ति रोमैण्टिसिज़्म में नहीं रही।

इसीलिए मनुष्यता का समग्र आख्यान उसे नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसने यथार्थ को अधिकतर स्फीत रूप में ग्रहण किया है। अपने अतिरिक्त भावावेग के कारण ही रोमैण्टिक काव्य उन्मुक्त प्रवाह और सहजता का काव्य रहा है। पर बढ़ती स्वचेतनता के आधुनिक युग में वैसी सहजता ही अब असहज हो गयी है।

क्लैसिकल काव्य में प्रवाह है मर्यादित रूप में-रोमैण्टिक काव्य में उन्मुक्त प्रवाह है-पर आधुनिक कला की विशेषता प्रवाह में उतनी नहीं जितनी अवरोध और आघात में है। यह स्थिति काव्य में छन्द-विधान के स्थूल स्तर से लेकर भाव-बोध के सूक्ष्म स्तर तक देखी जा सकती है। क्लैसिकल पद्धति पर लिखे हुए काव्य-विशेषतः प्रबन्ध-में मध्यकाल से लेकर वर्तमान शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक मात्रिक छन्द या वर्ण-वृत्त दोनों में नियोजन और नियमन से लय उत्पन्न होती है। फिर निराला और छायावाद के मुक्त छन्द में लय का उन्मुक्त रूप मिलता है। और उसके बाद प्रयोगवाद तथा नयी कविता में लय का जो भी कुछ रूप शेष है, वहाँ कविता की पंक्तियों में गद्य जैसा विन्यास प्रवाह को भंग करता हुआ संगीत की नहीं वरन् भाषा की अपनी अन्तर्निहित लय को ऊपर उठाता है। भाषा में अन्तर्निहित लय से अतिरिक्त लय की अपेक्षा नये कवि को नहीं होती।

आधुनिक काव्य की आन्तरिक संवेदना भी सहज कम, स्वचेतन अधिक है, स्वचेतना एक प्रकार से आधुनिक युग-बोध की विशेषता है। यथार्थ के प्रति जटिलतर होते सम्बन्धों के पीछे इस स्वचेतन वृत्ति का महत्त्वपूर्ण योग है। बहुत-सी मानवीय स्थितियाँ और उनके अन्तःसम्बन्ध जो हमारे लिए अप्रकट थे, अब निवृत हो रहे हैं। इस तरह कहा जा सकता है कि एक स्तर पर स्वचेतनता ने मनुष्य को अधिकतर मनुष्य बनाया है। पर कोई भी साधन एक सीमा के बाद अवरोध बनने लगता है, और वह स्थिति शायद जल्दी आ सकती है जब तीव्रतर होती स्वचेनता के प्रतिकार का कोई उपाय हमें सोचना पड़े। और तब जीवन की समस्या आगे-आगे चलने वाले साहित्य को एक बार फिर सुलझानी होगी।

हिन्दी काव्य—या कि साहित्य में ही रोमैण्टिसिज़्म की स्थिति प्राक्छायावाद युग के कुछ कवियों में एक साथ दिखाई देती है। श्रीधर पाठक, मुकुटधर पाण्डेय, लोचनप्रसाद पाण्डेय, रूपनारायण पाण्डेय और रामनरेश त्रिपाठी, जिनकी मुख्य वृत्ति को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने स्वच्छन्दवाद कहा है, रोमैण्टिक मिज़ाज को दूर तक प्रतिफलित करते हैं। वन-वैभव और एकान्त प्रणय सौन्दर्य-प्रियता, अतीत का सम्मोहन और देशभक्ति-रोमैण्टिसिज़्म के ये मूल तत्त्व इस काव्य में उन्मुक्त भाव से प्रकट हुए हैं। वैयक्तिक विद्रोह का भाव इन कवियों में अवश्य नहीं मिलता, जो आगे चलकर छायावाद में विकसित हुआ। इससे स्वच्छन्दवाती काव्य की सरलता तनाव में परिणत हुई-जिस तनाव से कला के विभिन्न अवयव अधिक जटिल तरीक़े से एक रूपाकार के अंग बनते हैं।

छायावादी काव्य रोमैण्टिक काव्य मात्र नहीं है, उसमें रोमैण्टिसिज़्म के तत्त्वों का कुशल उपयोग हुआ है। 19वीं शती की अंगरेज़ी रोमैण्टिक कविता से हिन्दी के छायावादी काव्य का रूप भिन्न है। उदाहरण के लिए देशभक्ति के एक तत्त्व को लिया जा सकता है, जो हिन्दी के प्रायः सभी स्वच्छन्दतावादी और छायावादी कवियों की रचनाओं में मिलता है, पर अंगरेज़ी की रोमैण्टिक कविता में जिसकी कोई विशिष्ट अभिव्यक्ति नहीं हुई और यह उचित भी था। देशभक्ति का अनुभव पराधीन देश को होता है, शताब्दियों से स्वाधीन देश के लिए तो वह एक सहज स्थिति है। दोनों देशों की मनःस्थिति का यह अन्तर उनके रोमैण्टिक काव्यों में प्रतिफलित हुआ है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रोमैण्टिसिज़्म की जैसी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति छायावाद काल में हुई वह फिर सम्भव न हो सकी। और यह स्मरणीय है कि हिन्दी साहित्य में छायावाद यदि एक ओर द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता के विरुद्ध प्रतिक्रिया थी, तो दूसरी ओर वह श्रीधर पाठक प्रभृति की स्वचेछन्दतावादी वृत्ति की निष्पत्ति भी थी।

प्रगतिवाद ने भौतिकवादी दर्शन से प्रेरणा लेकर सजग रूप में छायावादी काव्य की रोमैण्टिक वृत्ति का विरोध किया। पर मूलतः प्रगतिवाद स्वयं भावावेश का काव्य था। विषय-वस्तु के बदल लेने पर भी यथार्थ के प्रति उसके सम्बन्धों की दिशा छायवाद जैसी ही थी। उसका आवेग, आवेश वस्ततुः छायावाद से अधिक था-पर उतना गहरा न था। इसलिए प्रगतिवाद रोमैण्टिसिज़्म का विरोध करता हुआ भी स्वयं रोमैण्टिक बना रहता है-भावावेश का केन्द्र प्राकृतिक सौन्दर्य के बीच कृषक बालिका के स्थान पर मिल के धुएँ में लिपटा मज़दूर हो जाता है। ऐसा नहीं है कि इस विषय-वस्तु के परिवर्तन से रचनात्मकता में कुछ भी अन्तर नहीं पड़ा-पर वह अन्तर गुणात्मक और मौलिक न होकर स्थूल स्तर पर अधिक है, क्योंकि यथार्थ के प्रति कवियों की दृष्टि पूर्ववत् भावावेग की बनी रही।

अज्ञेय ने प्रगतिवादी आन्दोलन को निकट से देखा-समझा था, और उन्होंने प्रयोगवादी (यह नामकरण जो उनके बावजूद है) अभियान में केवल विषयवस्तु पर नहीं, आन्तरिक सम्बन्धों को बदलने पर बल दिया। अपने विरोध या विद्रोह को भी उन्होंने ठण्डे भाव से ही व्यक्त किया-

अगर मैं तुमको
ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चम्पे की
वग़ैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।
बल्कि केवल यही :
ये उपमान मैले हो गये हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।

(कलगी बाजरे की)


‘वग़ैरह’ का हलका और ठण्डा तिरस्कार समूचे अंश को भावात्मक स्तर पर एक साथ बाँधता है। प्रगतिवादी कवि इस बात को बिना ललकारे हुए नहीं कह सकता था। रोमैण्टिसिज़्म से अलग मिज़ाज के ठण्डेपन का यह आभास पहली बार अज्ञेय में मिलता है, इसीलिए अज्ञेय रोमैण्टिसिज़्म विरोधी नहीं, ग़ैररोमैण्टिक हैं। इस ठण्डे और ग़ैररोमैण्टिक मिज़ाज की पूरी सर्जनात्मक प्रक्रिया आगे चलकर नयी कविता के परवर्ती दौर में सम्भव हो पाती है।
‘भग्नदूत’ (1933) ‘चिन्ता’ (1942), और ‘इत्यलम्’ (1964) की कुछ निष्क्रिय-सी भटकन के बाद ‘हरी घास पर क्षण-भर (1949) में अज्ञेय का वास्तविक कवि रूप उभर कर आता है। इस संकलन की कई महत्त्वपूर्ण कविताएँ प्रकृति की स्थिति को एक नये ढंग से स्वीकार करती हैं और कवि के विकसित होने वाले ग़ैररोमैण्टिक भाव-बोध को स्पष्ट अभिव्यक्ति देती हैं। चार पंक्तियों की एक कविता है-


भोर वेला-नदी तट की घण्टियों का नाद।
चोट खा कर जग उठा सोया हुआ अवसाद।
नहीं, मुझ को नहीं अपने दर्द का अभिमान-
मानता हूँ मैं पराजय है तुम्हारी याद !

(पराजय है याद)


बिना किसी नाटकीयता का प्रदर्शन किये हुए अतीत के सम्मोहन को नकार देना कवि के बदलते भाव-बोध का सूचक है। यथार्थ के स्फीत और रँगे हुए रूप की संगति अब वह स्वीकार नहीं करता। इसीलिए आज के स्वप्नदर्शी को भी वह एक नये रूप में देखता है-

अपने से बाहर आने को छोड़
नहीं आवास दूसरा।
भीतर-भले स्वयं साँई बसते हों।

(सपने मैंने भी देखें हैं)


‘अपने से बाहर आने’ की बात व्यक्तिगत को आधुनिक बनाने का उपक्रम है, स्वप्निल आदर्शवाद से प्रयाण है। यह व्यक्तिगत नहीं व्यक्तिवाद है, जहाँ व्यक्ति और समाज एक-दूसरे के विरोध में नहीं, एक दूसरे को पुष्ट करने के लिए हैं। अज्ञेय के लिए मानवीय व्यक्तित्व की समस्या बराबर केन्द्र में रहती है। उसे सम्पृक्त, सर्जनात्मक और आधुनिक बनाने की कोशिश उनके कविकर्म का प्रधान अंग है। और आधुनिकता के विकास के लिए रोमैण्टिक मायाजाल से अलग होने की आवश्यकता उन्होंने समझी है। अपनी ग़ैररोमैण्टिक वृत्ति के ही कारण अज्ञेय को इलियट का ‘निर्वैयक्तिकता’ और तटस्थता-सम्बन्धी काव्य सिद्दान्त दूर तक ग्राह्म हो सका है-‘कलाकार जितना ही सम्पूर्ण होगा, उतना ही उसके भीतर भोगने वाले प्राणी और रचने वाली मनीषा का पृथकत्व स्पष्ट होगा।’ पर रोमैण्टिक भाव-बोध से अपने को पृथक् करने के लिए इलियट को क्लैसिसिज़्म की ओर जाना पड़ा, अज्ञेय को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ी।

कवि के ग़ैररोमैण्टिक भाव-बोध की जाँच प्रकृति और प्रणय के प्रसंगों को लेकर शायद सबसे अच्छी तरह की जा सकती है। जहाँ तक प्रगति का सम्बन्ध है ‘हरी घास क्षण-भर’ का शीर्षक और शीर्षक-कविता कवि के यथार्थ के प्रति नये उन्मेष को व्यक्त करते हैं। नवविकसित मानवीय सभ्यता में अब पहले की तरह प्रकृति का एकछत्र राज्य नहीं है, नयी व्यवस्था में प्रकृति, प्रविधि और मानव के बीच सानुपात सम्बन्ध विकसित करने होगे, यह व्यंजना बराबर ऊपर आती है। प्रकृति के परम्परागत मृदुल-कोमल रूप का मज़ाक़ कवि ने खींचा है-

सबेरे-सबेरे
नहीं आती बुलबुल,
न श्यामा सुरीली
न फुदकी न दँहगल
सुनाती हैं बोली
नहीं फूल सुँघनी,
पतेना-सहेली
लगाती हैं फेरे।
जैसे ही जागा
कहीं पर अभागा
अड़ड़ाता है कागा-
काँय ! काँय ! काँय।
(सबेरे-सबेरे)


प्रचलित सौंदर्यबोध को यों धक्का देने के साथ-साथ कवि ने प्रेम-सम्बन्धी स्थापित मान्यताओं पर भी व्यंग्य किया है। प्रेम के अतिनाटकीय और एकांगी रूप की वर्तमान जीवन में असंगति कविता में अपने आप व्यंजित होती है-


क्रौंच बैठा हो कभी वल्मीक पर
तो मत समझ
वह अनुष्टुप् बाँचता है संगिनी के स्मरण के-
जान ले, वह दीमकों की टोह में है।
कविजनोचित न हो चाहे, यही सच्चा साक्ष्य है :

(माहीवाल)

आदि कवि और आधुनिक कवि के बीच के संवेदनात्मक अन्तर को स्वचेतन रूप से आदि कवि और आधुनिक कवि के बीच के संवेदनात्मक अन्तर को स्वचेतन रूप से शायद यहाँ पहली बार अंकित करने की चेष्टा हुई है। भावना के ‘कविजनोचित’ आवेग और आवेश पर नहीं उसकी तर्कयुक्त और विज्ञान सर्जनात्मकता पर अज्ञेय बल देते हैं। वे कवि को समझाते हैं-


सुनो कवि ! भावनाएँ नहीं हैं सोता,
भावनाएँ खाद हैं केवल !
ज़रा उनको दबा रखो
ज़रा-सा और पकने दो

ताने और तचने दो
अँधेरी तहों की पुट में पिघलने और पचने दो,
रिसने और रचने दो-
कि उनका सार बन कर चेतना की धरा को कुछ उर्वरा कर दे :

(कवि, हुआ क्या फिर)


यह अन्तर आधुनिक संवेदना को समझने के लिए अच्छा सूत्र है। आधुनिक ग़ैररोमैण्टिक दृष्टि सोते की अपेक्षा खाद पर अधिक है और मुखर आवेग की अपेक्षा निरुद्वेग सर्जनात्मकता और तरहीज देती है। इसीलिए विशुद्ध प्रकृति के उल्लास की अपेक्षा प्रकृति, प्रविधि और मानव का सम्पृक्त रूप आज अधिक संगत, सर्जनात्मक और इसीलिए अधिक सौन्दर्यमय है, जिससे आधुनिक रचनाकार प्रेरणा ग्रहण करता है। ‘हरी घास’ पर क्षण-भर शीर्षक कविता में कवि प्रकृति की आशंका भर नहीं करता, उसके इस्तेमाल की बात भी सोचता है, और सारी स्मृतियों के बीच संकल्प करता है-


याद कर सकें अनायास
और न मानें
हम अतीत के शरणार्थी हैं


इस तरह वह सम्मोहन भाव को काट देता है, वह चाहे प्रकृति का हो या कि अतीत का। ग़ैररोमैण्टिक भाव-बोध विकसित करने का यह सबसे पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण साक्ष्य है।
‘हरी घास पर क्षण-भर’ कवि का पहला महत्त्वपूर्ण संकलन है। इसके बाद विशेष रूप में ‘इन्द्रधनु रौंदे हुए ये’ (1957: शीर्षक की व्यंजना पर ध्यान दें) की कविताओं में, उसकी दृष्टि उत्तरोत्तर अधिक मँजी तथा परिष्कृत हुई है, उसकी ग़ैररोमैण्टिक वृत्ति अधिक सूक्ष्म स्तर पर सर्जनात्मक हो सकी है। अज्ञेय के परवर्ती काव्य में इस ग़ैररोमैण्टिक वृत्ति का विकास रहस्यवाद के एक ऐसे नये रूप में होता है, जो धार्मिक या दैवी प्रकृति का नहीं है, वरन् जो सर्जनात्मक शक्ति को समझने-समझाने का प्रयास है, और यह सर्जनात्मक शक्ति ही कवि के आस्तिक भाव के केन्द्र में रहती है। कवि की उत्तरकालीन लम्बी कविता ‘असाध्य वीणा’ में सर्जनात्मकता के रहस्य को पकड़ने की चेष्टा हुई है या कि सर्जन और रहस्य को पर्याय-सा मान लिया गया है, क्योंकि दोनों की ही प्रक्रिया पूर्वोक्त नहीं की जा सकती। इसके विपरीत रोमैण्टिसिज़्म के भावावेग की परिणति धार्मिक या दैवी रहस्यवाद में होना स्वाभाविक है, जैसा हम प्रसाद में देखते हैं, जहाँ छायावाद और रहस्यवाद एक-दूसरे में घुले-मिले हैं।




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