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उपन्यास >> एक गंधर्व का दुःस्वप्न

एक गंधर्व का दुःस्वप्न

हरिचरन प्रकाश

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :175
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 13851
आईएसबीएन :9788126715800

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देश की संप्रभुता को खतरे में डालने वाले तत्त्वों को बड़ी संजीदगी से बेनकाब किया गया है इस उपन्यास में।

अक्सर देखा गया है कि संगीत, कला और साहित्य से जुड़े लोग अपनी एक निजी और आन्तरिक दुनिया में रमे रहते हैं। वे बाहरी दुनिया की बड़ी-से-बड़ी घटनाओं को भी निरपेक्ष भाव से लेते हैं। उनके भीतरी संसार में बाहर के घटनाचक्र का, यथार्थ का प्रवेश कुछ विचित्र किस्म के ऊहापोह और उथल-पुथल पैदा करता है। उपन्यास का नायक भवनाथ ऐसा ही एक संगीतज्ञ है - बजाने-गाने में मस्त। चारों ओर की चीख-पुकार में उसे खोए हुए सुरों का खयाल आता है। वह दिव्यास्त्रों की तरह दिव्यरागों की कल्पना करता है। गन्धर्व कौन-सा सुर जगाते होंगे, कौन-सा राग मूर्त करते होंगे, हमसे कहीं ऊपर उनका सुर होगा - ऐसा सोचता रहता है। संगीत की खोई हुई दुनिया के झिलमिले सपने आते और चले जाते। गन्धर्व के बहाने हरी चरन प्रकाश द्वारा रचा गया एक बेहद मार्मिक और रोचक उपन्यास है - एक गन्धर्व का दुःस्वप्न! स्वतन्त्रता-प्राप्ति से लेकर आज तक के सामाजिक- राजनीतिक घटनाचक्रों को इस उपन्यास में बड़ी बेबाकी से रेखांकित किया गया है। चाहे वह महात्मा गांधी की हत्या हो या फिर बाबरी मस्जिद के विध्वंस से उपजे दंगे-फसाद, वह मंडल-कमंडल की राजनीति हो या फिर जाति-धर्म की - देश की संप्रभुता को खतरे में डालने वाले तत्त्वों को बड़ी संजीदगी से बेनकाब किया गया है इस उपन्यास में।

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