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तपोवन में बवन्डर

शीला गुजराल

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 1992
पृष्ठ :102
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 1379
आईएसबीएन :00000

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शीला गुजराल की इन कहानियो में समाज के प्रति तीखा व्यंग्य न होकर ममता, भावुकता और चेतनता का सन्तुलित मिश्रण है।

Tapovan Mein Bavander

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आत्मकथ्य

चाहे समस्त भारत देश की बात करें अथवा यहाँ के नगर, गाँव, घर के भीतर-बाहर के जीवन की-मानव-मन की विकृति के कारण बवण्डर पहले भी उठते रहे हैं और समाज के शान्त तपोवन को दूषित करते रहे हैं, फिर भी तब कुछेक घटनाओं को छोड़ व्यक्ति ने धैर्य एवं संयम का परिचय दिया है। कारण स्पष्ट है-तब जीवन सरल, सादगी-भरा था लेकिन आज आधुनिकता के अन्धड़ में फँसी हुई, जर्जर पूँजीवादी सभ्यता का दामन थामती हमारी यह निरीह, निस्तेज पीढ़ी सतह पर तिर रही है, या फिर मात्र अपने शरीर की धूल झाड़ने में लगी हुई है। अतीत के सागर में प्रवेश कर अमृत मन्थन करने या अपने आप को भविष्य में झाँककर नया पथ खोज निकालने की आकांक्षा अब उसमें कम ही दिखाई देती है।

हमारा रचनाकार भी आज इस स्थिति को प्रतिबिम्बित करने का साहस तो जुटा रहा है लेकिन वह भी कहीं, किन्हीं कारणों से उदास है। क्यों न हो ? आधुनिक युग की जटिलता में जकड़ा हुआ रचनाकार भी तो आखिर समाज का ही एक अंग है। जीवन की वास्तविकता परखने के लिए निरन्तर प्रयास, परिश्रम एवं तपस्या की तथा जीवन-व्यापी दृढ़ संकल्प की जो आवश्यकता है उसे वह शास्वत मूल्यों से विमुख होते, सत्यानुभूति से सरकते वर्तमान समाज में कब तक कायाम रख सकता है ? समाज के अन्य जन को लक्ष्मी संग सहभोग करते, कुबेर की अशर्फियाँ बाँटते, सतह पर तिरते रहें और उधर रचनाकार से अपेक्षा की जाए कि वह गहरे में बैठ कर मोती चुनकर काले अक्षरों में पिरो कर ढेर लगाता जाय ! बिना प्रशासक व सरकार के सहयोग के उसका लेखन पाठक तक कैसे पहुँच सकता है ? शायद अल्मारियों में बन्द पड़ा वह दीमक की खुराक बना रहे और बरसों बाद पोते-पोतियाँ रद्दी वाले को बेचकर उससे जान छुड़ायें।

ऐसे प्रोत्साहन विहीन वातावरण में सृजनात्मक साहित्य का स्फुरण कैसे हो सकता है ? समाज के नव-निर्माण का उत्तरदायित्व साहित्यकार तभी सम्हाल सकता है जब समाज भी साथ में कुछ सहयोग दे।
वर्तमान विचारक, चिन्तक एवं सरकार सभी से मेरा अनुरोध है कि देश को अखण्ड बनाये रखने के लिए, संसार में विकासशीलता लाने तथा विश्व में शान्तिसन्देश पहुँचाने के लिए वे रचनात्मक संस्कृति को प्रोत्साहन दें ताकि साहित्यकार अपनी नैतिक भूमिका निभाने में सफल हो।

शीला गुजराल

सतह पर तिरती


विमान से उतरते ही मारिस ने देखा, मदन और उसके पिता विजयभाव से मुस्काते, फूलों के गुलदस्ते उठाए स्वागत हेतु खड़े थे तुरन्त उसे गाड़ी में बिठा, पास खड़े अफसर से दो शब्द बतिया, हवाई अड्डे ले गए जहाँ पूरी स्वागत मण्डली प्रतीक्षारत खड़ी थी।

सबसे पहले गोल-मटोल, गहनों में लदी, जरीदार साड़ी में लिपटी प्रौढ़ा ने उसे फूलमाला पहना सीने से चिपकाते हुए ऐसे दबोचा कि केश-सज्जा के बखिये उधेड़ डाले।
पाउडर में लथपथ, इत्र से नहाई, शिफोन में लिपटी, कमर कण्ठ कान हथेली जगह-जगह मुक्तामणि की आभा दिखाती, ऊँची एड़ी पर भारी भरकम नितम्बों पर झूमती, लड़खड़ाती अधेड़-उम्र स्त्री ने आवेश भरे स्वर में कहा, ‘‘भाभी, बहुत हो चुका, अब हमें भी गले मिलने दो’’ और फूलमाला पहना बाजुओं की गिरफ्त में ऐसे जकड़ा मानो श्वासगति बन्द करने पर तुली हो।

माँ और बुआ के बाद ननदों की बारी आई। एक से एक बढ़ कर चमकती दमकती, आभूषणों से लदी धुनी हुई कपास की प्रतिमूर्तियों ने आगे बढ़कर फूलों से अभिनन्दन किया।
आभूषणों की दमक, रंगबिरंगी साड़ियों की चमक और पाउडर-इत्र की अँधाधुंध आँधी में लुढ़कती मक्खन-सी मुलायम सभी मूर्तियाँ मारिस को तो एक जैसी ही दिखाई दे रही थीं। ऐसा आभास हुआ मानो वह कहीं परियों के देश पहुँच गई हो।
कुछ क्षण इहलोक का आनन्द ले जब यह वास्तविकता के धरातल पर पहुँची तो उसकी निगाहें आतुरता से मदन को खोजने लगीं।

मदन और उसके पिता ने कमरे में प्रवेश करते ही सूचना दी, ‘‘सामान की व्यवस्था हो गई है, आप बाहर आईये, यहीं से प्रस्थान करें’’, और गाड़ियों की कतार में कपास के बोरों की तरह श्वेत, भारी भरकम मूर्तियों को वातानुकूल गाड़ियों में लादना शुरू किया।

माँ, बुआ और सबसे बड़ी ननद मारिस के हिस्से आई। टूटी-फूटी अँग्ररेज़ी में बुआ और अमरीकी गँवार बोली में बड़ी ननद के सवालों की झड़ियाँ शुरू हुई। सारे रास्ते दोनों में होड़ लगी रही कि कौन मारिश को अधिक प्रभावित कर पाती है।
डेढ़ घण्टे की लम्बी यात्रा के बाद जब वह होटल पहुँची तो मनपसन्द भोजन पुडिंग और ब्लैक काफी पीकर तन मन को तृप्ति मिली।

अभी चन्द मिनट सुस्ता भी न पाई थी कि उसे साड़ी जेवर पहना कर भारतीय रमणी के रूप में सजाने की क्रिया प्रारम्भ हुई। दिल्ली जाने के लिए केवल साढ़े तीन घण्टे शेष थे और हवाई अड्डे पर एक घण्टा पहले पहुँचना अनिवार्य था
एक हाथ उसे कण्ठमाला पहना रहा था, तो दूसरा उसके हाथों में चूड़ियाँ चढ़ा रहा था। कोई साड़ी की गाँठ बाँधने में व्यस्त, तो कोई चोली के बटन सँवार रही थी। केशविन्यास के लिए होटल से ही एक विशेषज्ञ बुलाई गई थी जिसने एक आकर्षक जूड़ा बाँध कर उसे एक सुन्दर-सलौनी हिन्दुतानी युवती के साँचे में ढाल दिया था।

दिल्ली पहुँचते ही हवाई-अड्डे पर भारी भरकम जुलूस स्वागत हेतु खड़ा था। सभी से विधिवत परिचय करवा, बुआ मारिस को अपने घर ले गई क्योंकि शादी से पहले पति के साथ एक छत के नीचे रहना हिन्दू धर्म स्वीकार नहीं करता।
सप्ताह भर संगीत, काकटेल पार्टियाँ, मेंहदी, चूड़ा और न जाने शादी के कितने अन्य उत्सव खूब धूमधाम से मनाए गए। मारिस की समझ में नहीं आता था कि कुछ उत्सव तो ऐसे थे जहाँ केवल कुछ औरतें और बच्चे ही शामिल होते और वे भी बुआ के घर पर। कुछ ससुराल में इतने बड़े पैमाने पर मनाए जा रहे थे मानों सारी दिल्ली ही वहाँ उमड़ पड़ी हो। सभी दावतों में उसे एक झाँकी बनाकर कठपुतली-सा खड़ा कर देते। सारी शाम वह मेहमानों से घिरी रहती, मदन से यदा कदा आँखों से बातें कर पाती, निकट सान्निध्य के लिए उसका मन हर दम मचलता रहता।

बुआ ने साँठ-गाँठ जोड़, दकियानूसी रीतियों का उल्लंघन कर, हर शाम मदन उससे मिलने आता पर वहाँ भी तो घर मेहमानों से भरा पड़ा था, मेम भाभी से बातें करने के लिए बच्चों में होड़ लगी रहती थी।
शादी के समय सोलह श्रृंगार कर जब उसे वेदी पर बिठाया गया तो उसे लगा मानों उसका पुनर्जन्म हुआ हो। दर्पण में अपनी छवि देख वह स्वयं अपने रूप पर मोहित हो उठी और सुहागरात के लिए सुसज्जित सेज देख वह अपनी सारी सुधबुध ही खो बैठी।

शादी के अगले दिन नव-विवाहित दम्पती को मनाली भेज दिया गया। मधुमास के तीन सप्ताह तो मानों पंख पंख लगा कर उड़ गए। घर वापस होने पर, वही मेले में खोए हुए व्यक्ति का सा अकेलापन और बोरियत।
मदन सुबह का नाश्ता करते ही भाई और पिता जी के साथ दफ्तर चला जाता और सारा परिवार उसके दिल बहलाव करने की होड़ में लग जाता।

भीड़ से राहत पाने के लिए जब वह क्यारियों का निरीक्षण करने बगीचे की ओर जाती तो कई हाथ उसके लिए अनुपम फूल चुन चुन कर भेंट करने को आतुर हो उठते। टेप-रिकार्डर पर जब कभी वह कोई विदेशी धुन बजाती तो अनेकों बेसुरी आवाज़ों की सरगम और मचलते पाँव दाद देने लगते। पढ़ने-लिखने का तो सवाल ही न था। जब भी कोई पुस्तक हाथ में उठाती तो देवरानी अपनी विद्या का चमत्कार दिखाने ‘शैली’ और ‘कीट्स’ का काव्य-पाठ प्रारम्भ कर देती।

नातेदारों के स्नेहपाश से निवृत्त होती तो मित्रों के जटिल जाल में फँस जाती। महीने में मुश्किल से दो-तीन अवसर मिलते जबकि अकेले में पति-पत्नी रात्रिभोज का आनन्द ले पाते।
छः बजे शाम व्यावसायिक गोष्ठियाँ, चाय-पार्टियाँ रात्रिभोज इत्यादि का दौर शुरू हो जाता। कृत्रिम मुस्कान ओढ़े, हृदय में तनिक आशा सँजाए तीन महीने तो जैसे तैसे बीत गए। इस अवधि में नियमित रूप से सभी इष्ट मित्रों को पत्रों द्वारा भारतीय जीवन-शैली का सजीव चित्र अंकित करती रही। परिवार में एक दूसरे के प्रति स्नेह, धन-वैभव और हर प्रकार की सुख-सुविधा का वर्णन भी बड़े चाव से किया गया।

धीरे-धीरे सारा उल्लास क्षीण हो गया। ससुराल वालों के प्यार में लिपटी वह अपने को बन्दी महसूस करने लगी। पिछले तीन महीनों से तो शायद विरला ही कोई पत्र उसने अपने निजी सम्बन्धियों को लिखा हो। शुरू-शुरू में तो वह मदन के सगे सम्बन्धियों के सरल स्नेही स्वभाव से सचमुच बहुत प्रभावित थी। उसे  पूर्ण आशा थी कि अतिशय का प्रारम्भिक बुखार धीरे-धीरे उतर जायेगा और उसे अपने ढंग से समय बिताने की सुविधा मिलेगी, पर अब तो उसे पारिवारिक स्नेह-पाश के जटिल जाल से विमुक्त होने की कोई सम्भावना ही नहीं दिख रही थी।

मारिस की परमप्रिय सखी, ऐनी, ने भी हिन्दुस्तानी से शादी की थी। उसका पति इतना वैभवशाली तो नहीं है लेकिन दोनों पति-पत्नी साथ-साथ काम करते अहमदाबाद के सांस्कृतिक जीवन में महत्त्पूर्ण भूमिका निभा रहे थे। ऐनी के जब बिटिया हुई तो अम्बाला में अपना घर छोड़ सास ने दो महीने तक उसकी सेवा की। जब तक बिटिया के लिए सही ढंग की आया का प्रबन्ध नहीं हुआ वह बच्चे को नहलाना, धुलाना सभी काम अपने हाथ से करती रही। सास, ननदें और ससुराल के सभी अन्य लोग ऐनी को भरपूर प्यार देते लेकिन सभी अपने काम में व्यस्त, अपने ढंग से जीवन व्यतीत कर रहे थे।

ऐनी ने पत्रों द्वारा आधुनिक भारतीय परिवार की जो तस्वीर उसके मन में अंकित की थी, वह तो उसके लिए कल्पना मात्र ही रह गई। माँ-बाप ने बहुत विरोध किया था, बहुत समझाया था कि विदेश में उसे बहुत कष्ट होंगे, वहाँ के वातावरण में वह घुलमिल न पाएगी। भारतीय जीवन-प्रणाली को अपनाना उसके लिए सम्भव नहीं होगा, पर वह एक न मानी।
मदन को पढ़ाई पूरी कर घर लौटना अनिवार्य था और वह मदन के बिना रह भी तो नहीं सकती थी। ऐनी का निजी जीवन इस बात की पुष्टि करता था कि इस देश का पारिवारिक जीवन स्नेह और सद्भावना से भरपूर है। नवीनता और पुराने मूल्यों का सामंजस्य जो यहाँ मिलता है। वह कहीं और देखने को नहीं मिलता। संकट काल में परिवार के सभी सदस्य एक जुट हो साथ निभाते हैं और दैनिक जीवन में कोई हस्तक्षेप नहीं।

यही सुन्दर सपना सँजोए वह भारत को अपनाने आई थी। मदन का परिवार एक आधुनिक परिवार था। सभी सदस्य पढ़े लिखे, घर में हर प्रकार का आधुनिक साज-सामान प्यार की भी कोई कमी न थी पर जाने क्यों इतना अधिक प्यार उस पर उड़ेला जा रहा था कि वह अपने को बाढ़ में लड़खड़ाती लुढ़कती नैया-सी महसूस कर रही थी।

अपने मन की बेचैनी किस को प्रकट करे, इस विचित्र स्थिति पर किस से विचार-विमर्श करे ? आखिर, कोई भी तो उसे कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न नहीं कर रहा था, सभी उसे भरपूर प्यार और सम्मान दे रहे थे। ऐनी यहाँ होती तो वह शायद उसकी मार्मिक पीडा़ समझ पाती। वह उसके स्वभाव से भली प्रकार परिचित है और उसे स्वयं इस प्रकार का खोखला जीवन पसन्द नहीं है। काश, मैं उसके आगे अपने सारे भेद खोल, मन का बोझ हलका कर पाती। पर वह तो आजकल नरोबी में है।

अचानक एक विचार मन में कौंधा, अक्तूबर के अन्त तक उसे भारत लौटना है। जहाँ इतना समय गुजर गया वहाँ जैसे-तैसे छः सप्ताह और सही, चिट्ठी में तो ऐसी बातें समझायी नहीं जा सकतीं। उसे आग्रह करती हूँ कि अहमदाबाद जाने से पहले दो-चार दिन मेरे पास रुक जाए।
 
ऐनी के लिए प्रतीक्षारत, अपने मन को धीरज दिये बैठी थी कि अचानक एक दिन उसका तार आया-मुझे कम से कम तीन महीनों के लिए यहाँ और रुकना पड़ रहा है और यदि काम पूरा न हुआ तो शायद मार्च तक न लौट पाऊँ।
तार मिलते ही उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर गया। रात भर विचारों के गहरे सागर में डूब वह इस जटिल जाल से कुछ राहत पाने को कोई-न-कोई सुराख ढूँढ़ने की चेष्टा करती रही, पर कहीं कोई रास्ता दिखाई नहीं दे रहा था।
एक दिन विवश हो उसने ऐनी को एक पत्र लिखा जिसमें मन के सारे भेद खोल डाले।
प्रिय सखी,

तुम्हारा कहना सही है कि पिछले कुछ महीनों से मेरे पत्र औपचारिक मात्र होते हैं। अपनी पराजय स्वीकार करने में कष्ट होता था इसीलिए मन की व्यथा पत्रों में न उँडेल पाई।

यह सच है कि मदन और उसके सभी रिश्तेदार मुझे भरपूर प्यार देते हैं। सास की तो मैं सचमुच आँखों का तारा हूँ। ननदें, देवर, जेठ सभी मेरी प्रशंसा करते नहीं थकते, पर मैं तो एक जटिल जाल में जकड़ी हुई सी महसूस करती हँ। इच्छा होती है कि सजी-धजी सुन्दर बहू का नाटक छोड़कर अपना वास्तविक रूप अपनाऊँ। काफी, पार्टियाँ ब्रिज संगीत-सभाएँ-इन सबसे मैं बुरी तरह ऊब गई हूँ। सोचा था कि भारतीय सांस्कृतिक जीवन से नाता जोड़ मैं भारत की प्राचीन गरिमा और नवीन समस्याओं को वास्तव में समझ पाऊँगी। यहाँ तो लगता है मानो हम कवच पहनकर बैठे हों। समाचार  पत्रों, पत्रिकाओं द्वारा जीवन की जो झलक दिखाई देती है, उससे तो मैं परिचित ही नहीं हो पाई। दिनभर गपशप, मेहमानों की आवभगत, किसी साड़ी-प्रदर्शनी व जेवर-प्रदर्शनी का चक्कर और शाम को व्यवसाय सम्बन्धी गोष्ठियाँ व महाभोज। ब्रिज, काफी पार्टियों में भाग लेने वाली परिचित महिलाओं का दायरा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है और मदन के बीसियों मित्र भी ‘भाभी’ के लिए नित नये उपहार लाने से नहीं चूकते। पर क्या करूँ ? हमसफर, हमसाथी व्याकुल मन की त्रास मिटाने को एक भी नहीं। खुलकर मदन से कुछ नहीं कह पाती क्योंकि वह तो संवेदनशील पत्नी के राग गाते नहीं थकता। हरदम यही कहता है-मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मुझे तुझ जैसे पत्नी मिली है।
उसे नहीं मालूम उसकी संवेदनशील पत्नी पर क्या गुज़र रही है।
सतह पर तिरती, डूबने से आतंकित,

तुम्हारी
मारिस

तपोवन में बवण्डर


शनय-कक्ष में पड़े हुए डैक्स का ताला तोड़ सुखदेव के पुत्र मोहन ने उत्सुकता से गहनों की पिटारी खोली-एक दम खाली और पास में धरी हुई गुत्थी में केवल दो सौ चालीस, रुपये पच्चीस पैसे। सभी के मुँह लटक गए।
‘‘ऐसा नहीं हो सकता’’, सुखदेव ने उत्तेजित होकर कहा और आगे बढ़कर दराजों के कोने टटोलने लगा। राधा और कृष्णा भी पास सरक कर बेचैनी से काग़ज़ पत्र उलटने लगीं।

अचानक राधा की दृष्टि कागजों के नीचे दबी हुई, बैंक की पास बुक पर पड़ी और वह चिल्लाती हुई बोली, ‘‘देखा, मैंने खजाना ढूँढ़ लिया।’’ क्षण भर के लिए सभी के चेहरों पर रौनक छा गई।
‘‘दिखा मुझे !’’ मोहन ने कापी को झपटते हुए कहा और स्थिति का आभास होते ही उसकी आँखों-तले अँधेरा छा गया-कुल पूँजी केवल सैंतालिस रुपये...।

‘‘क्या इसीलिए अपना काम-धन्धा छोड़कर इतना समय बर्बाद किया था ? ये साले तो सबके सब दो दिन का ड्रामा कर अपने-अपने घर वापस हो गए थे, मुझे तो पूरे दो महीने हो गए इस काल कोठरी में हड्डियाँ गलाते’’, वह मन ही मन बौखलाया।
‘‘बूढी हड्डियाँ भी क्या मजबूत थीं। पिछले महीने सारी रात दियाबत्ती लेकर मैं बैठी रही, यह चुड़ैल यमदूत के मुँह से भी वापस आ गई और मैं मूर्ख घर गृहस्थी का काम छोड़ महीना भर से इस बुढ़िया के सिरहाने बैठी रही’’, सुखदेव की पत्नी राधा अपने पति को कोसने लगी।

क्रोध से बौखलाता हुआ कस्तूरी का प्राणप्रिय भांजा अतुल मन ही मन सोच रहा था, ‘‘कल्पना के घोड़ों पर सवार थे मेरे अम्मी बाबा। स्वयं तो मुसीबत भोगनी ही थी, मुझे भी इस नर्क में साथ खींच लाये। दिन भर उपवास कर बुढ़िया के सिरहाने बैठे रहो और रात के अँधेरे में दूसरों से नजर बचाकर बिस्कुट, मट्ठी फल-जो कुछ भी पड़ोसी भेंट रूप में छोड़ जायें, उन पर मुँह मार कर गुज़ारा करो। सोने के लिए न कोई बिस्तर न कोई सेज, फर्श के ऊपर पतली-सी चटाई बिछाकर करवटें बदलते रात गुजारो यह भी कोई ज़िन्दगी है ! हम तो तीन दिन में ही दुम दबाकर भाग गए थे और कानों को हाथ लगाया था कि इस नर्क कुण्ड में फिर कभी न आयेंगे। अम्मी की ताकीद पर उठावनी के समय फिर आना पड़ा ताकि मेरे हिस्से की राशि कोई और न ले जाये। अब मिल गया कुबेर का खजाना !’’

कुंवर, बंसी लाजो, सभी हतप्रभ हो मुँह लटकाए बैठे थे। कुल पूँजी को कौन हड़प गया ? सोने के कंगन, जड़ाऊ सैट, नीलम की अँगूठी, पाँच लड़ियों का हार..क्या कुछ नहीं था कस्तूरी के पास और उमर भर की कमाई अलग से, मन ही मन यह सोचते सभी सन्देह-भरी दृष्टि से किशोरी को घूर रहे थे।
अचानक मोहन की दृष्टि एक फटे-पुराने रजिस्टर पर जा टिकी। उसे खोलते ही वह स्तब्ध रह गया। रजिस्टर के पहले पृष्ठ पर लिखा था, ‘‘दान वह जिसका कभी बखान न हो। प्रशंसा केप्रलोभन से, भगवान मुझे सदा बचाना, यही मेरी आपसे विनती है।’’

रजिस्टर में शुरु से आखिर तक आमदनी व खर्चे का पूरा ब्यौरा दे रखा था। पति के स्वर्गवास होने पर हाथ में कुल पूँजी, पिटारी में रखे हुए जेवरों का उल्लेख, समय-समय पर मिला हुआ सूद स्कूल से वेतन हस्तकला की बिक्री से आय इत्यादि सभी का पूरा जोड़ और दूसरी ओर विभिन्न संस्थाओं की सहायता के लिए चंदा, घर-गृहस्थी का खर्च इत्यादि, पूरे व्यय का तिथि अनुसार अंकन। पहली बीमारी तक तो बुआ के जेवर सभी सुरक्षित रखे पड़े थे और नगद राशि भी दस हजार रुपये से ऊपर थी। इसके बाद शायद बुआ ने परलोक की तैयारी शुरू कर ली थी। रजिस्टर के अनुसार हर तीसरे महीने कोई न कोई जेवर बेचकर एक नये प्रौढ़-शिक्षा केन्द्र का निर्माण करना उन्होंने नियम बना लिया था। आश्चर्य इस बात का कि पूरी बस्ती में किसी को वास्तविकता का आभास न था। तीमारदारी के लिए जब भी शहर की महिलाएँ तथा सज्जन, आते, सभी यह कहते थे कि घोर परिश्रम से चंदा इत्यादि इकट्ठा करके बुआ इस काम में जुटी हुई थी, किसी को पूर्ण स्थिति का अनुमान न था। केवल किशोरी यह रहस्य जानती थी, लेकिन वह तो चुप्पी साधे बैठी थी।

बुआ के चचेरे भाई की बेटी किशोरी, गुमसुम बैठी बुआ की यादों में खोई थी। पिछले पचास वर्ष की घटनाएँ चल-चित्र की तरह उसकी आँखों के आगे उभर रही थीं। कस्तूरी बुआ जब विधवा हुई थी और कुछ ही महीनों में ससुराल से अपमानित हो बाहर फेंक दी गई थी तो किसी ने उसे दो दिन के लिए भी शरण न दी। भगवान की कृपा से जब वह अपने पाँव पर खड़े होने लायक हुई तो शादी के पुराने जेवर भी उसे वापस मिल गए। घर से निकालते समय तो जेवर की पिटारी पर सास कुण्डली मार कर बैठ गई थी। बरसों बाद, जब देवरानी का इकलौता बेटा स्वर्ग सिधार गया तो उसने सोचा कि शायद कस्तूरी की आह लगी है, और उसने जेवरों की पिटारी जिठानी को वापस कर दी। अपने परिश्रम और सदाशयता से कस्तूरी ने जीवन सफल बनाया और अब दोनों बहिनें तपोवन के जैसे शांत वातावरण में सन्तुष्ट जीवन जी रही थीं।

शुरु-शुरु में तो स्नेहमयी कस्तूरी को प्रियजनों की याद बहुत सताती थी पर धीरे-धीरे एकाकी जीवन की अभ्यस्त हो गई। अचानक एक दिन जब चण्डीगढ़ से आर्य समाज सम्मेलन में भाषण देने के लिए निमन्त्रण पत्र आया तो वह खुशी से झूम उठी। ‘‘लाजो दीदी से मिलने का कैसा अच्छा अवसर मिला, सौभाग्य से शुक्रवार शाम को वहाँ पहुँच रही हूँ। अतुल का स्कूल तो शनिवार और रविवार को बन्द रहेगा, उसे मैं अपने संग कैम्प में ले आऊँगी।’’ मन ही मन यह निर्णय ले वह शकरपारे और गाजर का मुरब्बा तैयार करने में व्यस्त हो गई।



                           


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